जल के पश्चात जीवन के लिए तीसरा अनिवार्य पदार्थ भोजन है। भोजन का अर्थ है- जो खाया जाए और यही अर्थ अन्न का भी है। इसी अर्थ में आहार शब्द भी चलता है। वैसे शरीर को जीवित रखने के लिए जो लिया जाता है, इस व्यापक अर्थ की दृष्टि से वह आहार कहा जा सकता है। ऐसी स्थिति में खाने-पीने, रहने-पहनने के रूप में जो भी लिया जाता है, वह आहार शब्द के अन्तर्गत आ जाता है।
वैदिक परम्परा में छटे मास में अन्नप्राशन संस्कार का विधान है। इसमें दूध के अतिरिक्त ठोस अन्न भी इस दिन से दिया जाता है। इस अवसर पर तथा तब से भोजन के प्रारम्भ में एक वेद मन्त्र बोला जाता है। इसमें निर्देश है कि कैसा अन्न, कब, क्यों लिया जाता है? अर्थात् अन्न सम्बन्धी अनेक विधि-विधान इस मन्त्र में मनन का विषय बने हैं। वह मन्त्र है-
ओ3म् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।
प्र प्र दातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥ यजुर्वेद 11.83॥
शब्दार्थ- अन्नपते = हे अन्न के स्वामी ! अन्न के उत्पादन, विकास, सम्भाल और पाचन सम्बन्धी सारी व्यवस्था को करने वाले ! या अन्न की इन सारी व्यवस्थाओं के लिए प्रकृति के तत्-तत् नियम को चलाने वाले ! नः = हम अन्न की चाहना रखने वाले सभी प्राणियों के लिए अनमीवस्य= रोगरहित शुष्मिणः = बलप्रद, गुणयुक्त अन्नस्य = खाने के व्यवहार में आने वाले भोज्य के ऊर्जम् = पाचन पर प्राप्त होने वाले बल, शक्ति, सार को देहि= दीजिए, प्राप्त कराइए। नः = हम खाने वालों के प्रति दातारम् = विविध प्रकार के अन्नों के देने वाले को, व्यवस्था में सहायक बनने वालों को प्र तारिष = अच्छी प्रकार के तरा, कृतार्थ कर। नः = हमारे द्विपदे = दो पैर वाले या जीवन के दो प्रयोजन रखने के लिए, पुरुषार्थ चतुष्टय साधने वालों के लिए अन्नों के परिपाक रखने वालों के लिए, पुरुषार्थ चतुष्टय साधने वालों के लिए अन्नों के परिपाक को प्र धेहि = व्यवस्थापूर्वक धारण करा।
व्याख्या- वेद में अनेकत्र खाने योग्य अन्नों के नाम आए हैं। जैस कि अर्थववेद 6.140.2, यजुर्वेद 18.12। वैसे निघण्टु में वेद में आए अन्न के नामों का निर्देश है। ये पदार्थ खाद्य, पेय, चोष्य, लेह्य रूप में चार प्रकार के होते हैं। इस भोज्य के सम्बन्ध में सारमय सन्देश है कि-
अजीजन ओषधीर्भोजनाय॥ (ऋग्वेद 5, 83, 10)
अर्थात् भोजन के लिए औषधी = अन्न ही बनाए गए हैं। मनुस्कृति 1.46 और चरक सूत्र 1.73 में औषधि की परिभाषा देते हुए कहा है- ओषध्यः फलपाकान्ताः = फल (फसल) पकने के साथ ही जो सूख जाए, जिसका अन्त हो जाए। यह लक्षण फसलों पर ही चरितार्थ होता है। गेहूँ, चने, धान, जौ आदि में यही देखा जाता है कि दाना पकने के साथ ही पौधा, बूटा सूख जाता है। इसकी पुष्टि फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् (यजुर्वेद 22.22) से भी होती है। तभी तो यहाँ फलव्यः पच्यन्ताम् का प्रयोग हुआ है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वेद आहार की दृष्टि से शाकाहार का ही समर्थन करता है। इससे रोग भी कम होते हैं। क्योंकि यह मांस की तरह सड़ता नहीं। सड़न रोगों को उत्पन्न करती है।
अनमीवस्य- मन्त्र में अन्न का पहला विशेषण है कि वह रोग रहित हो जो खाने पर रोग, विकार पैदा न करे। आज की चिकित्सा में भी रोगकारक तत्वों, कारणों को अमीव, अमीवा कहा जाता है।
शुष्मिणः - भोजन की दूसरी खूबी है कि वह बलप्रद हो। शरीर के विकास, पुष्टि के लिए भोजन अत्यन्त उपयोगी अपेक्षित होता है। हम शरीर से कार्य लेते हैं। इससे काया में कमजोरी, कम आती है। इसकी पूर्ति भी भोजन से होती है। अतः किसी के लिए वही भोज्य पदार्थ सेवनीय हैं, जब-जिनसे- जितनी मात्रा में लेने पर शक्ति प्राप्त हो। इसलिए अपनी आयु, पाचन शक्ति, मौसम के अनुकूल ही आहार लेना चाहिए।
ऊर्जम्- अन्न शब्द और उसके विशेषण षष्ठी विभक्ति में है। अतः वाक्य में क्रिया की पूर्ति के लिए कर्म की अपेक्षा है। तभी इनकी सार्थकता सामने आती है। मन्त्र में आगे ऊर्जा का संकेत है। इसीलिए यहाँ ऊर्ज शब्द विशेष रूप से विवेच्य है। यह शक्ति, सार परिपाक = पचने पर ही सामने आता है। अतः भोजन में परिपाक मुख्य है। चरक सूत्र (5.3), विदुर नीति (2.14) में इसी को कसौटी माना गया है। जो- जब जितना- जिसको पचे, वही गाह्य है।
दातारम् = भोजन की व्यवस्था में अनेक सहायक बनते हैं। जैसे कि बच्चों के लिए माता-पिता आदि। ऐसे ही जहाँ जो भी दाता हैं, सहयोगी हैं, वे चाहे उत्पादन में हो या निर्माण में या अन्न की सम्भाल, पहॅुंचाने आदि में सहायक हों, उन सबके प्रति वेद कृतज्ञता सिखा रहा है। अतः उनके प्रति हितभावना, धन्यवाद ज्ञापन करा रहा है।
द्विपदे चतुष्पदे- मोटे अर्थ की दृष्टि से मनुष्यों, पक्षियों के दो पैर दिखते हैं। पशुओं के चार पैर होते हैं। अन्य इन्हीं में आ जाते हैं। अतः सबको अपना-अपना अन्न प्राप्त हो। यह वेद का विशेष सन्देश है। मानव विवेकशील सामाजिक प्राणी है। अतः उसका ऐसा कर्तव्य बनता है कि वह यथाशक्ति व्यवस्था करे। यही बलिवैश्वदेवयज्ञ है।
आध्यात्म, वेद, भारतीयता में मानव जीवन का उद्देश पुरुषार्थ चतुष्टय है। वे हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। मानव से अतिरिक्त अन्य प्राणी अर्थ= जीने के लिए अपेक्षित भौतिक पदार्थ, काम= इच्छा तक सीमित हैं। पर मनुष्य इनके साथ धर्म = उचित-अनुचित का विचार और मोक्ष = दुःख, कष्ट, क्लेश से मुक्ति रूपी सुख भी चाहता है। इसका सर्वातिशय रूप मोक्ष अवस्था है। अतः गहराई की दृष्टि से द्विपदे- चतुष्पदे का यह भाव भी लिया जा सकता है। वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 4 | Explanation of Vedas & Dharma | धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर | धर्म लड़ना नहीं सिखाता