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जल पर्यावरण (2)

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पृथ्वी का तीन चौथाई भाग पानी से ढका है। परन्तु कुल उपलब्ध जल का 97.5 प्रतिशत भाग खारा है तथा 2.5 प्रतिशत भाग मृदु जल है। इसमें भी केवल एक प्रतिशत मृदु जल ही मनुष्य के उपयोग में आता है। सम्पूर्ण जल का केवल 0.0002 प्रतिशत नदियों में तथा 0.6 प्रतिशत भूमिगत जल है। एक अनुमान के अनुसार विश्‍व के सरिता सरोवरों में एक लाख बीस हजार घन किलोलीटर मीठा पानी है। इसके कई गुणा अधिक जल की मात्रा सतह के नीचे उपलब्ध है।

इस भूमिगत जल की मात्रा 80 लाख घन किलोलीटर है।91

इस प्रकार धरती पर जल की मात्रा तो विशाल जनसंख्या के लिए भी पर्याप्त है। परन्तु फिर भी अनेक क्षेत्रों में लोगों को पीने के पानी के लिए मीलों चलना पड़ता है। इसका कारण जल प्रबन्धन की कमी तथा जल संसाधन का समुचित उपयोग नहीं कर पाना है। मानवीय गतिविधियों द्वारा जल-संसाधन को बर्बाद करने की प्रवृत्ति ने इस समस्या को और भी भयावह बना दिया है। जल के बहुत बड़े भाग को प्रदूषित कर दिया गया है। यहाँ तक कि सागर और भूमिगत जल भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है।

शतपथ ब्राह्मण में 17 प्रकार के जलों का उल्लेख है जो मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों के लिए हितकर है-
त वाऽएताः। सप्तदशापः सम्भरति सप्तदशो वै प्रजापतिः प्रजापतिर्यज्ञस्तस्मात्सप्तदशापः सम्भरति॥92

आचार्य सायण ने इसके सोलह नामों का भाष्य इस प्रकार किया है-
1. सरस्वती आपः- सरस्वती नदी का जल।
2. ऊर्मी आपः- बरसने वाला सींचने का जल।
3. स्यन्दमाना आपः- प्रवाहमान जल।
4. अपयती आपः- नदी से भिन्न अन्यत्र बहने वाला जल।
5. समुद्रिया आपः - समुद्र का जल
6. निवेष्या आपः - घास आदि में विद्यमान जल।
7. स्थावरा आपः - वरुण देवता का स्थावर जल।
8. आतवपर्ष्याः आपः - सूर्य से तपकर बरसने वाला जल।
9. वैशन्ती आपः - लघु तालाब का जल।
10. कूप्या आपः - कुएं का जल।
11. प्रुष्वा आपः - कोहरे का जल।
12. मद्यव्या आपः- मीठा जल।
13. गौरुल्वया आपः- गर्भस्थ जरायु का जल।
14. पयस्या आपः- दूध रूप में जल।
15. विश्‍वभृतापः - तरल घी के रूप में जल।
16. मरीचि आपः - वाष्प रूप जल।

प्रकृति में जल प्राप्ति के अनेक स्रोत हैं, जिनमें वर्षा का प्रमुख स्थान है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि पृथ्वी पर जल का आगमन मेघों द्वारा होता है, जो कि जल को धारण करते हैं- तृतीयः पिता जनितौषधीनामपां गर्भं व्यदधात्पुरुत्रा। 93

अन्य स्थलों पर भी बादल से बरसात का उल्लेख है-
पर्जन्यो वृष्टिमां इव॥94
उत्पर्जन्यस्य वृष्ट्योदस्थामम्रतां अनु॥95
पर्जन्यो वृष्टिमान्भविष्यति॥96

समु्रद जल प्राप्ति का बहुत बड़ा स्रोत है। शतपथ ब्राह्मण में समुद्र को नदीपति कहा गया है-
अपां वाऽएष पतिर्यन्नदीपतिः॥97

तैत्तिरीय आरण्यक में स्वच्छ जल से युक्त कुंओं का उल्लेख मिलता है-
एता (कूप्या) वै तेजस्विनीरापः॥98

वर्तमान में सब प्रकार का जल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है, जो अत्यन्त भयावह स्थिति है। प्राचीन ऋषियों तथा मनीषियोें द्वारा जल को शुद्ध रखने की ओर विशेष ध्यान दिया गया था। जलों को शुद्ध करने के अनेक उल्लेख वैदिक वाङ्मय में प्राप्त होते हैं। यजुर्वेंद वाङ्मय में जलशोधन का मुख्य उपाय ‘यज्ञ’ को कहा गया है।

यजुर्वेद में उल्लेख है कि सुगन्ध आदि पदार्थों के होम से मधुर गुणयुक्त एवं पवित्र जलों को उत्पन्न करें, जिससे उत्तम गुणों से युक्त औषधियाँ प्राप्त हों तथा प्रजा की यक्ष्मा आदि रोगों से रक्षा हो-
अपो देवीरुपसृज मधुमतीरयक्ष्माय प्रजाभ्यः।
तासामास्थानादुज्जिहतामोषधयः सुपिप्पलाः॥99

इसी प्रकार एक अन्य मन्त्र में ‘पिबैताऽअपः’100 कहते हुए यज्ञ से शुद्ध हुए जलों का पान करने का उल्लेख आता है।

जल को यज्ञ द्वारा सुसंस्कृत एवं शुद्ध करके और अधिक हितकारी बनाया जा सकता है। यजुर्वेद में जो ‘निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु’’101 की प्राथना द्वारा इच्छा एवं आवश्यकतानुसार वर्षा की कामना की जाती है, वह भी यज्ञ द्वारा पूर्ण होने का उल्लेख है-
वृष्टिश्‍च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥102

संसार का प्रत्येक प्राणी अपने शरीर से मलमूत्र का विसर्जन करता है। यह सब मल-मूत्र कुंओं, तालाबों, झीलों, बावड़ियों, नदियों तथा समुद्रों में पहुंचता है और कुछ भाग धरती पर रह जाता है। सूर्य के ताप से इस सब मल-मूत्र एवं औद्योगिक कचरे का जलीय अंश सब स्थानों से वाष्प बनकर उड़ जाता है तथा अन्तरिक्ष में संग्रह होता है, यही मलार्क रूपी जल वर्षा द्वारा प्राणियों को प्राप्त हो जाता है। ऐसे प्रदूषित जल को पीने से ही आज रोगों की वृद्धि हो रही है। इस गम्भीर समस्या का समाधान यज्ञ से हो सकता है। यज्ञाग्नि में पौष्टिक, सुगन्धित, रोगनाशक एवं स्वादिष्ट पदार्थों की आहुतियाँ दी जाने पर उनसे उत्पन्न वाष्प का सम्पर्क अन्तरिक्ष में स्थित मलार्क से होता है, जिससे मल के परमाणुओं का विनाश होकर पौष्टिक, सुगन्धित, रोगनाशक एवं स्वादिष्ट तत्वों की जल में प्रधानता हो सकती है। इसके लिए विशाल स्तर पर यज्ञ होते रहने आवश्यक हैं। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने तो प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य ‘अग्निहोत्र’ का विधान किया था। यदि अब भी ऐसा ही हो तथा यज्ञ शोधित जलों का सेवन किया जाए तो पूर्णतया स्वस्थ रहा जा सकता है।

यज्ञ शोधित जल दिव्य गुणों से युक्त हो जाते हैं तथा वे रोगों का नाश करने की भी सामर्थ्य रखते हैं। यजुर्वेद में दिव्य गुणों से युक्त वर्षा की कामना की गई है-
दिव्या वृष्टिः सचताम्॥103

सूर्य की किरणें एवं औषधियां भी जल को शुद्ध करती हैं। यजुर्वेद में सूर्यरश्मियों एवं कुशा-घास को जलशोधक कहा जाता है- सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः॥ 104 (क्रमशः)
सन्दर्भ-
91. ‘अणुव्रत’ पाक्षिक (दिल्ली) - अप्रेल 1999
के पृ. 19 पर डॉ. हरेन्द्र शुक्ल
का आलेख ‘जल जीवन की घटती उपलब्धता
92. शतपथ ब्राह्मण 5.3.4.22
93. यजुर्वेद संहिता 17.32
94. तैत्तिरीय संहिता 1.4.20
95. काठक संहिता 2.6
96. शतपथ ब्राह्मण 5.3.4.10
97. तैत्तिरीय आरण्यक 1.2.4.2
98. यजुर्वेद संहिता 11.38
99. यजुर्वेद संहिता 23.17
100. यजुर्वेद संहिता 22.22
102. यजुर्वेद संहिता 18.9
103. यजुर्वेद संहिता 13.30
104. यजुर्वेद संहिता 1.12
105. तैत्तिरीय आरण्यक 1.2.6.7

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