ओ3म् इन्द्र इन्नो महानां दाता वाजानां नृतुः।
महाँ अभिज्ञ्वा यमत्॥ साम. उ. 1.2.1, ऋग्वेद 8.92.3
ऋषिः श्रुतकक्षः॥ देवता इन्द्र ॥ छन्दः पादनिचृद्गायत्री
विनय- इस संसार के जो तेजस्वी महापुरुष हजारों-लाखों लोगों के नेता होकर बड़े-बड़े काम कर रहे हैं, उनमें उस तेज और महाबल को उत्पन्न करने वाले इन्द्र परमेश्वर ही हैं। इस संसार में जो नाना आन्दोलन उठते और दबते रहते हैं, कभी कोई लहर चलती है, कभी कोई तथा इन आन्दोलनों और लहरों में उस समय के सब मनुष्य बलात् खिंचे चले जाते हैं, यह सब खेल खिलाने वाले और हमें नाच नचाने वाले भी इन्द्र ही हैं। ये इन्द्र हम सबको अपना थोड़ा या बहुत तेज और बल दे रहे हैं और उस द्वारा नाच नचा रहे हैं। आज जो हममें महातेजस्वी है, वह कभी कुछ दिनों में सर्वथा निस्तेज हो जाता है तथा एक तुच्छ पुरुष कुछ ही दिनों में यशस्विता के शिखर पर पहुँचा देखा जाता है। यह सब उसका खेल है। आओ, हम अपने तेज व बल का सब अभिमान त्यागकर, नम्र होकर, उस महान् इन्द्र की शरण में पड़ जाएँ। जरा देखो, वह इन्द्र कितना महान् है जो अकेला हम अनन्त जीवों को कठपुतली की तरह नचा रहा है। स्थावर, जंगम सभी असंख्य प्रकार की सृष्टि को हिला रहा है। वह महान् इन्द्र इस ब्रह्माण्ड को नचा रहा है तो इसका यह मतलब नहीं है कि उसकी इस सृष्टि में कुछ व्यवस्था नहीं है, मनमानी या अन्धाधुन्धी है। वह हमें नाच भी पूरी व्यवस्था के साथ, अटल सत्यनियमों के साथ नचा रहा है। इसका कारण यह है कि वह ‘अभिज्ञु’ है, सबके अभिप्रायों को एकदम जानता है, सर्वान्तर्यामी है, इस सब ब्रह्माण्ड की वह आत्मा है। हम सब अनन्त प्राणियों के हृदयों में आत्मा की आत्मा होकर, अन्तर्यामी होकर, वह अकेला ही बैठा हुआ अनन्त जीवरूप अनन्त चक्रों वाले इस महायन्त्र को चला रहा है। अहो, वह इन्द्र परमेश्वर कितना महान् है! कितना महान है!
शब्दार्थ- इन्द्र इत्=इन्द्र ही नः=हमें महानां वाजानां दाता=तेजों और बलों का देने वाला तथा नृतुः=नचाने वाला वह महान्=महान् है और अभिज्ञु=अभिप्राय को जानने वाला, अन्तर्यामी होता हुआ आयमत्=इस जगत् को व्यवस्था में बाँधे हुए है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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