ओ3म् न घ्रंस्तताप न हिमो जघान प्र नभतां पृथिवी जीरदानु:।
आपश्चिदस्मै घृतमित् क्षरन्ति यत्र सोम: सदमित् तत्र भद्रम॥ (अथर्ववेद 7।18।2)
शब्दार्थ- भगवद्भक्त को, उपासक को (घ्रन्) ग्रीष्मकाल का प्रचण्ड सूर्य (न तताप) नहीं तपाता (हिम:) हिम, पाला, सर्दी (न जघान) उसे पीड़ित नहीं करती । (पृथिवी) यह पृथिवी (जीरदानु:) जीवन देने वाली बनकर (प्र नभताम्) उसके ऊ पर सुखों की वृष्टि करती है (आप: चित्) जलधाराएँ भी इसके लिए (घृतम् क्षरन्ति) घृत की धाराएं बनकर सुख की वृष्टि करती हैं । (यत्र सोम:) जहाँ प्रभु का प्रेमरस होता है (तत्र) वहाँ (सदम् इत्) सदा ही (भद्रम्) कल्याण होता है ।
भावार्थ- वेद में ईश्वर को ‘वृष:’ कहा गया है । वह मेघ बनकर सुखों की वृष्टि करता है । जब भक्त पर प्रभु-कृपाओं की वृष्टि होने लगती है-
1. गर्मी और सर्दी उसे नहीं सताती ।
2. पृथिवी उसके लिए सुखों की वृष्टि करने लग जाती है । उसे संसार में किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता । उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं ।
3. जलधाराएँ भी उसके ऊ पर सुख की वृष्टि करती हैं ।
4. जहाँ प्रभु का मधुर प्रेमरस बहता है, वहाँ तो सदा कल्याण ही कल्याण है, अकल्याण तो वहाँ हो ही नहीं सकता ।
संसार के लोगो ! यदि संसार के ताप से, संसार के थपेड़ों से बचना चाहते हो, यदि सुख और आनन्द की अभिलाषा है, यदि कल्याण की कामना है तो अपने-आपको प्रभु के प्रेमरस में लवलीन कर लो। आप भवसागर से पार उतर जाओगे । - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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