सन् 1917। मुम्बई के गवर्नर लार्ड विलिंगडन ने विश्वयुद्ध में भारतीयों से सहायता प्राप्ति के लिए ‘युद्ध परिषद्’ का आयोजन किया। उसमें लोकमान्य तिलक को भी आमन्त्रित किया गया। गवर्नर को आशा थी कि अन्य भारतीय नेताओं की तरह लोकमान्य तिलक भी युद्ध में अंग्रेजों को हरसंभव सहायता देने का आश्वासन देंगे। किन्तु लोकमान्य भगवान श्रीकृष्ण तथा गीता के अनन्य उपासक थे। गीता ने उन्हें निर्भीकता, स्वदेश तथा स्वधर्म प्रेम का पाठ पढ़ाया था। लोकमान्य ने भाषण शुरू किया तथा कहा- “किसी भी बाहरी आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए हम भारतीय सदैव सहयोग के लिए तत्पर रहेंगे। किन्तु ‘स्वराज्य’ तथा ‘स्वदेश रक्षा’ के प्रश्न पर सरकार को भी स्पष्ट आश्वासन देना चाहिए।’‘ ‘स्वराज्य’ शब्द सुनते ही गवर्नर विलिंगडन का चेहरा तमतमा उठा तथा उन्होंने कहा- “यहाँ राजनीतिक चर्चा अवांछनीय है।’’
लोकमान्य तिलक उठे तथा बोले- “गवर्नर महोदय, स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और यदि आप इस शब्द को सुनने को भी तैयार नहीं हैं, तो मुझ जैसा स्वाभिमानी भारतीय यहाँ एक क्षण भी उपस्थित नहीं रह सकता।’’ और देखते ही देखते लोकमान्य समारोह का बहिष्कार कर चले गए। - शिवकुमार गोयल
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