नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज का गठन कर रहे थे, तब उन्हें अपने कार्यालय में एक निजी सहायक की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए उन्होंने आवेदन पत्र मंगाये। उनमें से दस बारह लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया।
कमरे के दरवाजे और नेताजी की मेज़ के बीच में एक मोटी पुस्तक फर्श पर खुली पड़ी थी। साक्षात्कार के लिए उम्मीदवार एक-एक करके आते गये। सभी ने उस पुस्तक को पड़े देखा। वे उससे बचकर मेज़ की ओर बढ़ गये। नेताजी से उनके प्रश्नोत्तर हुए और वे वापस लौट गये। लौटते समय भी उन्होंने उस पुस्तक को देखा, परन्तु कुछ किया नहीं।
एक प्रौढ़ उम्मीदवार ने कमरे में प्रवेश करते ही उस पुस्तक को फर्श पर पड़े देखा, तो उसने नेताजी से पूछा- ‘’यह पुस्तक फर्श पर पड़ी है। क्या मैं इसे उठाकर आपकी मेज़ पर रख दूँ।’’
नेताजी ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और उसने पुस्तक को उठाकर नेता जी की मेज़ पर संवार कर ठीक ढंग से रख दिया। नेता जी ने उससे बिना कोई प्रश्नोत्तर किये उसे वापस लौटा दिया।
वह कुछ निराश सा होकर बाहर निकला। परन्तु कुछ ही मिनट बाद उम्मीदवारों को सूचित किया गया कि उसी व्यक्ति को नियुक्ति के लिए चुना गया है।
बाद में नेताजी ने बताया कि मुझे ऐसे सहायक की आवश्यकता थी, जो काम में मेरी सहायता करे। इतने लोगों में वही एक मुझे ऐसा लगा, जो खुद यह समझ सकता था कि उसे क्या करना चाहिए।
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