उन्नीसवीं शताब्दी भारत के पुनर्जागरण का युग था। इस शताब्दी में भारत को अनेकों ऐसी विभूतियाँ प्राप्त हुई जिन्होंने भारतीयों की चेतना को जाग्रत किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का स्थान इन विभूतियों में सबसे ऊंचा है। भारत के मानस क्षितिज पर सूर्य की भांति उनका उदय हुआ। उनके परवर्त्ती दो अन्य महापुरुष भी उल्लेखनीय है। स्वामी विवेकानन्द तथा महात्मा गान्धी भी क्रमशः चन्द्र और तारे की भांति महर्षि के पश्चात उदित हुए।
महर्षि का प्रभाव अत्यन्त तीव्र तथा व्यापक रूप से भारत की धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक तथा राष्ट्रीय चेतना पर हुआ। उन्होंने हमारे व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त अज्ञानान्धकार को सूर्य की भांति विदीर्ण किया और स्वराज के प्रथम मन्त्रद्रष्टा भी वही थे। स्वामी विवेकानन्द तथा महात्मा गान्धी को महर्षि द्वारा उत्पन्न जन चेतना का लाभ मिला और महर्षि द्वारा चलाए गए सुधार कार्यक्रम भी मिले। इन दोनों को उस घोर सामाजिक विरोध का सामना नहीं करना पड़ा जिसे महर्षि ने झेला था। महर्षि ने अपने सभी कार्यक्रमों का आधार सकल ज्ञान के आदि स्रोत वेदों को बनाया जबकि स्वामी विवेकानन्द की पहुंच उपनिषद तथा महात्मा गान्धी की पहुंच गीता-रामायण तक सीमित थी। फिर भी इन दोनों ने भी धर्म को ही भारत की उन्नति का आधार माना। स्वामी विवेकानन्द ने 1893 में शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू दर्शन तथा संस्कृति का शंखनाद किया और भारतीय संस्कृति की विश्व में श्रेष्ठता सिद्ध की। वे मानव की आध्यात्मिक एकता के समर्थक थे तथा उन्होंने भारतीयों में अपने अतीत के प्रति गर्व उत्पन्न किया।
महात्मा गान्धी ने जनसेवा को धर्म मानकर राजनीति को उसका क्षेत्र बनाया और भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय भी उन्हें ही दिया गया। खेद है कि भारत के बुद्धिजीवियों का प्रभावशाली वर्ग तथा समाचार पत्र स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गान्धी को तो याद कर लेते हैं, परन्तु सूर्य के समान चमकने वाले महर्षि दयानन्द को कदाचित ही कभी याद करते हों। महर्षि को याद करने वाला केवल आर्यसमाज है और इसीलिए आर्यसमाज शिवरात्रि के अवसर पर ऋषि बोधोत्सव का आयोजन करता है।
शिवरात्रि की रात्रि में 175 वर्ष पूर्व बालक मूलशंकर को जिस छोटी सी घटना द्वारा सच्चे शिव को प्राप्त करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी, वह सर्वविदित है। शिवरात्रि के व्रत में अत्यन्त निष्ठापूर्वक वह जाग रहा था। उसका वह जागरण विश्व को जगाने वाला सिद्ध हुआ। बालक मूलशंकर ऐसा जागा कि फिर कभी नहीं सोया और अन्त में महर्षि दयानन्द बनकर प्रकट हुआ। करोड़ो व्यक्तियों को उसने जगाया। भारत की सुप्त चेतना को जगाया। इस जागरण की बेला में एक मांसाहारी, शराबी मुन्शीराम श्रद्धा तथा त्याग और वीरता की प्रतिमूर्ति बनकर स्वामी श्रद्धानन्द बन गया। एक युवक हंसराज अपना जीवन शिक्षा को दान करके सर्वस्वत्यागी महात्मा हंसराज बन गया। दुराचारी अमीचन्द भक्त अमीचन्द बन गया तथा नास्तिक गुरुदत्त आस्तिक बन गया।
आर्यसमाज जागरण की ज्वाला के रूप में उदय हुआ और अनेकों व्यक्तियों को त्याग, संयम तथा देशप्रेम का पाठ पढ़ाने में सफल हुआ। आश्चर्य नहीं कि स्वतन्त्रता की लड़ाई में सबसे अधिक योगदान आर्यसमाजियों का रहा। खेद है कि धीरे-धीरे आर्यसमाज को भी निद्रा आती गई और आज हम ऋषि का बोधोत्सव तो मनाते हैं परन्तु स्वयं हम कहाँ खड़े हैं हमारी गतिविधियों का लक्ष्य क्या है, दिशा क्या है तथा गति क्या है इसका हमें बोध नहीं है। महर्षि के प्रति हमारी श्रद्धा हमसे उनका गुण गान तो करवाती है परन्तु उनके कार्य को आगे तीव्र गति से बढ़ाने की प्रेरणा हमें नहीं होती। हम अतीत की प्रशंसा तथा वर्तमान का रोना रोकर बैठ जाते हैं। भविष्य का चिन्तन नहीं करते। दूसरों को वही जगा सकता है जो स्वयं जागता है। अतः ऋषि के बोधदिवस पर हमको भी अपना बोध हो सके, तभी हमारी ऋषि में तथा वेदों में श्रद्धा की सार्थकता है।
आर्यसमाज जागे और उसे भी बोध हो कि क्या कारण है कि समाज पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। धर्म, संस्कृति, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन सभी विकृत हो रहे हैं और आर्यसमाज के पास वेदों के आधार पर इन सभी समस्याओं का समाधान होते हुए भी भविष्य की कोई योजना नहीं है। आर्यसमाज के पास व्यापक रूप से जनता तक अपनी बात पहुंचाने के साधन भी नहीं है। ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ के अभियान में आर्यसमाज कहाँ खड़ा है? यह विषय विचारणीय है।
आज मतों एवं सम्प्रदायों को लेबल लगाकर धर्मों का रूप दे दिया गया है। सबसे बड़ा गुण धर्मनिरपेक्षता को माना जा रहा है। धर्म और सम्प्रदाय का भेद केवल आर्यसमाज जानता है परन्तु उसकी वाणी कहीं सुनाई नहीं देती। आर्यसमाज के पास वेदोक्त सर्वमान्य, सर्वतन्त्र, सनातन सिद्धान्तों पर आधारित धर्म है जो समस्त मानव जाति को एक सूत्र में बान्धकर विश्वकल्याण तथा विश्वमैत्री का हेतु बन सकता है परन्तु उसका कितना प्रचार और प्रसार है! आर्यसमाज का लक्ष्य किसी का लेबल छुड़ाना नहीं अपितु सभी मनुष्यों को सच्चा मानव बनाना है।
वेद के अनुसार ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्’ का प्रचार करना आर्यसमाज का लक्ष्य है और यही ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का अर्थ है। महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार ’’यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान प्रत्येक मतों में है। वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जो बातें सबके अनुकूल सबमें सत्य हैं उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से बर्ते-बर्तावें तो जगत का पूर्ण हित होवे। क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है।’’ इस दिशा में आर्यसमाज को कार्यक्रम निर्धारित करना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त की भ्रामकता को सिद्ध करके धार्मिक एक्य का प्रयत्न करना चाहिए। यह कार्य अन्य मतावलम्बियों के प्रति पूर्ण वैरभाव त्याग कर करने से ही प्रभावी हो सकेगा। मनुस्मृति के अनुसार-
अहिंसयैब भूतानां कार्यं श्रेयो अनुशासनम्।
वाक् चैव मधुरा श्लक्षणा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥
आर्यसमाज के पास विश्ववारा संस्कृति है परन्तु उस संस्कृति का लोप हो रहा है। यजुर्वेद के अनुसार-
अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम।
सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा, स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः॥ यजुर्वेद 7.14
वैदिक संस्कृति त्याग की, बांटकर भोगने की, कर्त्तव्य परायणता की भावना की तथा समस्त मानव जाति के कल्याण की संस्कृति है। सर्वमैत्री की भावना की संस्कृति है। एक शब्द में यज्ञमय संस्कृति है। धन और बल के दान की भावना, विश्व मैत्री की भावना, ज्ञान के प्रकाश और प्रसार की भावना तथा पाप और अस्य के उन्मूलन की भावना वाली यह वैदिक संस्कृति ही विश्ववारा संस्कृति है। जब तक हमारी यह संस्कृति सुरक्षित थी तब हमारा घोष था-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनाः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन्र पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (मनुस्मृति)
इस वैदिक संस्कृति में सबकी स्वस्ति की कामना है तथा मिल बांटकर खाने की प्रेरणा है। अथर्ववेद के अनुसार-
स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु, स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः।
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु, ज्योगेवददृशेम सूर्यम्॥ अथर्ववेद 1.31.4
ऋग्वेद के अनुसार-
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं, केवलाघो भवति केवलादी। ऋग्वेद 10.117.6
आज हमारी इस संस्कृति पर सब ओर से हमला हो रहा है। हमारा राजनीतिक तथा सामाजिक नेतृत्व इसको रोकने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहा है। विदेशी टी.वी. तथा समाचार पत्र और पत्रिकायें उदारता का आवरण ओढकर इन सम्पूर्ण विकृतियों को संस्कृति मानकर प्रोत्साहित कर रहे हैं। हमारा खाना-पीना, खाने का ढंग, शादी-विवाह-जन्मदिन मनाने का ढंग, नाच-गाना, वेशभूषा सभी दैनिक गतिविधियाँ पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित है। अश्लीलता का प्रचार और प्रसार इतना बढ़ रहा है कि सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के बहाने शरीर का नग्न प्रदर्शन हो रहा है और हम इनमें पुरस्कार पाने वाली महिलाओं का ऐसा स्वागत करते हैं जैसे किसी महापुरुष का। शिक्षा इतनी विकृत है कि आज की स्त्री सीता-सावित्री इत्यादि को अपना आदर्श नहीं मानती। फिल्म अभिनेता और अभिनेत्रियाँ हमारे आदर्श बन रहे हैं। भ्रष्टाचार को सामान्य बात मानकर नजरअन्दाज किया जाता है। ऐसी दशा में इस विश्ववारा संस्कृति का प्रचार आर्यसमाज के अतिरिक्त और कौन करेगा? यह आर्यसमाज का ही दायित्व है।
धर्म और संस्कृति राष्ट्ररूपी शरीर के प्राण तथा आत्मा है। इनके विकृत होने से हमारा राष्ट्रीय जीवन भी विकृत हो रहा है और समाज में विघटन हो रहा है। भ्रष्ट राजनीतिज्ञ जो राजनीति का क ख ग भी नहीं जानते, धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्रीय एकता का मूल मन्त्र मानते हैं। आरक्षण व्यवस्था को सामाजिक न्याय और उन्नति का मूलमन्त्र तथा विदेशी धन को आर्थिक उन्नति का साधन मानते हैं। हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का भय दिखाकर संशकित करते हैं। सवर्ण और पिछड़ों का आपसी द्वेष बढ़ाकर एक दूसरे के विरुद्ध संगठित करने में लगे हैं। मिली-जुली संस्कृति की बात करते हैं, परन्तु यह नहीं बताते कि मिली-जुली संस्कृति क्या है? वास्तव में उनके लिए संस्कृति का अर्थ केवल नाचना-गाना ही है। ऐसी दशा में देश को सही नेतृत्व प्रदान करना आर्यसमाज का कर्तव्य है।
यह ठीक है कि कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था पुनः स्थापित करना अत्यन्त कठिन है, परन्तु वेद की यह शिक्षा कि हम सब परमपिता परमात्मा के तथा पृथिवी माता के पुत्र हैं और आपस में भाई-भाई हैं। कोई छोटा या बड़ा नहीं है। सभी वर्ग समाज के लिए आवश्यक हैं। अतः सभी मिलकर सौभाग्य बढ़ाने में प्रयत्नशील हों। अपने देशवासियों को यह बात हृदयंंगम करानी होगी-
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो बावृधुः सौ भगाय।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुधा प्रश्निः सुदिना मरुद्भ्य॥ ऋग्वेद 5.60.5
वेद के अनुसार व्यक्ति-परिवार-समाज तथा राष्ट्र सभी का जीवन श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। वेद की शिक्षा सभी शिक्षण संस्थाओं में अनिवार्य की जानी चाहिए। वेद साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं हैं। वेदों में पक्षपात नहीं है। वेद का ज्ञान भ्रान्ति से सर्वथा रहित तथा तर्कपूर्ण है। वेदों में विज्ञान के विरुद्ध कोई बात नहीं है। विज्ञान में हुई अब तक की सब खोजें वेद के अनुकूल हैं। वेद ही सर्वमान्य ज्ञान का पुस्तक है तथा इसका पढ़ना और पढ़ाना सभी मनुष्यों के लिए हितकारी है। वेद के इस पक्ष को आर्यसमाज सारे संसार में उजागर करने का प्रयत्न प्रभावी ढंग से करे तो सभी समस्याओं का सर्वमान्य समाधान किया जा सकता है तथा समस्त मानव जाति को सुखी बनाया जा सकता है।
ऋषि बोध दिवस पर आर्यजनों को तथा आर्यसमाज के सभी अधिकारियों को अपनी वर्तमान दशा का तथा अपनी क्षमता का बोध हो, यही ऋषि बोधोत्सव का यथार्थ है और यही उत्सव मनाने का तात्पर्य है। आर्यसमाज सशक्त होकर योजनाबद्ध रूप से इस कार्य में प्रवृत्त हो सके, तभी उसका अस्तित्व सार्थक सिद्ध होगा। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। (दिव्ययुग - मार्च 2013)
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
बालक निर्माण के वैदिक सूत्र | Introduction to the Vedas | Motivational Pravachan
The impact of Maharishi was very intense and widespread on the religious-cultural-social and national consciousness of India. He absorbed the ignorance prevailing in every sphere of our personal and social life like the sun and he was also the first mantra of Swaraj.