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जल पर्यावरण (3)

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शुद्ध जल प्रकृति का वह संसाधन है, जिसका दुरुपयोग सम्पूर्ण मानव जाति के समक्ष एक गम्भीर संकट के रूप में उपस्थित होता जा रहा है। इसलिए यह आवश्यक है कि जल संसाधन की रक्षा की जाए, जल को अशुद्धि से बचाया जाए तथा जल शोधन के साधनों का अवलम्बन किया जाए।

प्राचीन ऋषि-मुनि जल की शुद्धि एवं पवित्रता बनाए रखने के लिए विशेष सचेष्ट थे। तैत्तिरीय आरण्यक में उल्लेख है कि जल में न तो कभी मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए तथा न ही थूकना चाहिए-

नाप्सु मूत्रपुरीषं कुर्यान्न निष्ठवेत्॥105

आपस्तम्व धर्मसूत्र में भी जल में मल-मूत्र, थूक तथा मैथुन का निषेध किया गया है-
अप्सु च। न मूत्रपुरीषं कुर्यात् तथाष्ठेवनमैथुनयोः कर्माप्सु वर्जयेत्॥106

वर्तमान में अधिकांश बड़े शहरों में बहुत से लोग नदी-नालों के किनारे ही मल-मूत्र का त्याग करते हैं। शौचालयों की समुचित व्यवस्था न होने के कारण तीर्थयात्री एवं मजदूर नदी-नालों के किनारे ही शौच जाते हैं। ग्रामीण लोग भी पास ही पानी उपलब्ध होने के कारण कच्चे तालाबों अथवा नालों के पास ही शौच जाना उचित समझते हैं। अतः इस विषय में पर्याप्त जागृति की आवश्यकता है तथा शुद्धता विषयक वैदिक शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाया जाना आवश्यक है।

ऋषियों ने तो जल में मल-मूत्र-थूक आदि तक का भी निषेध किया था, परन्तु आज तो इससे अत्यधिक घातक एवं व्यापक स्तर पर जल को प्रदूषित किया जा रहा है। वर्तमान् में कोई भी नदी गन्दगी से रहित नहीं है। आज देश की समस्त पवित्र नदियाँ प्रदूषित हो गयी हैं। गंगा के किनारे सैकड़ों बड़े उद्योगों तथा हजारों लघु उद्योगों और शहरी जल-मल के जहरीले पानी से यह देश की एक सर्वाधिक प्रदूषित नदी बन गई है। भारतीय संस्कृति में अत्यधिक पवित्र कही जाने वाली यह गंगा-नदी उत्तरकाशी से गन्दगी को ढोते-ढोते हुगली के अपेय जल में परिवर्तित हो जाती है।

जिन नदियों को प्राचीन मनीषियों ने प्रतिष्ठित पद पर पहुंचाया, उन्हीं में शहरों का मल-जल बिना किसी उपचार के छोड़ दिया जाता है, जो आज प्रदूषण का मुख्य कारण बन गया है। जैसे-जैसे शहरों की जनसंख्या बढ़ रही है, कचरे की मात्रा की अप्रत्याशित वृद्धि होती जा रही है। आज उद्योगों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इनसे निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों को जल में बिना किसी उपचार के छोड़ा जा रहा है। ये अपशिष्ट इतनी अधिक मात्रा में होते हैं कि प्रदूषण व गन्दगी को रोग पाना अत्यन्त कठिन अथवा असम्भव सा कार्य हो गया है। कल्पना करने की सीमा निकल चुकी है। अब इसके परिणाम सामने आने लगे हैं। दूषित विषैले पानी से कई गम्भीर बीमारियों की चपेट में अनेक नगर, ग्राम तथा कस्बे आ चुके हैं। जल-जन्तु भी मर रहे हैं। इसी कारण इस दूषित पानी से कृषि को भी क्षति हो रही है। आज सब्जी-बाजार ऐसी दूषित सब्जी से भरे पड़े हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तथा बेस्वाद हो गई है। यह सब सब्जी के खेतों को दूषित पानी से सींचने का परिणाम है।

भारतीय संस्कृति में उत्सवों के अवसर पर पवित्र नदियों तथा सरोवरों में स्नान का विशेष महत्व है। बढ़ती जनसंख्या के कारण इस प्रथा ने पवित्र कही जाने वाली अनेक नदियों तथा सरोवरों के जल को अत्यधिक प्रदूषित कर दिया है। स्नान करने के क्रम में साबुन, तेल आदि के रासायनिक मिश्रण, थूक-कुल्ले तथा शरीर-प्रक्षालन से अनेक विषैले तत्व जल में मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त जल में विलीन ऑक्सीजन द्वारा जल में डाली गई पूजा सामग्री धूप, दीप, नैवेद्य, घी, दूध, फल, हवन की राख आदि का विघटन किए जाने के कारण पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है।

इन्हीं जल स्रोतों पर अधिकतर लोग कपड़े, बर्तन आदि भी धोते हैं। आजकल इन वस्तुओं को धोने के लिए प्रक्षालकों का प्रयोग होता है, जिसका मुख्य घटक क्षार है। क्षार त्वचा के लिए बहुत हानिकारक है। इसके अतिरिक्त इसमें सोडियम ट्राइपाली फास्फेट का प्रयोग किया जाता है, जो जल-जीवों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इससे शैवाल का भी विकास होता है, जो जल में ऑक्सीजन को कम करते हैं। परिणामस्वरूप मछली आदि जीव मर जाते हैं। प्रक्षालकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण जल की गुणवत्ता प्रभावित हुई हैं।

अनेक वर्गों में मृत्यु के पश्‍चात् शव को किसी पवित्र नदी के किनारे जलाने की प्रथा है तथा बची हुई राख को जल में बहा दिया जाता है। साथ ही अधजले शव को भी प्रवाहित कर दिया जाता है। अपराधी तत्वों द्वारा भी शवों को नदियों, नालों अथवा नहरों में फेंका जाता है। इससे जल प्रदूषित हो रहा है। इन सब कारणों से जल को प्रदूषित होने से बचाया जाना आवश्यक है, जो ऋषियों के चिन्तन पर आचरण करने से ही सम्भव है।

प्राचीन मनीषियों ने गंगा, यमुना, गोदावरी आदि नदियों की महिमा का गुणगान कर इनको स्वच्छ, शुद्ध एवं पवित्र रखने के लिए जनसमाज को प्रेरित किया था। आज पर्यावरण-प्रदूषण के इस युग में ऋषियों का चिन्तन एक प्रकाश दिखा सकता है तथा पर्यावरण की रक्षा करने में मनुष्य का सहयोग कर सकता है।
सन्दर्भ-
105. तैत्तिरीय आरण्यक 1.26.7
106. आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1.11.18-22

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