विशेष :

मुक्ति से पुनरावृत्ति

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ओ3म् कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
को नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च॥
ओ3म् अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च॥ (ऋग्वेद 1.24.1-2)

शब्दार्थ- (अमृतानाम्) नित्य पदार्थों में (कतमस्य कस्य देवस्य) कौन-से तथा किस गुण वाले देव का (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम हम स्मरण करें। (कःनः) कौन हमें (मह्या अदितये पुनः दात्) महती, अखण्ड-सम्पत्ति-मुक्ति के लिए पुनः देता है (पितरं च मातरं च दृशेयम्) और फिर किसकी प्रेरणा से माता-पिता के दर्शन करता हूँ।

(वयम्) हम (अमृतानाम्) नित्य पदार्थों में (प्रथमस्य अग्नेः देवस्य) सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप, परमात्मदेव के (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम का स्मरण करें। (सःनः) वही परमात्मा हमें (मह्या अदितये) महती मुक्ति के लिए (पुनः दात्) फिर देता है और उसी से प्रेरणा पाकर (पितरं च मातरं च दृशेयम्) मैं माता और पिता के दर्शन करता हूँ।

भावार्थ- मनुष्यों को सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ही जप, ध्यान एवं स्मरण करना चाहिए। वह प्रभु ही जीव को मुक्ति में पहुँचाता है। वही परमात्मा मुक्त जीव को मुक्ति-सुख-भोग के पश्‍चात् माता-पिता के दर्शन करता है, उसे जन्म धारण कराता है। जन्म धारण करना, मुक्ति प्राप्त करना, पुनः जन्म धारण करना यह एक क्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है और चलना भी चाहिए। यदि जीव परमात्मा में विलीन हो जाए, तो वह मुक्ति क्या हुई? - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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