ओ3म् यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन।
स धीनां योगमिन्वति॥ ऋग्वेद 1.18.7
ऋषिः काण्वो मेधातिथिः॥ देवता सदसस्पतिः॥ छन्दः गायत्री॥
विनय- बहुत से लोगों को अपनी अक्ल का, अपनी बुद्धि का बहुत अधिक अभिमान होता है। वे समझते हैं कि वे अपनी अक्ल व चतुराई के बल पर हर एक कार्य में सिद्धि पा लेंगे। उन्हें अपने बुद्धि-बल के सामने कुछ भी दुःसाध्य नहीं दीखता। पर उन्हें यह मालूम नहीं कि बहुत बार उन्हें जिन कार्यों में सफलता मिलती है, वह इसलिए मिलती है कि अचानक उस विषय में उनकी समझ (बुद्धि) प्रभु के बुद्धियोग के अनुकूल होती है। असल में तो इस जगत् का एक-एक छोटा-बड़ा कार्य उस प्रभु के योगबल (बुद्धियोग) द्वारा सिद्ध हो रहा है। हम मनुष्यों की बुद्धि जब प्रभु के बुद्धियोग के अनुकूल (जान-बूझकर अनुकूल होती है या अचानक) होती है, तब हमें दीखता है कि हमारी बुद्धि से किया कार्य सफल हो गया। पर अचानक हुई अनुकूलता के कारण जो हमें अपनी सफलता का अभिमान हो जाता है, वह सर्वथा मिथ्या होता है। वह हमें केवल धोखे में रखने का कारण बनता है और कुछ नहीं। पर जो जानबूझकर प्राप्त की गई अनुकूलता होती है, वही सच्ची है। यदि मनुष्य अपने कार्यों की सिद्धि चाहता है, अपने कार्यों को सफल यज्ञ बनाना चाहता है, तो उसे यत्नपूर्वक अपनी बुद्धि को प्रभु से मिलाना चाहिए, अपनी बुद्धि का प्रभु में योग करना चाहिए।
हमारी बुद्धि प्रभु से युक्त हो गई है, उसकी बुद्धि से जुड़ गई है या नहीं, यह पूरी तरह से निर्णीत कर लेना तो हम अल्पज्ञ पुरुषों के लिए सदा सम्भव नहीं होता। हमारे लिए तो इतना ही पर्याप्त है कि हम युक्त करने का यत्न करते जाएं। प्रभु सत्यमय है, अतः हमारी बुद्धि सदा सत्य और न्याय के अनुकूल ही रहे। हमारे ज्ञान में जो कुछ सत्य और न्याय है, बुद्धि उसके विपरीत जरा भी निर्णय कर न करे। यह यत्न करना ही पर्याप्त है। हमारी बुद्धि का प्रभु से योग करने का यत्न जब परिपूर्ण हो जाता है, अर्थात् इस योग में प्रभु व्याप्त हो जाते हैं, तभी वह कार्य सिद्ध हो जाता है। अतः हमें अपनी बुद्धियों का अभिमान छोड़कर हमारे यज्ञ कार्य में जो बड़े प्रसिद्ध अक्लमन्द लोग हैं, उनके बुद्धिबल पर भरोसा करना छोड़कर नम्र होकर अपनी बुद्धियों को सत्य और न्याय-तत्पर बनकर प्रभु से जोड़ने का यत्न करना चाहिए। हम चाहे कितने ही बुद्धिमान हों, पर हमें सदा अपनी बुद्धि प्रभु से जोड़कर रखनी चाहिए। प्रभु के अधिष्ठान के बिना कोई भी यज्ञ-कार्य सफल नहीं हो सकता।
शब्दार्थ- यस्मात् ऋते्=जिस प्रकाशक प्रभु के बिना विपश्चितः चन=बड़े-बड़े बुद्धिमान् अक्लमन्द का भी यज्ञः=यज्ञ न सिध्यति=सिद्ध नहीं होता सः=वह प्रभु धीनां योगम् इन्वति=बुद्धियों के योग में व्याप्त हो जाता है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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