देश के अमर सपूतों में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम बड़े ही आदर एवं श्रद्धा से लिया जाता है। भारत को पराधीनता से मुक्त कराने में उनका योगदान निश्चय ही सराहनीय एवं चिरस्मरणीय है। वह न केवल अपने देश भारत में, अपितु अखिल विश्व के देशों में भली-भाँति चर्चित व पूज्य हैं।
सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1899 ई. में कटक (उड़ीसा प्रान्त) में हुआ। आपके पिता का नाम जानकीदास बोस तथा माता का नाम प्रभावती था। पिता रायबहादुर जानकीदास बोस एक सरकारी वकील तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, जिनके घर पर सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं। आपकी माँ प्रभावती एक धार्मिक महिला थीं। बचपन में सुभाष के सम्बन्ध में एक ज्योतिषी ने उनकी माँ से कहा था कि आपका लड़का किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति करेगा। इसके हृदय में सागर जैसी गहराई होगी तो हिमालय जैसी बुलन्दी भी होगी, ऋषियों जैसा त्याग होगा तो सेनापतियों जैसा साहस भी होगा, यह मोहमाया से दूर रहेगा और सादगी का जीवन निर्वाह करेगा।
सुभाष की आरम्भिक शिक्षा कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में हुई। उनका मस्तिष्क बहुत अच्छा था। वह पढ़ाई में सभी से आगे रहते थे। बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पिता का मन रखने के लिए उन्होंने इंग्लैण्ड जाकर आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर वरिष्ठता सूची में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। किन्तु देश-सेवा का व्रत लेने वाले वीर सुभाष ने त्याग-पत्र दे दिया और स्वदेश वापस लौट आये।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन त्याग और बलिदान का जीवन था। वैभव उन्हें छू तक नहीं गया था। अपने महान चरित्र की उन्होंने हमेशा रक्षा की। वे एक समय भोजन करते थे। ब्रह्मचर्य में उनका विश्वास था। साधारण वेश-भूषा उन्हें पसन्द थी। उनके संगी-साथी साधारण लोग थे। हर व्यक्ति से घुलना-मिलना उन्हें बहुत पसन्द था। यद्यपि उनके पिता सर रायबहादुर जानकीदास बोस को यह सब अच्छा नहीं लगता था, किन्तु सुभाष अपनी धुन के पक्के थे। वह वही करते थे, जो उन्हें अच्छा लगता था।
मानव सेवा को वह ईश्वर उपासना से कम नहीं मानते थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने जाजपुर परगने में हैजा-पीड़ितों के बीच जाकर दो महिनों तक स्वयंसेवकों के साथ सेवा की और कई रोगियों को मौत के मुँह से बचाया। देश-प्रेम की भावना नेताजी के मन में बचपन से ही थी। विद्यार्थी जीवन में ही अपने साथी को ‘ब्लैक मंकी’ कहने पर प्रोफेसर ओटन के गाल पर दो तमाचे जड़ दिये थे। आई.सी.एस. से त्याग-पत्र देने के बाद नेता जी सर्वरूपेण देश को आजाद कराने के लिए सक्रिय हुए। सर्वप्रथम चितरंजन दास से उन्हें विशेष प्रेरणा मिली। महात्मा गांधी को भी वे महान् मानते थे। असहयोग आन्दोलन के दौरान क्रान्तिकारी सुभाष ने युवकों का प्रतिनिधित्व किया और बंगाल के स्वयंसेवक दल के अध्यक्ष के रूप में हड़ताल को पूर्ण सफल बनाया, जिसके लिए सुभाष को छः महीने की सादा कैद की सजा दी गई। उनके साहस और निर्भीकता की कहानियाँ युवकों में आत्म-जागृति पैदा करती थीं, जिस कारण वह युवा-हृदय सम्राट बन गये। बंगाल में बाढ़-पीड़ितों की सहायता के लिए भी सुभाष ने स्वयंसेवकों के साथ कार्य किया।
देश को आजादी दिलाने के लिए उन्होंने अपना महान् योगदान किया। जेल की कठोर यातनाएं सहीं, परन्तु उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। झुकने की अपेक्षा वह मरना पसन्द करते थे। अपने राजनैतिक जीवन के अल्पकाल में ही वह अत्यधिक लोकप्रिय हो गये। वे दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। प्रथम बार हरिपुरा तथा दुबारा त्रिपुरा। कालान्तर में गान्धी जी से सैद्धान्तिक मतभेद होने के कारण कांग्रेस से अलग होकर सन् 1940 ई. उन्होंने फारवर्ड ब्लाक की स्थापना कर देश तथा समाज की भलाई के लिए बहुत से कार्य किये।
भारत को पूर्ण स्वराज्य दिलाने के लिए अंग्रेजों को चकमा देकर नेता जी ने विदेशों की यात्रा की। वह बर्लिन पहुंचे, जहाँ हिटलर ने उनका भव्य स्वागत किया। इटली में भी उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ। वह रूस के तत्कालीन तानाशाह शासक स्टालिन से भी मिले, किन्तु वांछित सहयोग उन्हें नहीं मिला। 15 जुलाई 1943 ई. को सिंगापुर में साठ हजार भारतीयों की आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। इसमें उन्होंने महिलाओं की ‘रानी झांसी रेजीमेण्ट’ तथा बालकों की बाल-सेना भी सम्मिलित की। आजादी के दीवाने क्रान्तिवीर सुभाष ने 22 मार्च, 1944 ई. को आजाद हिन्द फौज की सहायता से 200 वर्ग मील पर तिरंगा झण्डा लहराकर उसे अंग्रेजों से मुक्त कराया। किन्तु इम्फाल में पराजय मिली। 16 अगस्त 1945 को जापान के आत्मसमर्पण के बाद टोकियो जाते समय विमान दुर्घटना में नेता जी का देहान्त हो गया बताया जाता है। परन्तु यह सन्दिग्ध है।
नेता जी सभी वर्गों में परस्पर समन्वय के पक्षधर थे। मतभेद होने पर भी सुभाष को गान्धी एवं नेहरु महान मानते थे। महात्मा गान्धी के अनुसार नेता जी का सबसे महान् और स्थिर रखने वाला कार्य था, सब प्रकार के जातीय और वर्णभेद का उन्मूलन। उन्होंने अपने आपको कभी सवर्ण नहीं समझा। वह आमूलचूल भारतीय थे। उन्होंने अपने अनुयायियों में भी यही आग प्रज्ज्वलित की, जिससे प्रेरित होकर वे उनकी अनुपस्थिति में भी सभी भेदभाव भूलकर एकसूत्र में काम करते थे।
नेताजी दृढ़ निश्चयी, महान् साहसी एवं क्रान्तिकारी विचारों के अग्रदूत थे। समझौता उन्होंने कभी भी नहीं स्वीकारा। उनका विश्वास था कि ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिये। सशस्त्र क्रान्ति के विश्वासी नेता जी की रग-रग में जोश था। देश को आजाद कराने के लिए अपने शरीर का रक्त अर्पण करने को वे सदैव तत्पर रहे। सैनिकों को उद्बोधित करते हुए उन्होंने कहा- “भारत के स्वाधीनता सेनानियो! त्याग और बलिदान के लिए तैयार हो जाओ। मातृभूमि तुम्हें पुकार रही है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’’ आजाद हिन्द सेना का राष्ट्रीय ध्वज फहराने के बाद उन्होंने कहा कि अपनी परमप्रिय जननी जन्मभूमि की स्वाधीनता हमारा लक्ष्य है। हमें पूरी शक्ति के साथ उसकी प्राप्ति के लिए आगे बढ़ना है तथा दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय झण्डा फहराना है। हमारे मार्ग में जो आयेगा, उसे कुचलते हुए हम आगे बढ़ेंगे। ’कदम- कदम बढ़ाये जा, वतन के गीत गाये जा’ आजाद हिन्द फौज का प्रयाण गीत था। ’जयहिन्द’ कहकर वह सेना की सलामी लेते थे। ‘दिल्ली चलो’ का उन्होंने नारा लगाया। वह स्वयं सेना का नेतृत्व करते थे और स्वयं अपना सामान ढोते थे। उनका विचार था कि आजाद हिन्द सेना भारत की स्वाधीन सेना है। इसमें सभी बराबर हैं। न कोई बड़ा है, न कोई छोटा है। समता का इससे बड़ा सिद्धान्त और क्या हो सकता है?
स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए छः बातों पर विशेष बल देते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने कुछ सुझाव कराची अधिवेशन में दिये थे। सामाजिक कार्यक्रम के आधार पर किसानों और मजदूरों का संगठन, मजबूत अनुशासन, स्वयंसेवी दलों में युवकों का संगठन, जाति प्रथा की समाप्ति और सभी प्रकार के सामाजिक एवं धार्मिक अन्धविश्वासों की समाप्ति, विदेशी वस्तुओं का परित्याग, विशिष्ट साहित्य का सृजन, नये कार्यक्रमों का प्रारम्भ तथा महिला संस्थाओं का संगठन।
नेता जी द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलकर हम देश को खुशहाल बना सकते हैं। उनके उच्च आदर्श, उनका त्याग, बलिदान, स्वाभिमान अनेकों युवकों को प्रेरणा देता रहेगा। आज हम सबका उत्तरदायित्व है कि उनके स्वप्नों को पूरा करें तथा उनके अधूरे कार्यों को पूर्ण कर सही दिशा में कदम बढ़ायें। - डॉ. अमरनाथ वाजपेयी
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