ओ3म् अपां मध्ये तस्थिवांसं तृष्णाविदज्जरितारम् ।
मृळा सुक्षत्र मृळय॥ ऋग्वेद 7.89.4॥
ऋषिः वशिष्ठः॥ देवता वरुणः॥ छन्दः आर्षीगायत्री॥
विनय- हे प्रभो ! क्या तुम्हें मेरी दशा पर तरस नहीं आता? सन्त लोग मेरे-जैसों पर हँस रहे हैं और कह रहे हैं, “मुझे देखत आवत हाँसी, पानी में मीन प्यासी।’’ सचमुच मैं तो पानी के बीच में बैठा हुआ भी प्यास से व्याकुल हो रहा हूँ। तेरे करुणा-सागर में रहता हुआ भी मैं दुःखी हूँ, सन्तप्त हूँ। जब तूने मेरी इच्छाओं को पूरा करने के लिए ही यह संसार ऐश्वर्यों से भर रखा है और तुम प्रतिक्षण मेरी एक-एक आवश्यकता को बड़ी सावधानी से ठीक-ठीक स्वयं पूरा कर रहे हो, तब मुझे अपने में कोई इच्छा या कामना रखने की क्या जरूरत है? पर फिर भी न जाने क्यों मुझे अनेक तृष्णाएं लग रही हैं, सैकड़ों कामनाएँ मुझे जला रही हैं। हे नाथ! मैं क्या करूँ? इस विषम दशा से मेरा कौन उद्धार करेगा? हे उत्तम शक्तिवाले! मैं इतना अशक्त हो गया हूँ, इतना निर्बल हूँ कि सामने भरे पड़े हुए पानी से भी अपनी प्यास बुझा लेने में असमर्थ हूँ। मैं जानता हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए, किन्तु कमजोरी इतनी है कि उसे मैं कर नहीं सकता। हे सच्चिदानन्दरूप ! मैं देखता हूँ कि आत्मा में सचमुच अपरिमित बल है, तो भी मैं उस बल को ग्रहण नहीं कर सकता। मैं जानता हूँ कि मेरी आत्मा अमूल्य ज्ञान-रत्नों का भण्डार है, पर मैं इस रत्नाकार के बीच में बैठा हुआ भी ज्ञान का भिखारी बना हुआ हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरे आनन्दमय प्रभु ! तुम सर्वदा सर्वत्र हो, सदा मेरे साथ हो, पर फिर भी मैं कभी आनन्द नहीं प्राप्त कर पाता। अरे, मैं तो अमृत के सागर में पड़ा मरा जा रहा हूँ। तेरी अमृतमय गोद में बैठा हुआ, स्वयं अमृतत्व होता हुआ बार-बार मौत के मुँह में जा रहा हूँ। हे नाथ ! अब तो मुझ पर दया करो! मुझे इस विषम अवस्था से उबार लो! अब तो मुझे सुखी कर दो! हे परमकारुणिक! हे सुक्षत्र! मुझे इतना क्षत्र, इतना बल तो दे दो कि मैं सामने भरे पड़े जल का सेवन तो कर सकूँ, इससे अपनी तृष्णा शान्त करके सुखी तो हो सकूँ। हे शक्तिवाले! जिस तूने मुझे इस पानी के सागर में रखा है, वही तू मुझे इसके पीने का सामर्थ्य भी प्रदान कर, जिससे कि मैं अपनी प्यास बुझाकर सुखी हो सकूँ। हे नाथ! मुझे सुखी कर, सुखी कर। अब तो अपनी शक्ति देकर मुझे सुखी कर ! यह तेरा स्तोता कब से चिल्ला रहा है, अब तो इसे सुखी कर दे!
शब्दार्थ- जरितारम्=मुझ स्तोता को अपां मध्ये तस्थिवांसम्=पानी के बीच में बैठे हुए भी तृष्णा=प्यास अविदत्=लगी है। सुक्षत्र=हे शुभशक्तिवाले! मृळ=मुझे सुखी कर, मृळय=सुखी कर। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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