विशेष :

हे समर्थ परमेश्‍वर !

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ओ3म् दृते दृं ह मा। ज्योक्ते संदृशि जीव्यासं
ज्योक्ते संदृशि जीव्यासम्॥ यजु. 36.19॥

ऋषिः दध्यथर्वणः॥ देवता ईश्‍वरः॥ छन्दः पादनिचृद्गायत्री॥

विनय- हे जगदीश्‍वर! मैं चाहता हूँ कि अब मैं तुम्हारी अध्यक्षता में ही जीऊँ। तुम्हारी देख-रेख में तुम्हारी आँखों के नीचे ही अपना जीवन व्यतीत करूँ। मुझे यह सदा स्मरण बना रहे कि तुम मुझे देख रहे हो। मेरा एक-एक कार्य, मेरी एक-एक चेष्टा, एक-एक हरकत तुम्हें साक्षी रखकर की गई हो। इस तरह तुम्हारे सम्यक् दर्शन में तुम्हें देखता हुआ मैं चिरकाल तक जीऊँ। सच तो यह है कि जब मैं तुम्हारी ठीक-ठीक अध्यक्षता में अपना जीवन व्यतीत करूँगा तो मेरा जीवन स्वाभाविकतया ऐसा चलेगा कि यह स्वय मेव दीर्घजीवी हो जाएगा। अतः मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि मैं कभी तुम्हारे संदर्शन से जुदा न हो जाऊँ। परन्तु तुम्हारे संदर्शन में जीना आसान काम नहीं है। मैं यह जानता हूँ कि तुम ही मेरे जीवन हो, मेरी शक्ति हो, मेरी आत्मा हो तो भी मैं निर्बलतावश तुम्हें सदा भूला रहता हूँ। सांसारिक वायु के झोंकों के थपेड़ों से मेरी सुध-बुध ऐसी भूली रहती है कि मुझमें तुम्हारी स्मृति जाग्रत नहीं रह सकती। इसलिए हे जगदीश्‍वर! मेरी तो तुमसे यह प्रार्थना है कि तुम मुझे पहले दृढ़ बना दो, मजबूत बना दो, चट्टान बना दो। हे दृते! हे सर्वशक्तिस्वरूप! तुम मुझे ऐसा दृढ़ बना दो कि संसार की घटनाएँ मुझे चलायमान न कर सकें। मैं सदा तुम्हें देखते रहने का यत्न करता हूँ। तुम्हें देखते रहते हुए ही अपने सब कर्म करने का यत्न करता हूँ, पर यह बहुत थोड़ी देर चलता है। कोई भी सांसारिक खुशी या कोई दुःख, कोई चिन्ता आने पर मेरा वह सात्विक ध्यान जाता रहता है। कोई भी नई-सी बात होने पर मेरा ध्यान उधर खिंच जाता है और मैं उस तेरे सन्दर्शन की सुखमय अवस्था से गिर जाता हूँ। इसलिए, हे दृते! मैं दृढ़ता का भिखारी हुआ हूँ। मैं जानता हूँ कि जब मैं दृढ़ हो जाऊँगा तथा उस दृढता द्वारा सुख में, दुःख में, सम्पत् में, विपत् में सदा तुम्हारा यह संदर्शन करते रहने का अभ्यासी हो जाऊँगा, तो धीरे-धीरे तुम्हारा सम्यक् दर्शन मुझमें ऐसा समा जाएगा कि यह फिर मुझसे जुदा न हो सकेगा और तब मुझे तुम्हारा ध्यान करने की भी जरूरत न रहेगी। जैसे कि हम दिनभर सूर्य-प्रकाश द्वारा ही सब काम करते हैं पर हमें यह याद रखने की आवश्यकता नहीं होती कि हम सूर्य प्रकाश में हैं, वैसे ही तब मैं बिना यत्न किये तुम्हारे सन्दर्शन के प्रकाश में चौबीसों घण्टे रहने-सहने और जीवन व्यतीत करने वाला हो जाऊंगा। अतः हे दृते! मुझे ऐसा दृढ़ बना दो कि मैं कभी तुम्हारे सन्दर्शन से न हट सकूँ।

शब्दार्थ- दृते=हे समर्थ परमदृढ़ परमेश्‍वर! मा=मुझे दृंह=दृढ़ बना दे, जिससे कि मैं ते संदृशि=तेरे सन्दर्शन में, ठीक दृष्टि में ज्योक्=चिरकाल तक जीव्यासम्=जीता रहूँ ते संदृशि ज्योक् जीव्यासम्=तेरे सम्यक् दर्शन में दीर्घ आयु तक जीवित रहूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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