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अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा थे वीर सावरकर

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Veer Vinayak Damodar Sawarkarवीर सावरकर उन दूरदर्शी राजनीतिज्ञों में थे, जो समय से पहले ही समय के प्रवाह को अच्छी तरह समझ जाते हैं। जब भारत विभाजन की चर्चा चल रही थी, तो भारत विभाजन के बाद क्या-क्या परिस्थितियां इस देश को देखनी होंगी, सावरकर जी को इसका अनुमान बहुत पहले था और इसीलिए स्थान-स्थान पर जाकर उन्होेंने हिन्दू महासभा के नेता के रूप में अपने भाषणों में तथा अपनी लेखनी के माध्यम से देश को सावधान किया कि भारत-विभाजन का परिणाम किस रूप में देश को भुगतना पड़ेगा।

सावरकर जी ने भारत विभाजन का खुलकर विरोध किया था। वे अखण्ड भारत के महान् स्वप्न द्रष्टा थे। वे कांग्रेस को भारत विभाजन का अपराधी मानते थे। कम्युनिष्टों की राष्ट्रद्रोहिता का समय-समय पर उन्होंने भण्डाफोड़ किया था। चीन भक्त कुछ कम्युनिष्ट भी उनकी राष्ट्रभक्ति पर अंगुली उठाने का दुस्साहस करते रहे हैं।

जब सावरकर जी 1857 की क्रान्ति के शताब्दी समारोह में 1957 में दिल्ली पधारे थे, तो उस समय हमारे देश के चीन के साथ बड़े भाईचारे के सम्बन्ध थे और ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा बुलन्द हो रहा था। लेकिन वीर सावरकर की पैनी आंखों ने इसके पीछे झांकते हुए उस दुरभिसन्धि को देखा और एक भयंकर भविष्य की कल्पना की। जब हमने चीन तथा अन्य बौद्ध देशों को अपने निकट लाने के लिए बुद्ध जयन्ती का कार्यक्रम रखा था और उस पर बहुत अधिक व्यय किया था तो वीर सावरकर जी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक नारा लगाया था कि “भारतवासियों को आज यह निर्णय करना है कि उन्हें बुद्ध चाहिए या युद्ध? हम इन दोनों में से किस एक मार्ग को पकड़कर चलना चाहते हैं?’’ 1962 के चीनी आक्रमण और 1964 के पाक आक्रमण के समय हमें यह याद आया कि 1957 में उस दुरदर्शी राजनीतिज्ञ ने जो नारा दिया था ‘युद्ध या बुद्ध’ का, उसमें कितनी दूरदर्शिता थी कि हमको प्रत्यक्ष उसका अनुभव हुआ।

वीर सावरकर ने अपनी जिन्दगी का अधिकांश भाग भारतीय स्वाधीनता संग्राम में झोंक देने और अण्डमान की काल कोठरी में यातनाएँ सहन करने के बाद कांग्रेस की तुष्टीकरण और दब्बू नीति के दुष्परिणामों का मुकाबला करने के लिए हिन्दू संगठन को इस युग की भारी आवश्यकता माना तथा इसीलिए उन्होंने हिन्दू महासभा का नेतृत्व स्वीकार कर जहाँ एक ओर 700 वर्षों तक गुलामी में रहे हिन्दू समाज में राजनीतिक चेतना उत्पन्न की, वहीं हिन्दू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, छूआछूत तथा अन्य कुरीतियों पर बज्र प्रहार भी किया। अस्पृश्यता निवारण को उन्होंने नारेबाजी का रूप न देकर रचनात्मक रूप दिया।

वे भारत को हर दृष्टि से शक्तिशाली देखने के इच्छुक थे। इसीलिए उन्होंने सदैव ‘सैनिकीकरण’ की मांग की। उनका यह दृढ़ मत था कि जब तक भारत रूस और अमेरिका की तरह सैनिक दृष्टिकोण से शक्तिशाली न बनेगा, तब तक उसे बाहरी देश से खतरा बना ही रहेगा। हिन्दू महासभा के प्रत्येक अधिवेशन और सम्मेलनों में उन्होंने भारत का सैनिकीकरण करने तथा विदेश नीति का आधार सुदृढ़ एवं जैसे को तैसा बनाने पर जोर दिया। वे अखण्ड भारत के समर्थक थे। इसीलिए सन् 1965 में भारतीय विजयवाहिनी सेना के लाहौर की ओर कूच करने के समाचार ने रोगशैया पर पड़े इस वयोवृद्ध सेनानी के अन्दर स्फूर्ति उत्पन्न कर दी थी। किन्तु ताशकन्द समझौते ने उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया और फिर उनके लिए एक-एक क्षण जीना दूभर हो गया था।

ऐसे महान् राष्ट्रपुरुष को साम्प्रदायिक बताने वाले तथा उन पर अंगुली उठाने वाले स्वयं देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंकते रहे हैं। 1962 में भारत पर आक्रमण करने वाली चीनी सेना को ‘मुक्ति सेना’ बताने वाले कम्युनिस्टों की दृष्टि में चीन को मुहंतोड़ उत्तर देने के आकांक्षी सावरकर जी खटकने स्वाभाविक ही हैं। सावरकर जी जैसी महान् विभूति पर आरोप लगाने वालों को इतिहास कदापि क्षमा नहीं करेगा। - प्रकाशवीर शास्त्री

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