विशेष :

महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद

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chandrashekhar azad

मध्यप्रदेश की रियासत अलीराजपुर के भाबरा ग्राम का चौदह वर्ष का किशोर बिना माता-पिता को बताए एक रात घर छोड़कर मुम्बई जाने वाली रेलगाड़ी में जा बैठा। उसे यह भी पता नहीं था कि वह गाड़ी कहाँ जाएगी। वह नाराज होकर घर से भागा था। क्योंकि उसके पिता पं. सीताराम तिवारी ने रियासत के बाग से बिना पूछे आम तोड़ने पर उसकी खूब पिटाई की थी। उस बाग की रखवाली आठ रुपए महीने के वेतन पर उस किशोर के पिता ही करते थे। देशी बारूद खरीदकर खिलौने में भरकर ‘तोप’ चलाना उस किशोर का प्रिय खेल था। वह उन चुराए गए आमों को बेचकर मिलने वाले पैसों से देशी बारूद खरीदना चाहता था। किन्तु पिता की निगाह उन आमों पर पड़ी, तो उन्होंने अपने पुत्र को इतना मारा कि माँ व्याकुल हो उठी। अनन्तर उस बालक को द्वार से बाहर ठेलकर द्वार बंद कर लिया और माता जगरानी देवी से कहा कि “खबरदार! दरवाजा मत खोलना, वरना तुम्हें भी मार दूंगा।’’

वह किशोर रात 10-11 बजे तक इस आशा से बाहर अंधेरे में खड़ा प्रतीक्षा करता रहा कि अभी पिता जी उसे बाहर आकर मनाएंगे और अंदर ले जाएंगे। किन्तु देर रात तक भी द्वार बंद ही रहा, तो वह वहाँ से दूर गांव में अपने एक रिश्तेदार मनोहरलाल द्विवेदी के घर चला गया और दूसरी रात जब उसी रिश्तेदार की पत्नी को यह कहते सुना कि इसे इसके घर क्यों नहीं भेज आते, तो भोर होते ही वह उस घर को भी छोड़कर दूर के एक रेलवे स्टेशन जा पहुंचा। वहाँ खड़ी रेलगाड़ी में वह बिना टिकट बैठ गया। रेल में बैठे-बैठे उसे नींद आ गई और काफी समय बाद जब नींद खुली, तो उसे पता चला कि वह मुंबई पहुंच गया है। वहाँ उसने एक होटल में बर्तन मांजकर और बंदरगाह पर जहाज में दूध के डिब्बे ढोकर कुछ माह बिताए। इसके पश्‍चात खिन्न होकर काशी चला आया। वहाँ संस्कृत पाठशाला में भर्ती होकर ‘लघु सिद्धान्त कौमुदी’ और ‘अमर-कोष’ जैसे संस्कृत ग्रन्थ रटने लगा।

वहाँ ब्राह्मण छात्रों को कुछ धर्म-सत्रों में एक समय निःशुल्क भोजन मिल जाता था। रात के भोजन के बजाए मंदिरों में संध्या-आरती में प्रसाद पाकर ही काम चलाना पड़ता था। उसी बीच गांधी जी का ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ चला, तो जोश में आकर वह 13-14 वर्षीय छात्र भी उसमें कूद पड़ा। जब उसे खरेघाट की अदालत में पेश किया गया, तो देखा गया कि उसके हाथ इतने छोटे थे कि वे बन्द हथकड़ियों में से बाहर निकल जाते थे।

अदालत में पारसी दंडाधिकारी ने उसे फटकारते हुए कहा, अभी हाथ भर का तो है नहीं, चला है आंदोलन करने। दंडाधिकारी ने उससे पूछा, तुम्हारा नाम क्या है? उसने उत्तर दिया ‘आजाद’। दंडाधिकारी ने फिर पूछा, तुम्हारे बाप का नाम? उत्तर मिला ‘स्वाधीनता’। जब तीसरा प्रश्‍न हुआ, घर कहाँ है? जवाब मिला ‘जेलखाना’। दंडाधिकारी ने इन उत्तरों से क्रुद्ध होकर उस किशोर छात्र को पन्द्रह बेतों की सजा सुना दी। काशी के केन्द्रीय कारागार में आजाद के सब कपड़े उतारकर लकड़ी की एक चौखट के साथ हाथ-पांव बांधकर पानी में भीगे बेतों से निर्ममता से प्रहार किए गए थे। पहले ही प्रहार से पीठ और नितम्बों से खून छलछला आया। फिर भी बालक आजाद हर प्रहार पर वंदेमातरम् और इंकलाब के नारे लगाता रहा।

आगे चलकर यही छात्र चन्द्रशेखर आजाद के नाम से काकोरी कांड से लेकर साण्डर्स वध कांड और असेम्बली बम कांड आदि अनेक मामलों में अपनी सक्रिय साहसिक भूमिका निभाते हुए इलाहाबाद में कम्पनी बाग में 27 फरवरी 1931 को शहीद हुआ। दंडाधिकारी को प्रथम बार अपना कल्पित नाम आजाद बताकर यह महान् क्रांति सेनानी सदा के लिए ‘आजाद’ नाम से अमर हो गया। आजाद अक्सर कहा करते थे कि-
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे।
आजाद हैं हम और आजाद ही रहेंगे॥ - बचनेश त्रिपाठी ‘साहित्येन्दु’

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