विशेष :

दोषों से रहित होने की स्थिति

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ओ3म् तनूपा अग्नेऽसि तन्वं मे पाह्यायुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मे देहिवर्चोदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि।
अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्म आपृण॥ यजुर्वेद 3.17॥

शब्दार्थ- हे (अग्ने) परमेश्‍वर! तू (तनूपाः असि) हमारे शरीरों का रक्षक है अतः तू (मे तन्वम्) मेरे शरीर की (पाहि) रक्षा कर। (अग्ने) हे परमात्मन् ! तू (आयुर्दाः असि) दीर्घायु, दीर्घ-जीवन का प्रदाता है (मे आयुः देहि) मुझे भी सुदीर्घ जीवन प्रदान कर। (अग्ने) हे प्रभो ! तू (वर्चोदाः असि) तेज और कान्ति देने वाला है (मे वर्चः देहि) मुझे भी तेज और कान्ति प्रदान कर। (अग्ने) हे ईश्‍वर! (मे तन्वः) मेरे शरीर में (यत् ऊनम्) जो न्यूनता, कमी, त्रुटि है (मे तत्) मेरी उस न्यूनता को (आ पृण) पूर्ण कर दे।

भावार्थ-
1. प्रभो ! आप प्राणिमात्र के शरीरों की रक्षा करने वाले हो, अतः मेरे शरीर की भी रक्षा करो।
2. आप दीर्घजीवन के प्रदाता हैं, मुझे भी दीर्घ जीवन से युक्त कीजिए।
3. आप तेज, ओज, शक्ति और कान्ति प्रदान करने वाले हैं, मुझे भी तेज, ओज, शक्ति और कान्ति प्रदान कीजिए।
4. प्रभो! अपनी न्यूनताओं को कहाँ तक गिनाऊँ और क्या-क्या माँगूं! ठीक बात तो यह है कि मुझे अपनी न्यूनताओं का भी ज्ञान नहीं है। मेरे जीवन में किस वस्तु की कमी है, मुझे किस वस्तु की आवश्यकता है, इसे तो आप ही अच्छी प्रकार जानते हैं, अतः मैं तो यही प्रार्थना करूंगा भगवान्! मेरे जीवन में जो न्यूनता, कमी और त्रुटि है आप उसे पूर्ण कर दें। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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