1857 के स्वाधीनता संग्राम में पंजाब की सेना ने अंग्रेजों का साथ दिया था। तब से अंग्रेजी हुकूमत को यह विश्वास हो गया कि पंजाब की भूमि भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव मजबूत करने के लिए बड़ी अनुकूल है। इसीलिए उन्होंने पंजाब में अंग्रेजी हुकूमत, अंग्रेजियत और ईसाइयत के विष वृक्षों के बीज बड़े पैमाने पर बोने का षड्यन्त्र बना लिया।
किन्तु उन्हीं दिनों पंजाब के कुछ ऐसे नौजवानों के हृदय में इस राष्ट्र विरोधी षड्यन्त्र को विफल करने का संकल्प दृढ़ हुआ, जो ऋषि दयानन्द की क्रान्तिकारी विचारधारा के सम्पर्क में आकर जाग उठेथे। इनमें दो तेजस्वी राष्ट्र पुरुषों लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द का नाम पंजाब के इतिहास में ही नहीं, समस्त राष्ट्र के इतिहास में सदा आदर के साथ स्मरण किया जायेगा।
लाला लाजपतराय का जीवन अंग्रेजी राज्य को नष्ट करने के लक्ष्य पर केन्द्रित हो गया। वे पूर्णतः राजनीतिक नेता बन गए। किन्तु स्वामी श्रद्धानन्द की शक्ति अंग्रेजी शासन से भी अधिक शोषक विष भरे शत्रु अंग्रेजियत को नष्ट करने में लग गयी। इसीलिए उनका कार्यक्षेत्र केवल राजनीति न होकर सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक हो गया।
स्वामी श्रद्धानन्द का विश्वास था कि विदेशियों के शासन तन्त्र से मुक्ति पाकर ही भारत का कल्याण नहीं होगा। विदेशी शासन से भी अधिक अहितकर विष हैं विदेशी भाषा, विदेशी संस्कृति और सामाजिक कुरीतियाँ। इनकी दासता से मुक्ति पाये बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता उद्देश्यहीन हो जाएगी।
इसीलिए उन्होंने असीम तप और त्याग से अर्जित वर्चस्व का उपयोग भारत को विदेशी भाषा, विदेशी धर्म, विदेशी संस्कृति की दासता से मुक्त कर भारतीयता को गौरवान्वित और तेजस्वी बनाने में किया।
उस समय पहले मुगल हमलावरों और बाद में पश्चिम के विदेशी लुटेरों से आक्रान्त होने के बाद पंजाब के मन-मस्तिष्क के सर्वथा संस्कारहीन होने का भय था। विदेशी शिक्षा-दीक्षा पंजाब के युवकों को न केवल संस्कारहीन और चरित्रहीन बना रही थी, बल्कि उन्हें देशद्रोही भी बना रही थी। युवकों का स्वाभिमान केवल विदेशी भाषा, विदेशी धर्म, विदेशी वेश अपनाने तक ही सीमित हो गया था। स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने तप, त्याग और कर्मठ व्यक्तित्व से उस विषैली आन्धी को मोड़ दिया।
चट्टान बनकर उस प्रवाह को रोकने में ही वे समर्थ नहीं हुए, बल्कि स्वयं भारतीय संस्कृति की पावन भावनाओें की प्रतीकात्मक धारा बनकर उन्होंने सम्पूर्ण पंजाब को नये संस्कारों में आप्लावित कर दिया। पंजाब में हिन्दी के प्रथम प्रचारक- यह उनका ही प्रभाव था कि उर्दू के गढ़ पंजाब में हिन्दी (जिसे आर्य भाषा नाम से स्मरण किया जाता था) का प्रेम उमड़ पड़ा। हिन्दी के प्रति जो उत्कट प्रेम आज पंजाब के हिन्दुओं में जागृत हुआ दिखाई देता है, वह विशुद्ध राष्ट्रीय और सांस्कृतिक आधार पर है, उसमें साम्प्रदायिकता की छाया देखने वाले लोग पंजाब के इतिहास को नहीं जानते। पंजाब में पंजाबी और उर्दू को छोड़कर हिन्दी के प्रति श्रद्धा जाग्रत करने वाले व्यक्ति स्वामी श्रद्धानन्द ही थे। आपने अपने बहुप्रचारित पत्र ‘सद्धर्म प्रचारक’ को उर्दू से हिन्दी में करके इस कार्य में सबसे पहला उदाहरण प्रस्तुत किया था।
देश को अंग्रेजियत या किसी भी विदेशी दासता से मुक्त कराने का सबसे प्रभावशाली मौलिक कार्य स्वामी जी ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना से किया था, जहाँ आज से तरेसठ वर्ष पूर्व भी उच्चतर शिक्षा का माध्यम हिन्दी था। वैज्ञानिक विषयों को हिन्दी में पढ़ने के लिए स्वामी जी ने हिन्दी के पारिभाषिक शब्दों से युक्त पाठ्यपुस्तकें तैयार करवायी थीं।
अकेले स्वामी श्रद्धानन्द ने किस प्रकार पंजाब के सम्पूर्ण जन मानस को प्रभावित कर दिया था, यह देखकर आश्चर्य होता है। उस समय पंजाब की प्रत्येक प्रगति के प्रेरणास्रोत स्वामी जी ही थे।
अपने थोड़े से कार्यकाल में ही उन्हें इस चमत्कारी कार्य को सम्पन्न करने में जो सफलता मिली, उसका विशेष कारण यह था कि वे तप और त्याग की मूर्ति थे। वे सत्य के निर्भीक सेनानी थे। जिन आदर्शों की प्राप्ति को उन्होंने जीवन का लक्ष्य बनाया, उन्हें प्राप्त करने के लिए जीवन का सब कुछ लुटा दिया। वीर योद्धा की तरह वे संग्राम में कूद पड़े और सर्वस्व की आहुति देकर सत्य की रक्षा की। - सत्यकाम विद्यालंकार
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