ओ3म् आ ते वत्सो मनो यमत् परमाच्चित्सधस्थात्।
अग्ने त्वां कामया गिरा॥ (ऋ. 8.11.7, साम. पू. 1.1.1.8)
ऋषिः वत्सः काण्वः॥ देवता अग्निः॥छन्दः निचृद्गायत्री॥
विनय- हे परमात्मन्! तुम्हारा स्थान बहुत ऊँचा है। तुम्हारे उत्कृष्ट पद को मैं कैसे पाऊँ? तुम जिस दिव्यधाम में रहते हो, जिस सर्वशक्तिमय, सर्वज्ञानमय, परमानन्दमय लोक में तुम्हारा निवास है, उस परम स्थान तक मैं अल्पज्ञ, अल्पशक्ति, तुच्छ जीव कैसे पहुँच सकता हूँ? परन्तु नहीं मैं भी आखिरकार तुम्हारा पुत्र हूँ, वत्स हूँ, प्यारा अमृत-आत्मज हूँ। मैं चाहे कैसा हीन व पतित होऊँ पर स्वरूपतः अमर, चिन्मय आत्मा हूँ। अतः तुम्हारा धाम मेरा भी धाम है, तुम्हारा ऊँचे से ऊँचा स्थान मेरा सहस्थान है, ‘सधस्थ’ है। तुम्हारे दिव्य से दिव्य स्थान से तुम्हारे पुत्र का अधिकार कैसे हट सकता है! मैं तुम्हें अपने प्रेम द्वारा तुम्हारे दूर से दूर ऊँचे से ऊँचे पद से खींच लाऊंगा। हे पितः! मुझे सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ बनने की क्या जरूरत है? मैं तो अपने अगाध प्रेम से, अपनी अनन्य भक्ति से तेरे मन को काबू कर लूँगा, तेरे मन को पा लूँगा। फिर मुझे और क्या चाहिए? हे मेरे अग्ने! हे मेरे जीवन! मैं तुम्हें अपनी सर्वशक्ति से चाह रहा हूँ, कामना कर रहा हूँ। आत्मा में तुमने जो वाणी नाम्नी आत्मशक्ति रक्खी है, मैं उसकी सम्पूर्ण शक्ति से तुम्हें ही खींच रहा हूँ। मैं अपनी आन्तर और बाह्य वाणी की समस्त शक्ति को तुम्हारे मिलन के लिए ही खर्च कर रहा हूँ। मन में तेरी ही चाह है, मन में तेरा ही जाप है, तेरी ही रटन है, ‘वैखरी’ वाणी में भी तेरा ही नाम है, तेरा स्तोत्रपाठ है। शरीर की चेष्टाओं से भी जो कुछ अभिव्यक्त होता है वह तेरी लगन है, तेरे पाने कठी तड़प है। क्या तू अब भी न मिलेगा? मैं तेरा वत्स इस तरह से हे पितः! तेरे मन को हर ही लूंगा। तू चाहे कितने ऊँचे स्थान का वासी हो, पर तेरे मन को जीतके ही छोडूँगा। मेरा प्रेम, मेरी भक्ति तेरे मन को खींच लेगी और फिर तेरे मन को, तेरे प्रेम व वात्सल्य को, मुझे अपनाना होगा।
शब्दार्थ- वत्सः=मैं वत्स ते मनः=तेरे मन को परमात् चित्=अति-उत्कृष्ट भी सधस्थात्=सहस्थान से आ यमत्=वश करता हूँ, प्राप्त करता हूँ, अग्ने=हे परमेश्वर! मैं त्वाम्=तुझे गिरा=वाणी द्वारा कामये=चाहता हूँ, मिलना चाहता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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