ओ3म् क्रत्वः समह दीनता प्रदीपं जगमा शुचे।
मृळा सुक्षत्र मृळय॥ ऋग्वेद 6.89.3॥
ऋषिः वसिष्ठः॥ देवता वरुणः॥ छन्दः आर्षीगायत्री॥
विनय- हे मेरे तेजस्वी स्वामिन! मुझ दीन की प्रार्थना सुनो। मैं इतना दीन हूँ, इतना अशक्त हूँ कि अपने कर्त्तव्य के विरुद्ध आचरण कर देता हूँ। यह जानता हुआ कि यह करना नहीं चाहिए, फिर भी कर देता हूँ। मैं कई शुभ संकल्प करता हूँ कि आज से नित्य व्यायाम करूँगा, नित्य सन्ध्या करूँगा, पर दीनतावश इन्हें निभा नहीं सकता। हृदय में कई अच्छी-अच्छी प्रज्ञाएँ (बुद्धियाँ) स्थान पाती हैं, पर झूठे लोकलाज के वश मैं उन पर अमल करना शुरू नहीं करता। उनके विरुद्ध ही चलता जाता हूँ। यह मैं जानता होता हूँ कि मेरा ‘क्रतु’ क्या है, कर्त्तव्य कर्म क्या है। अन्दर से दिल कहता जाता है कि तू उलटे मार्ग पर चला जा रहा है, फिर भी मैं दुर्बल किसी भय का मारा हुआ, उसी उलटे मार्ग पर चलता जाता हूँ। हे दीप्यमान देव! हे मेरे स्वामिन्! तू मुझे वह तेज क्यों नहीं देता, जिससे कि मैं निर्भय होकर अपने कर्त्तव्य पर डटा रहूँ। किसी के कहने से या हँसी उड़ाने से उलटा आचरण करने को प्रवृत्त न होऊँ तथा किसी क्लेश से डरकर अपने ‘क्रतु’ को न छोडूँ। मुझे यह अवस्था बड़ी प्रिय लगती है, पर दीनतावश मैं इस अवस्था को प्राप्त नहीं कर रहा हूँ। हे ‘सुक्षत्र’! है शुभ बलवाले ! मुझे अदीन बना दे। मैं दीनता का मारा हुआ तेरी शरण आया हूँ। इस दीनता के कारण मुझसे सदा उलटे काम होते रहते हैं और फिर मेरा अन्तरात्मा मुझे कोसता रहता है, इसलिए मैं सदा बेचैन रहता हूँ। हे प्रभो ! मुझे सुखी कर। मुझमें तेज देकर मेरी बेचैनी दूर कर। इस अशक्तता के कारण मैं जीवन में पग-पग पर असफल हो रहा हूँ, मेरा जीवन बड़ा निकम्मा हुआ जा रहा है। हे प्रभो ! क्या कभी मेरे वे सुख के दिन न आएँगे जब मैं अपने क्रतु पर दृढ़ रहा करूँगा, अपने संकल्पों पर अटल रहा करूँगा? हे मेरे स्वामिन् ! ऐसी शक्ति देकर अब मुझे सुखी कर दो, मुझे सुखी कर दो।
शब्दार्थ- समह=हे तेजोयुक्त ! शुचे=हे दीप्यमान ! दीनता=दीनता, अशक्तता के कारण मैं क्रत्वः=अपने क्रतु से, संकल्प से, प्रज्ञा से, कर्त्तव्य से प्रतीपम्=उलटा जगम=चला जाता हूँ सुक्षत्र=हे शक्तिवाले ! मृळ=मुझे सुखी कर। मृळय=मुझे सुखी कर। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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