ओ3म् घेमन्यदा पपन वज्रिन्नपसो नविष्टौ।
तवेदु स्तोमं चिकेता॥ ऋग्वेद 8.2.17, साम. उ. 1.2.3, अथर्ववेद 20.18.2
ऋषिः मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः॥ देवता इन्द्र॥ छन्दः गायत्री
विनय- हे जगत् के ईश्वर! परम मंगलकारी! मैं जो भी कोई नया कार्य शुरू करता हूँ, नया यज्ञकर्म-नया शुभकर्म प्रारम्भ करता हूँ तो वह सब तेरा ही नाम लेकर, तेरे ही भरोसे, तेरे ही बल पर शुरू करता हूँ। अपने हरेक कार्य का मंगलाचरण मैं तेरे ही आगे झुककर, तेरी ही मानसिक वन्दना करके करता हूँ। हे वज्रवाले! मैं तेरे सिवाय किसी भी अन्य के आगे झुककर मंगल नहीं मना सकता, क्योंकि पाप से निवृत्त करने वाला वज्र तो तेरे ही हाथ में है। अनिष्टों, अमंगलों और विघ्नों का वास्तव में वर्जन कराने वाला वज्र तेरे ही हाथ में है। तो हे वज्रधारिन्! मैं किसी अन्य की स्तुति करके क्या पाऊंगा? जो कार्य सचमुच एकमात्र तुम्हारे ही आश्रय से किये जाते हैं और जो मनुष्य सचमुच अपना कर्म सर्वथा तुझे अर्पण करके करते हैं तो वहाँ पराजय, असफलता या असिद्धि नाम की कोई वस्तु रह ही नहीं जाती। यह बात कइयों को जरा विचित्र सी लगेगी, किन्तु है सर्वथा सत्य। सचमुच तब सब मंगल ही मंगल हो जाता है। यह सब तेरे वज्र का प्रताप है। जो लोग केवल तेरा ही आश्रय लेकर कार्य शुरू करते हैं, सर्वथा त्वदर्पित होते हैं, उनके पास निरन्तर जागता हुआ तेरा वज्र उनकी रक्षा करता है। अतः हे परम मंगलकारी वज्रिन्! इस संसार में तू ही एकमात्र स्तुति करने योग्य है। मैं तो तेरी ही स्तुति करना जानता हूँ। यदि मैं किसी धनाढ्य पुरुष की विनती करूँ तो शायद वह मुझे मेरे कार्य के लिए धन दे देगा। किसी प्रभावशाली पुरुष की विनती करूँ तो शायद मेरे लिए उसका प्रभाव बड़ा सहायक हो जाएगा। परन्तु हे जगत् के ईश्वर! मैं जानता हूँ कि यह सब तभी होगा जबकि तेरी ऐसी इच्छा होगी। संसार के सब प्राणी, सब अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सब तेरे ही बनाये हुए पुतले हैं। संसार के सब बड़े से बड़े पुरुष भी तेरे ही आश्रय पर, तेरी ही इच्छा पर जीवित हैं, तो मैं उन पुरुषों का आश्रय लेकर क्या करूँगा? जब तुझे अभीष्ट होता है कि किसी कार्य में धन, जन, बुद्धि आदि की सहायता मिले तो वह कहीं न कहीं से मिलती ही है। बल्कि हम देखते हैं कि धन, जन, मान आदि पाने के लिए जिन पुरुषों का हम भरोसा करते हैं, निरर्थक खुशामद करते हैं, वहाँ से हमें कुछ भी नहीं मिलता, किन्तु किसी दूसरी अनाशातीत जगह से वैसी सब सहायता मिल जाती है। अतः मैं तो अपने कार्यों के प्रारम्भ में किसी भी अन्य का भरोसा नहीं करता। मैं तो केवल तेरा ही पल्ला पकड़ना जानता हूँ। मैं तो तेरी ही स्तुति करना जानता हूँ।
शब्दार्थ- वज्रिन्=हे वज्रवाले! मैं अपसः=कर्म के नविष्टौ=प्रारम्भ में अन्यत् घ इम्=अन्य किसी को भी न आपपन=नहीं स्तुति करता तव इत् उ=तेरी ही स्तोमम्=स्तुति करना चिकेत=जानता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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