शिव-शंकर की गंगा
शिवशंकर की महिमा को आबाल वृद्ध सभी जानते पहचानते हैं। शिव विष्णु हैं, शिव दक्ष-यज्ञ के विध्वंसक हैं, उनका ललाट त्रिनयन से शोभित है। वे पिनाकहस्त त्रिशूलधर सृष्टि के विधाता हैं। जटाधर, गंगाधर, वल्कल वस्त्रधर, चन्द्रमुकुटी, पशुपति आदि विशेषण शिव की पहचान कराने वाले हैं। गंगा रोकने का कार्य शिव के विशिष्ट सामर्थ्य के रूप में जाना जाता है। शिव की चर्चा होते ही उनके गंगाधर रूप का सर्वप्रथम बखान किया जाता है।
परम्परा से चली आ रही कथा के अनुसार ’’गंगा जी जब पृथ्वी पर आईं, तो उनको रोकने का किसी में भी सामर्थ्य नहीं था। शिव जी ही इतने बल वाले थे कि वे ही अपनी जटा में गंगा जी को रोक सके।’’
वास्तविक तथ्य तो यह है कि बालों में तो जल टिकता ही नहीं। जल का गुण तो बहना है, वह बहेगा ही। इसी कारण हम लोगों के सिरों पर भी पानी की एक भी बून्द नहीं रुकती, सब नीचे टपक पड़ती हैं। फिर तो इन बालों से रहित अशरीरी कोई अन्य ही शिव होने चाहिएं, जो गंगा को रोकते हैं। और वे शिव हैं विद्युतरूप। शिव माने विद्युत होता है।
यह नई बात नहीं है। यह तो अनादि और सत्य बात है कि यह विद्युत ही जल बरसाकर सबको प्रसन्न करती है। अनादि ज्ञान वेद में शिव विद्युत् का यह तथ्य कहा हुआ है। मन्त्र है-
मीढुष्टम शिवतम शिवो नः सुमना भव।
परमेवृक्षऽआयुधं निधाय कृत्तिं वसानऽआ चर पिनाकम्बिभ्रदा गहि॥ यजु. 16.51॥
अर्थात् हे मीढुष्टम=अत्यन्त सिञ्चन करने वाले (मिह सेचने), शिवतम=अति कल्याणकारी आप, नः=हमारे लिए शिवः=सुखकारी, सुमनाः= प्रसन्नचित्त करने वाले भव=होवें और परमे वृक्षे=प्रकृष्ट रूप से छिन्न-भिन्न होने वाले संसार में आयुधम्=जल को (आयुधानि इति उदक नाम, निघ. 1.12), निधाय=धारण कर, कृत्ति वसानः=बादल रूप चितकबरे वस्त्र पहनकर (कृत्तिः कृन्ततेर्यशो वा अन्नं वा, निरु. 5.4.67, यशः इति अन्नमिति च उदकनाम, निघ. 1.12.) एवं पिनाकम्=पीसने, तोड़ने वाली शक्ति को (पिनाकः प्रति पिनष्टि अनेन, निरु. 3.4.21), बिभ्रत्=धारण करते हुए, आ गहि=आवें, आ चर=और सर्वत्र व्याप्त होवें।
मन्त्र का देवता (प्रतिपाद्य विषय) रुद्र है। मन्त्र में उस रुद्र के ‘शिवतम कृत्तिं वसानः’ तथा ‘पिनाकं बिभ्रत्’ विशेषण आये हैं। उनमें ‘मीढुष्टम’ विशेषण भी है, जिसका अर्थ है अत्यन्त सींचने वाला। अत्यन्त सिञ्चन का कार्य परमात्मा के राज्य में विद्युत ही करता है। यह रुद्र ही विद्युत है, इसीलिए शिव को रुद्र भी कहा जाता है। इस रुद्र को समझ लेने पर शिव का विद्युत रूप स्वतः स्पष्ट हो जाता है। इस रुद्र का निवास गिरि है। यथा-गिरिर्वै रुद्रस्य योनिस्तत एषोऽभ्यवचरति॥ (काठ. 36.14) अर्थात् रुद्र की योनिः= उत्पत्ति स्थान, गिरिः=मेघ (गिरि इति मेघनाम, निघ. 1.10) है, एषः=यह, ततः=वहाँ से, अभ्यवचरति=सर्वत्र जाता है। मेघ का संरक्षण, उसका वर्षण कार्य विद्युत् रूप रुद्र से ही होता है। पर्जन्यस्य पत्नी विद्युत्। (तै. आ. 3.9.8) विद्युत् अप्सु (जै.बा.2.33) अर्थात् मेघ की पत्नी विद्युत है। यानी मेघ की शक्ति विद्युत् है और वह जल में रहती है जो वर्षण कराती है।
इस प्रकार सुस्पष्ट हुआ कि शिव विद्युत् है, जो रुद्र के नाम से कही जाती है। यह रुद्र रूप विद्युत् ही जल देकर सबको प्रसन्नचित्त व सुखी बनाती है। यह शिव कल्याणकारी विद्युत् रुद्र क्यों है? क्योंकि यह शब्द करती हुई चलती है अथवा यह रुलाती है (रोरूयमाणो द्रवतीति वा रोदयतेर्वा, निरु. 10.1.6)। अथवा बिजली जब चमकती है तब वह शब्द करती है और मनुष्यादि पदार्थों पर गिरकर उन्हें रुलाती है। ऐसे ही जब विद्युत् मेघ में दौड़ती है तब उसकी गड़गड़ाहट से भूमिस्थ प्राणी भय से रोने, चीखने लगते हैं। अतः विद्युत् रुद्र है। विद्युत् रूप रुद्र अपनी तीव्र गति के कारण ‘वज्र’ भी कहा जाता है(वज गतौ)। यह वज्र रूप रुद्र पर्वत=मेघ में रहता है(पर्वत इति मेघ नाम, निघ. 1.10)। इसीलिए वेदों में ‘गिरिश’ (यजु. 16.4) ‘गिरिशन्त’ (यजु.16.3) आदि नामों से कहा गया है। पर्वत में रहने के कारण यह रुद्र विद्युत ही शक्ति रूप में पार्वती कहा गया है। यानी विद्युत रुद्र की पत्नी कहाती है। इस रुद्र रूप विद्युत् का जो वाहन वृषभ है, वह मेघ है। क्योंकि मेघ ही जल का सिञ्चन करता है (वृषभस्य वर्षितुः अपाम्, निरु. 7.6.22)। इस मेघ रूप वृषभ पर विद्युत् रूप रुद्र बैठा हुआ सर्वत्र विचरण करता है। विद्युत् की चारों ओर चमकती हुई तरंगें रुद्र के केशरूप हैं (केशा रश्मय, निरु. 12.3.25)। इस चमक के कारण रुद्र को केश वाला, जटा वाला कहा जाता है। यह विद्युत् जब पृथिवी पर गिरती है, तब उसका वह गिरना बाण रूप होता है और गिरते समय विद्युत् का आकार धनुष सदृश होता है। अतः रुद्र पिनाकपाणि है। रुद्र अपने इस विद्युत रूप से अन्तरिक्ष में जमे हुए टनों जल को पिनाक=तोड़ता है। अतः वह इस पिनाक=पेषण, भेदन शक्ति से युक्त होने से भी पिनाकपाणि कहाता है। विद्युत् रूप रुद्र सबको तपा देता है, जला देता है, अतः उसका चिह्न भस्म है (भस्म भर्त्सन-दीप्त्योः)। अन्तरिक्ष में ‘तत् पुनर्द्विविधं गाङ्ग सामुद्रं चेति’, (सुश्रु. सू. 47.7) अर्थात् वह जल गाङ्ग तथा सामुद्र दो प्रकार का है। गाङ्ग जल के कारण रुद्र गंगाधर कहलाता है।
तापसों के कृत्तिः=कटे हुए टुकड़ों से बनी गुदड़ी या कृत्तिः=कटे हुए चर्म वस्त्र के सदृश चित्तिदार मेघ समुदाय होता है। यानि मेघ की घटायें गुदड़ी वस्त्र चर्म वस्त्र के समान होती हैं। अतः रुद्र ‘कृत्तिवासा’ कहा जाता है। मेघ के ऊपर चन्द्रमा निकला होता है। अतः रुद्र को चन्द्रमुकुटी व चन्द्रधर कहते हैं। रुद्र का आभूषण अहिः माना गया है, क्योेंकि अहिः= नाम जल का है (अहिरिति उदकनाम, निघ. 1.12)। जल के द्वारा ही विद्युत रूप रुद्र का अस्तित्व बनता है। अतः अहिः उसका भूषण माना गया है। लोक में अहिः सर्प को कहते हैं। अतः रुद्र सर्प आभूषण वाले प्रसिद्ध हो गये। विद्युत् रूप रुद्र की तीनों लोकों में व्यापकता है। अतः वह महादेव है। यही विद्युत् रूप रुद्र जल बरसाता है और वर्षा से उत्पन्न वनस्पति, तृण आदि द्वारा पशुओं का पोषण होता है। अतः रुद्र पशुपति है। मेघ कभी काला, कभी श्याम, कभी श्वेत होता है, जिसके कारण रुद्र शितिकण्ट एवं नीलकण्ठ कहा जाता है।
गंगावतरण- गाङ्ग जल को भूमि पर लाने में सगर की प्रथम भूमिका है। यह सगर अन्तरिक्ष है (सगर इति अन्तरिक्षनाम, निघ. 1.3) और उसके पुत्र 101 प्रकार के जल हैं (अर्णः, क्षोदः...इत्येकशतम् उदकनामानि, निघ.1.12)। सगर का घोड़ा जलों का सामर्थ्य है। इन्द्र श्रवण मास का सूर्य है, जो अन्तरिक्ष से उन शक्तिशाली जलों को पृथिवी पर पहुँचाता है। पृथिवी पाताल है। कपिल सूर्यस्थ तारा विद्युत् है, जो वर्षा के अन्त में उन जलों को सोख लेता है। अंशु सगर का पौत्र 12 आदित्यों में से मार्गशीर्ष मास का सूर्य है। भगीरथ सगर की तृतीय पीढ़ी पौष मास का सूर्य है। ये सभी पौत्र पृथिवी पर आए हुए जल को पुनः ऊपर पहुँचाते हैं और फाल्गुन मास के विष्णु आदित्य की किरणों में स्थापित कर देते हैं। पुनः विष्णुरूप सूर्य की किरणों से विद्युत् रूप रुद्र मेघों में हलचल कर विष्णु सूर्य से जलों को अपनी जटा, केश-रश्मियों में समेटता है। यही विष्णुपद से गंगा का निकलना है और रुद्र शिव का गंगा को रोकना है। पश्चात् रुद्र उस जल को जो जमा हुआ है उसे पिनाक=पीसकर, तोड़कर पृथिवी पर पहुँचाता है, यही उसका धनुष धारण करना है। यदि रुद्र ऐसा न करे और वैसे ही जमा हुआ पृथिवी पर जल गिरे, तो सभी जीव-जन्तु नष्ट हो जाएं। इस विनाश से रुद्र अपनी पिनाकशक्ति द्वारा रक्षा करता है। अतः वह पिनाकपाणि है रुद्र।
रुद्र त्रिनयन है। क्योंकि वह तीनों लोगों में अग्नि, विद्युत एवं सूर्य रूप में नयन=प्राप्त है और यह अग्नि रूप रुद्र (अग्निरपि रुद्र उच्चयते, निरु. 10.1.8) जड़, चेतन सभी पदार्थों में प्रविष्ट है, अतः अर्ध नारीश्वर है। यही रुद्र ग्रीष्म ऋतु के दक्ष सूर्य की (आदित्यो दक्ष इत्याहुः, निरु. 11.2.20) उष्णता रूपी पुत्री को वैशाख, ज्येष्ठ मास में प्राप्त करता है और श्रावण मास में वृष्टि द्वारा उष्णता को समाप्त कर देता है। यही रुद्र की दक्षयज्ञ विध्वंसकता है। श्रावण मास में वज्र धारण कर मेघ से बाहर चिल्लाता हुआ जब गगन में दौड़ता है, तब यह हस्त, मुखादि से रहित जलता हुआ लम्बायमान लौहदण्ड सा प्रतीत-दीखता है। यह है रुद्र का विशाल स्वरूप। इस महनीय स्वरूप की कल्पना साम्प्रदायिकों ने पत्थर के लोन्दे के रूप में कर डाली तथा उस लोन्दे की पूजा विधि-विधान की भी रचना कर डाली। और तो और इतिहास पुरुष शिव राजा के जीवन से आधिदैविक रुद्र शिव को जोड़ डाला।
रुद्र शिव के इस विशाल, गम्भीर, यथार्थ को वि.सं. 1894 फाल्गुन चतुर्दशी को गुर्जर प्रान्तीय, चतुर्दश वर्षीय स्वनामधन्य बालनाम मूलशंकर महर्षि दयानन्द ने सर्वप्रथम पहचाना। उन्होंने शिव के स्वरूप को मात्र पहचाना ही नहीं, अपितु शिव के भेदों को जाना और बताया कि शिव यौगिक शब्द है। उपासना प्रकरण में शिव परमात्मा है, वर्षा प्रकरण मेें शिव विद्युत है, लोक में शिव राजा, माता-पिता आदि हैं। तात्पर्य हुआ प्रभु शिव की सृष्टि में शिव प्रकृति में बैठकर जीव शिव, कल्याण देता लेता है। प्रभु शिव सर्वोपरि हैं। वे ही सृष्टि के रुद्रादि को गतिशील करते हैं। वे प्रभु सर्वव्यापक हैं। मन्त्र है-
शिवस्त्वष्टरिहा गहि विभु पोष उत त्मना।
यज्ञे यज्ञे न उदव। ऋ. 5.5.9
अर्थात् हे त्वष्टः=दीप्त, शिवः=कल्याणकारी आप, इह=यहाँ, आ गहि-आओ, उत=और, विभुः= सर्वव्यापक प्रभु, आप पोषे-पुष्टि के लिए, त्मना=अपने आप, यज्ञे यज्ञे=प्रत्येक शुभ कर्म में (यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म शत. ब्रा. 1.7.1.5), नः= हमारी, उत् अव=भली प्रकार रक्षा करो।
मन्त्र से स्पष्ट है कि कल्याण करने वाला, प्रकाशों का प्रकाश, शिव प्रभु सर्वव्यापक है, वह किसी एक कोने में नहीं बैठा। वह सर्वत्र वर्तमान सबको पुष्ट व रक्षित कर रहा है। यह सर्वव्यापक शिव प्रभु कैसे प्राप्त किया जाए, इसे उपनिषद् बताती है-
सूक्ष्मातिसूक्ष्म कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम्।
विश्वस्यैक परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति॥ (श्वे. उ. 4.14)
अर्थात् वह ईश्वर सूक्ष्म से भी अति शूक्ष्म है। गहन संसार के मध्य सब जगत् के अनेक रूपों को रचता है। वह ही पूरे संसार को घेरे हुए है। उसके इस स्वरूप को जानकर ही शिव, कल्याणकारी, शान्तिदायक प्रभु को उपासक प्राप्त कर लेता है।
इस शिव शान्तिदायक परमात्मा का कोई रक्षक, शासक या चिह्न नहीं है। वह निराकार है। यथा च-
न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम। स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः॥ (श्वे. उ. 6.9)
अर्थात् लोक में उस परमात्मा का न कोई पति है, न कोई उसका शासनकर्ता है एवं न कोई उसका चिह्न है। वह जगत् का निमित्त कारण है। वह इन्द्रियकरणों के स्वामी जीवात्मा का भी स्वामी है, वह किसी से न उत्पन्न है और न उसका कोई स्वामी है।
उपनिषद् के उपर्युक्त वचन से सुव्यक्त हुआ कि वह परमात्मा निराकार है, उसकी मूर्ति बनाना और मूर्ति की पूजा करना सर्वथा निरर्थक कर्म है। मूर्तिपूजा की निरर्थकता में श्रीमद्भागवत का निम्न कथन द्रष्टव्य है-
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्।
हित्वार्चं भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति सः॥ (श्रीमद्भागवत पु. 3.29.22)
अर्थात् जो मुझ सर्वव्यापक, सभी पदार्थों में वर्तमान, ईश्वर आत्मा की उपासना छोड़कर अन्यत्र, मौढ्यात्=मूर्खता से अर्चाम्=प्रतिमा के पूजन में मुझे भजता है, उसका वह कार्य भस्म में हवन करने में सदृश है।
श्रीमद्भागवत के इस स्थल में भी सुस्पष्ट रूप से मूर्तिपूजक को मूर्ख तथा मूर्तिपूजा को निरर्थक कार्य बताता है। मूर्तिपूजा धौर्तकर्म है, इसे बताते हुए देवी भागवत पुराण में लिखा है-
प्राप्ते कलावहह दुष्टतरे च काले न त्वां भजन्ति मनुजा ननु वञ्चितास्ते। धूर्तैः पुराणचतुरैर्हरिशंमराणाम् सेवापराश्च विवितास्तव निर्मितानाम्॥ (देवी भाग. पु. 5.19.12)
अर्थात् हे देवि मातः! घोर कलियुग के प्राप्त होने पर मनुष्य तेरा भजन नहीं करते, अपितु पुराण बनाने में चतुर, धूर्त लोगों द्वारा तेरे बनाये हुए ब्रह्मा विष्णु शिव की जो मूर्तिपूजा चलाई गई है उस पूजा को करके वे मनुष्य ठगे गये हैं।
देवी भागवत के इस वचन में भी यही द्योतित हुआ कि मूर्तिपूजा परमात्मा की प्राप्ति का उपाय नहीं है। उसकी प्राप्ति तो उपासना से होती है और वह उपासना भी प्रत्येक रात्रि को होनी चाहिए, जैसा कि मन्त्र में कहा है-
शिवां रात्रिमनुसूर्यं च हिमस्य माता सुहवा नो अस्तु।
अस्य स्तोमस्य सुभगे नि बोध येन त्वा वन्दे विश्वासु दिक्षु॥ (अथर्व. 19.49.5)
अर्थात् हिमस्य=शीतलता व शान्ति की, माता=निर्मात्री जो रात्रि है वह, नः=हमारे लिए, सुहवा=भली प्रकार स्तुति करने योग्य अस्तु=होवे, च=और हे सुभगे=सुन्दर ऐश्वर्य को देने वाली तू, अस्य स्तोमस्य=इस स्तुति करने वाले मन्त्रद्रष्टा को, नि बोध=ज्ञान प्राप्त करा, तुम्हारे येन=इस गुण के कारण से, त्वा=तुझ, अनुसूर्यम्=सूर्य के पश्चात् प्रतिदिन आने वाली अथवा सूर्य के पीछे-पीछे चलने वाली, शिवाम्=कल्याणकारिणी, रात्रिम्=रात्रि में, विश्वासु दिक्षु=सभी दिशाओं में वर्तमान प्रभु की मैं जीव वन्दे=स्तुति करता हूँ।
तात्पर्य हुआ कि प्रत्येक रात्रि शिव है, कल्याण व शान्ति देने वाली है। यानि प्रतिदिन सूर्य का अनुक्रमण करने वाली प्रत्येक कल्याणकारिणी रात्रि परमात्मा की स्तुति की आश्रय है। इस रात्रि में ही मन्त्रद्रष्टा महान् आत्माओं को व्यापक प्रभु का बोध होता है, जो सभी दिशाओं में वर्तमान है तथा वन्दनीय है। अथर्ववेद का यह मन्त्र वन्दनीय व स्तवनीय प्रभु की उपासना के काल का वर्णन कर रहा है।
मन्त्र के इस सात्विक, गम्भीर रहस्य को मूलशंकर ने साकार रूप दिया। फाल्गुन मास की चतुर्दशी की रात्रि को शिव के नाम से किये जाने वाले जागरण को सदा-सदा के लिए त्याग दिया और प्रतिदिन की रात्रि को की जाने वाली विशिष्ट उपासना को जीवन का लक्ष्य बना लिया। साथ ही सम्पूर्ण जगत् को प्रति रात्रि घट-घट व्यापी शिव रुद्र स्वरूप परमात्मा की उपासना के लिए प्रेरित किया। सचमुच महर्षि की यह प्रेरणा व गवेषणा मानव को प्रभु से जोड़ने वाली आडम्बर रहित साधनिका है। - आचार्या सूर्यादेवी चतुर्वेदा
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