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समकालीन कवियों की दृष्टि में महाराणा प्रताप का महत्व

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Maharana Pratapस्वतन्त्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिये राज-पाट, सुख-सुविधा और वैभव-विलास सब कुछ दाँव पर लगाकर सपरिवार वन-वन भटकते फिरने पर भी अपराजेय मनोबल और अकल्पनीय धैर्य तथा साहस से अपने से कई गुना प्रबल शत्रु अकबर के छक्के छुड़ा देने वाले हिन्दुआ सूर्य, यावदार्यकुल कमल दिवाकर प्रणवीर महाराणा प्रताप का नाम आज तक श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। वे आज भी स्वदेश-धर्म-जाति-कुलाभिमान और राजपूती आन-बान के अप्रतिम प्रतिमान-पुरुष तथा हमारे प्रातः स्मरणीय राष्ट्रनायक हैं। इतिहास में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के बाद वे ही कदाचित् एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं जिनकी प्रशंसा वैरी-पक्ष के लोग भी मुक्त कण्ठ से करते थे। महाराणा प्रताप के प्रशंसक उनके अनुयायी मेवाड़ी और स्वदेश-धर्माभिमानी दूसरे तमाम लोग तो थे ही स्वयं अकबर के दरबार में उसके रत्नों और कर्मचारियों में भी उनके अतुलनीय त्याग, बलिदान, देशप्रेम, अपूर्व धैर्य एवं शौर्य व साहस के लिए जबर्दस्त सम्मान-भाव था। इतना ही नहीं उन्होंने अकबर के दरबार में होते हुए भी अकबर की तुलना में महाराणा प्रताप की ही भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इससे स्पष्ट है कि किसी विवशता के वशीभूत होकर अकबर की प्रत्यक्ष अधीनता स्वीकार करने के बावजूद लोगों के दिलो-दिमाग में, उनकी जबान पर सत्ता और वैभव के शिखर पर बैठे सम्राट अकबर का नहीं स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के लिये जीने-मरने को उद्यत पुण्य-प्रताप महाराणा प्रताप का ही स्थान था।

महाराणा प्रताप के प्रति तत्कालीन लोगों की श्रद्धा-सम्मान-भावना कितनी गहरी, हार्दिक और स्पष्ट थी यह अकबरी दरबार में घटी एक घटना के उल्लेख से स्पष्ट हो जायेगा। अकबर बादशाह के दरबार में पहुंचे एक चारण ने दरबारी शिष्टाचार के खिलाफ भरे दरबार में शिर से पगड़ी उतारकर बादशाह को सलाम किया। इस गुस्ताखी और बेअदबी का सबब पूछे जाने पर उसने बाअदब गुस्ताखी के लिए मुआफी की दरख्वास्त करते हुए अर्ज किया- जहाँपनाह! यह पगड़ी हिन्दुआ सूर्य महाराणा प्रताप की है जो उन्होंने कृपापूर्वक पुरस्कार में शिर से उतार कर दी है। प्रतापसिंह ने आज तक किसी के सामने शिर नहीं झुकाया है इसलिए मैं उनकी पगड़ी शिर पर रखकर किसी को प्रणाम नहीं कर सकता और हुजूर आपको मैं शिर झुकाये बिना भी नहीं रह सकता। इसलिए मैंने पगड़ी उतारकर सलाम करने की गुस्ताखी की।

अकबरी दरबार की एक दूसरी घटना भी जो बहुचर्चित है यहाँ उल्लेखनीय है। इससे यह प्रमाणित होता है कि स्वयं बादशाह अकबर के दिलो-दिमाग पर महाराणा प्रताप का कितना असर था और वह मन ही मन में उनके प्रति कैसा आदर भाव रखता था। घटना इस प्रकार है- महाराणा प्रताप सिंह के अचानक स्वर्गवास का हाल सुनकर बादशाह अकबर बहुत फिक्र और हैरानी के साथ खामोश व उदास हो गया। यह हाल देखकर दरबारी लोगों को बड़ी अचम्भा हुआ कि अकबर प्रतापसिंह के निधन का समाचार सुनकर खुश होने के बजाय उदास क्यों हो गया? उस समय चारण दुरसा आढा ने एक छप्पय मारवाड़ी भाषा में कहा, जिसका जिक्र सुनकर बादशाह ने उसे रूबरू बुलाया और उस छप्पय को सुना। लोगों ने सोचा कि बादशाह दुरसा से जरूर नाराज होगा, परन्तु अकबर ने पुरस्कार देकर कहा कि इस चारण ने प्रतापसिंह के मरने पर मेरे दिलगीर होने के सबब को जाहिर कर दिया। छप्पय इस प्रकार हैः-
अश लेगो अणदाग, पाघ लेगो अण नामी।
गो आडा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी॥
नव रोजै नह गयो, नगो आतशाँ नवल्ली।
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली॥
गहलोत राण जीती गयो, दसण मून्द सदणा डसी।
नीशास मूक भरिया नयणा, तो मृत शाह प्रताप सी॥
अर्थात् अपने घोड़ों को दाग नहीं लगवाया, अपनी पाघ (पगड़ी) को किसी के सामने झुकने नहीं झुकाया, आड़ा गवाता हुआ चला गया जो कि हिन्दुस्तान के भार की गाड़ी को बाई तरफ से खींचने वाला था, नौरोज के जल्से में कभी नहीं गया, नये जातश (बादशाही डेरों) में नहीं गया और ऐसे झरोखे के नीचे नहीं आया जिसका रोब दुनिया पर गालिब था। इस तरह का गहलोत (राणा प्रताप सिंह) फतहयाबी के साथ गया जिससे बादशाह ने जबान को दांतों में दबाया और उसने ठण्डी श्‍वास लेकर आँखों में पानी भर लिया। ऐ प्रताप सिंह! तेरे मरने से ऐसा हुआ।

अस्तु, प्रकृत प्रसंश में महारणा प्रताप के समकालीन तीन सुप्रसिद्ध महाकवियों की कुछ रचनाएँ यहाँ स्थाली पुलाकन्याय से प्रस्तुत की जा रही हैं, जिनसे महाराणा की लोक-प्रतिष्ठा और सर्वोच्च सम्मान भाजनता पर प्रकाश पड़ता है। इन तीन महाकवियों में एक थे महाकवि गंग, दूसरे थे महाकवि पृथ्वीराज राठौर और तीसरे महाकवि थे चारण दुरसा आढा। ये सभी अकबर के दरबारी थे किन्तु इन सब पर अकबर की तुलना में महाराणा प्रताप के अद्भुत शौर्य, अपराजेय मनोबल, लोकोत्तर त्याग और उदाहरणीय स्वाभिमानी पवित्र चरित्र का अधिक प्रभाव था जिसका निदर्शन इन विवरणों से पदे-पदे होता है।

महाकवि गंग- हिन्दी के मध्यकालीन कवियों में महाकवि गंग श्रेष्ठ और अग्रगण्य स्थान रखते थे। ‘तुलसी गंग दुवौ गए, सुकविन के सरदार’ इस प्राचीन उक्ति से भी यही बात जाहिर है। महाकवि रहीम के विशेष कृपापात्र गंग अकबर के दरबारियों में थे किन्तु बड़े ही स्वाभिमानी और देशभक्त थे। कदाचित् स्वदेश, स्वधर्म एवं स्वजातीय स्वाभिमान के कारण ही बादशाह अकबर का कोपभाजन होना पड़ा और उन्हें पागल हाथी के पावों तले कुचलवा दिया गया था जैसा कि अधोलिखित पंक्तियों से प्रमाणित होता है- गंग ऐसे गुनी को गयंद सों चिराइए।
अपिच-
‘सब देवन को दरबार जुर्यो,
तहं पिंगल छन्द बनाय के गायो।
जब काहू सो अर्थ कर्यो न गयो,
तब नारद एक प्रसंग चलायो।
मृतलोक में है नर एक गुनी,
तब गंग को नाम सभा में सुनायो।
सुनि चाह भई परमेसर की,
तब गंग को लेन गनेस पठायो॥’
अस्तु, अकबर के दरबारी इन्हीं महाकवि गंग की महाराणा प्रताप विषयक भावना की एक बानगी इस दुर्लभ छप्पय में देखिए-
गुज्जरेस गम्भीर नीर नीझर निज्झरियो, अति अथाह दाऊद बुन्द बुन्दन उब्बरियो।
घाम घूँट ‘रघुराय जाम’ जलधर हरि लिन्हव, हिन्दू-तुरक-तालाब को न कर्दमवस किन्हव।
कवि गंग अर्कबर अक्क अन, नृप-निपान सब बस करिय।
राणा प्रताप रयनाक मझ, छिन डुब्बत, छिन उच्छरिय॥
अर्थात् सूर्य के समान तेजस्वी जिस अकबर ने गुर्जरेश्‍वर गम्भीर पराक्रम-जल को नीझर निकाल दिया, जिसने ‘दाऊद’ का भी जो अथाह जल था उसे भी बून्द-बून्द कर निःशेष कर दिया, जिसने अपने प्रताप रूपी घाम से जाम देश के जलधर रूपी ‘रघुराय’ का भी सारा जल हर लिया। हिन्दू या तुर्क रूपी कौन सा तालाब था जिसका जल सोखकर अकबर (अर्कवर) रूपी सूर्य ने उसे कीर्तिशेष न कर दिया हो। किन्तु ऐसा अकबर रूपी सूर्य भी महाराणा प्रताप रूपी समद्र (रत्नाकर) में क्षण-क्षण डूबता उतरता रहा।

महाकवि पृथ्वीराज राठौर- बीकानेर के महाराजा रामसिंह के छोटे भाई श्री पृथ्वीराज राठौर राजस्थानी भाषा के महाकवि थे और अकबर के दरबार में रहा करते थे। किसी दिन अकबर ने उनसे कहा- अब राणा भी मुझे बादशाह कहने लगा है। (महाराणा अकबर को बादशाह नहीं तुर्क ही कहते थे) यह सुनते ही पृथ्वीराज ने कहा कि यह संवाद कत्तई सच नहीं हो सकता क्योंकि स्वाभिमानधन-धन्य यावदार्यकुल कमल दिवाकर परमवीर महाराणा प्रताप ऐसा कह ही नहीं सकते हैं। ऐसी बात वैसी ही है जैसे सूर्य का पश्‍चिम दिशा में उगना। महारणा प्रताप को लेकर पृथ्वीराज के इस प्रकार अकबर से विवाद कर लेने की खबर पाकर उनकी पत्नी चिन्तित हो उठी। उसने एक दोहा बनाकर अपनी दुश्‍चिन्ता उन तक पहुंचाई। दोहा इस प्रकार है-
पति जिद की पतसाह सूँ, यही सुणी मैं आज।
कहाँ पातल अकबर कहाँ, करियो बड़ो अकाज॥
अर्थात् हे स्वामी। मैंने आज यह सुना है कि आपने महाराणा प्रताप को लेकर बादशाह अकबर से विवाद कर लिया है। यह ठीक नहीं है। अरे कहाँ अकबर और कहाँ महाराणा प्रताप! दोनों के शक्ति, साधन और सामर्थ्य में जमीन आसमान का अन्तर है। अतः आपने यह अनुचित विवाद कर बड़ा अनर्थ किया है। क्योंकि अब चिढ़कर अकबर महाराणा प्रताप को और भी कष्ट पहुंचायेगा।

पत्नी का उक्त दोहा पाकर अकबर के दरबार के कविवर पृथ्वीराज ने जो कक्तिमय उत्तर पत्नी को दिया, उससे विधर्मी अकबर की गुलामी करने के बावजूद महाराणा के प्रति उनके अटल विश्‍वास और स्वाभिमान की झलक प्रकट होती है। छन्द इस प्रकार है-
जब तें सुने हैं बैन, तब तैं न मोकों चैन, पाती पढ़ि नैक सौ विलम्ब न लगावैगो।
लै के जमदूत से समस्त राजपूत आज, आगरे में आठो याम ऊधम मचावैगो।
कहै पृथिराज प्रिया! नैक उर धीर धरो, चिरंजीवी राना श्री म्लेच्छन भगावैगो।
मन को मरद मानी प्रबल प्रताप सिंह, बब्बर ज्यों तड़फ अकब्बर पै आवैगो॥
कविवर पृथ्वीराज राठौर ने महाराणा प्रताप की प्रशस्ति से सम्बन्धित अनेक प्रकार की रचनाएं की थी, जिनमें कुछ दोहों को....
एक गीत को यहाँ सार्थ उद्घृत किया जा रहा है-
पातल राण प्रवाड मल, बाँकी घड़ा विभाड़।
षूदाड़ै कुण है षुराँ, तो ऊभाँ मेवाड़।
हे विकट सेनाओं का विध्वंस करने वाले और युद्ध में मल्ल महाराणा प्रताप सिंह। तेरे खड़े रहते मेवाड़ को घोड़ों के खुरों से दबाने वाला कौन है?
माई एहा पूत जण, जेहा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साँप॥
हे माता। ऐसे ही सुपुत्र पैदा कर जैसे कि महाराणा प्रताप हैं जिसकी याद आने से ही अकबर बादशाह वैसे ही चौंक उठता है, जैसे कोई सिरहाने साँप की उपस्थिति जान कर चौंक उठता है।
सह गाबड़ियो साथ, एकण बाड़ैं बाड़ियो।
राण न मानी नाथ, ताँड़े साँड प्रताप सी॥
हे अकबर! तुमने गायों जैसे सब राजाओं को एक ही बाड़े में घेर कर दिया। किन्तु महाराणा प्रताप रूपी साँड़ तेरी नाथ की नहीं मान कर गर्ज रहा है।
पातल पाघ प्रमाण, साँची साँगा हर तणी।
रही सदा लग राण, अकबर सूँ ऊभी अणी॥
महाराजा संग्राम सिंह (साँगा) के पौत्र प्रतापसिंह की पगड़ी ही सच्ची है कि जो अकबर के सामने न झुकने के कारण ऊँची रही।

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