विशेष :

तेरी तरंगे

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ओ3म् ये ते पवित्रमूर्मयोऽभिक्षरन्ति धारया।
तेभिर्नः सोम मृळय॥ ऋग्वेद 9.61.5॥

ऋषिः अमहीयुः॥ देवता पवमानः सोमः॥ छन्दः गायत्री॥

विनय- मानसरोवर में कुछ न कुछ तरगें सदा उठा ही करती हैं। चारों ओर होने वाली घटनाओं से मनुष्य का मानस-सर नाना प्रकार से क्षुब्ध होता रहता है। परन्तु हे सोम! मैं अपने मानस को पवित्र बना रहा हूँ। इसलिए पवित्र बना रहा हूँ जिससे कि इसमें तेरी जगद्-व्यापक धारा से आई हुई तरंगें ही पैदा हों, अन्य किसी प्रकार की क्षुद्र तरगें पैदा न हों। हे सोम! अपनी शीतल सुखदायिनी और ज्ञानामृतवर्षिणी धाराओें से तुमने इस जगत् को व्याप्त कर रखा है। इन्हीं द्वारा यह जगत् धारित हुआ है, नहीं तो इस जगत् का सब जीवन रस न जाने कब का सूख चुका होता। मैं देखता हूँ कि तुम्हारी इस जीवनरसदायिनी दिव्य धारा का मनुष्यों के पवित्र हुए अन्तःकरणों के प्रति एक आकर्षण उत्पन्न हो जाया करता है। जैसे कि चन्द्रमा के (भौतिक सोम के) आकर्षण से समुद्र-जल में ज्वारभाटा उत्पन्न होता रहता है, उसी तरह हे सच्चे सोम! मनुष्य के पवित्र हुए मनःसरोवर में भी तेरी सोमधारा के महान् आकर्षण से उच्च तरेंगें उठने लगती हैं, ऊँचे-ऊँचे, व्यापक, सनातन भावावेश उठने लगते हैं। विश्‍वप्रेम, वीरता, अदम्य उत्साह, सर्वार्पण कर डालने की उमङ्ग, दुःखित मात्र पर दया इत्यादि ऐसे सनातन व्यापक भावावेश हैं जो तेरी जगद्-धारक महान् धारा के अनुकूल हैं। बस, पवित्र हुए अन्तःकरणों में तेरी महाशक्तिमती धारा के अनुसार ये ही तेरी ऊर्मियाँ, तेरी तरंगें अभिक्षरित हुआ करती हैं। हे सोम! मुझे अब इन्हीं सत्यमयी व्यापक तरंगों के मन में उठने से सुख मिलता है। वे राग-द्वेष की हवा से उठने वाली क्षुद्र भावावेशों की तरंगें, वे मन को क्षुब्ध करने वाले एकपक्षीय ज्ञान से होने वाले छोटे-छोटे अनुराग, मोह, शंका, भय, उत्कण्ठा, कामना आदि की तरंगें मुझे सुख नहीं देती, किन्तु क्लेशरूप दिखाई देती हैं। इसलिए हे मेरे सोम! मेरे मानस में उन्हीं तरंगों को उठाकर मुझे सुखी करो जो तरंगें पवित्र हृदयों में तुम्हारी धारा से उठती है। बस ये ही उच्च भावावेश, ये ही व्यापक सनातन महान भावावेश मेरे मानस में उठा करें। ये ही तरंगें बार-बार उठें, खूब उठें, खूब ऊँची-ऊँची उठें, ऐसी ऊँची और महान् उठें कि इन आनन्ददायक भावावेशों में उठता हुआ मैं तन्मग्न होकर तेरी ऊँचाई के संस्पर्श का सुख अनुभव कर सकूँ।

शब्दार्थ- ते ये ऊर्मयः=तेरी जो तरंगें धारया=जगत् के धारण करने वाली तेरी जगत्=व्यापक ज्ञानधारा द्वारा पवित्रम् अभिक्षरन्ति=मनुष्य के पवित्र हुए अन्तःकरण में प्रकट होती हैं, उठती हैं सोम=हे सोम! तेभिः=उन तरंगों से नः मृळय=हमें आनन्दित कर दो। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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