विशेष :

राष्ट्र और प्रजा

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उत्तरं राष्ट्रं प्रजया उत्तरावत्। (अथर्ववेद 12.3.10)

अर्थ- राष्ट्र उत्तर (है)। प्रजा द्वारा (वह) उत्तर होता है।

प्रस्तुत मंत्रांश पृथिवी-सूक्त का अंश है। ‘प्रथनात् पृथिवी’, जो फैलती है वह पृथिवी है। हमारी संज्ञा भी पृथिवी’ हो जाती है यदि हम फैलने का संकल्प करें। यह ‘भूमि’ इसलिए है क्योंकि इसका अस्तित्व है। यह ’पृथिवी’ इसलिए है क्योंकि यह पृथिवी है। ब्रह्माण्ड निरन्तर फैलता जा रहा है। कई ग्रह जो हमारे निकट थे वे दूर होते जा रहे हैं। चन्द्रमा भी इतनी दूर नहीं था जितना आज है। इसे हम चन्दा मामा कहते हैं क्योंकि यह हमारी पृथिवी का भाई है, निकट रहने वाला है।
कोई भी वस्तु जब फैलने लगती है तो अग्निधर्मा हो जाती है। ‘राष्ट्र’ शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है। (1) ‘राज्’ धातु से ‘त्र’ प्रत्यय ‘अत्यधिक’ अर्थ में होता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘राष्ट्र’ शब्द का अर्थ है अत्यधिक प्रकाशवान्।

2. दूसरी व्युत्पत्ति ‘रा’ धातु से ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करके ‘राष्ट्र’ शब्द बनाती है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘राष्ट्र’ का अर्थ है अत्यधिक त्यागशील। इन दो अर्थ गरिमाओं के लिए भूमि-सूक्त में कहा गया है- उत्तरं राष्ट्रम्। सामान्य स्थिति से उत्तर हो जाना राष्ट्र है। यह ऋण से धन होने की प्रक्रिया है। हमारा जीवन धन्य होने के लिए है। जिसके पास धन नहीं उसे भी हम धन्यवाद दे देते हैं, इस आशा से कि आज नहीं तो कल जीवन धन्य होगा। हमारा जन्म जैविक प्रक्रिया के आधार पर हुआ है। उसके अनुसार हम ‘जन’ हैं, ‘जाति’ हैं। आज ‘जाति’ का पता नहीं क्या अर्थ ग्रहण कर लिया गया है।

महर्षि गौतम के अनुसार जाति समान-प्रसवधर्मी होती है। जिनके जन्म की प्रक्रिया एक जैसी होती है वे एक जाति होते हैं। कोई व्यक्ति कश्मीर में रहने वाला हो या अफ्रीका में, चीन के पीत वर्ग के हों चाहे और कहीं के, प्रसव धर्म समान है। इसलिए सभी मनुष्य एक जाति के हैं। सामान्य जन्म लेकर हम ‘जन’ कहलाते हैं। जनतन्त्र तो सामान्य व्यवस्था है। लोकतन्त्र इससे ऊंची स्थिति है। लोक=अवलोकन करना। हम देखते हैं, समझते हैं। अच्छाई-बुराई को पहचानते हैं, यह लोकतन्त्र है। इससे भिन्न संज्ञा होती है प्रजा की। जो अपने को सामान्य से उत्तर बना लेता हो वह ‘प्रजा’ है। जिसमें मननशीलता का विस्तार होता हो वह मनुष्य है। मनुष्य तन्त्र प्रजातन्त्र से भी ऊंचा है। ‘नर=नेता’, ‘न रमते न-रः’। नर नेता होता है। वह सांसारिक प्रपंचों में रमण नहीं करता। छोटी-छोटी सी बातों में उलझा रहता है तो उसे स्मरण कराया जाता है कि तुम तो नर हो। नरतन्त्र श्रेष्ठ व्यवस्था है। कौन सी व्यवस्था को चुनें? इस प्रश्‍न के उत्तर में कहा, प्रजा। प्रजा उत्तर होती है तो राष्ट्र को भी उत्तर बनाती है। ‘उत्तर’ शब्द का प्रयोग हम महापुरुषों के लिए करते हैं। राम को हम लोकोत्तर कहते हैं क्योंकि वे सांसारिक सामान्य स्थिति से ऊपर उठे हुए थे। उन्हें पुरुषोत्तम भी कहते हैं। मर्यादा-पालन करने के कारण ही ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम’ कहे जाते हैं। मर्यादा मर्य (मनुष्य) को खाने वाली होती है। अर्थात् मनुष्य के सामान्य रूप को खा जाने वाली होती है। सीता के प्रति असीम अनुराग होते हुए भी राम ने सीता को वन में भेजा। उस समय सीता ने जितना कष्ट सहा उतना ही राम ने भी। घोर संकट में भी व्यक्ति अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ता। दुर्भिक्ष में भी माता प्राप्त अन्न को अपने बालकों को खिलाती है, स्वयं भूखी रहती है।

हमारी इच्छाएं अनन्त होती हैं। उनकी पूर्ति के लिए हम क्रियाएं करते हैं। क्रिया के लिए ज्ञान आवश्यक होता है। इस प्रकार इच्छा, ज्ञान और क्रिया में सारा जीवन समाया हुआ है। सारी इच्छों पूरी नहीं होतीं। फिर मनुष्य उन इच्छाओं में से महत्वपूर्ण का चयन करता है, बाकी को दबा देता है। पैसा सबको प्यारा होता है। पर पैसा सही साधनों से कमाऊं, यह सामान्य से ऊपर उठने की इच्छा है। जल सबको अच्छा लगता है। टी.वी. पर समुद्र, नदी अथवा तालाब का दृश्य देखकर बच्चे, बूढ़े, सब प्रसन्न होते हैं। क्योंकि मनुष्य प्रवाहधर्मी है। प्रवाह चाहे भावनाओं का या जल का हो, वह अच्छा लगता है। पर प्रवाह किनारों में बंधकर चले तो ही अच्छा लगता है। जब नदी अपने किनारों को तोड़कर बहने लगती है तो सब कुछ नष्ट कर देती है। नदी के इसी प्रवाह को रोककर बाँध बनाकर सिंचाई आदि उपयोग किये जा सकते हैं। इसी प्रकार इच्छाओं का प्रवाह अमर्यादित होता है तो वह दुःखदायी होता है।

आज हर दृष्टि से मर्यादाहीनता हमारे देश की विशेषता बनती जा रही है। माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः, इसे हम ‘घोषणापत्र’ कह सकते हैं। इसमें नागरिक कहता है कि मैं प्रथनधर्मा हूँ। अर्जुन के अनेक नामों में से एक नाम पृथा-पुत्र था। कुन्ती का एक नाम पृथा था। पृथा न होती तो पांचों पुत्रों में बराबर स्नेह कैसे बांटती? वह पांचों में क्यों, एक सौ पांच में स्नेह बांटती थी, और एक सौ पांच में ही क्यों जो भी उसे मिलता था उसे प्रेम देती थी, सहायता करती थी।

हमने तर्क को अपने जीवन से विदा कर दिया। तर्क को विदा कर देने पर श्रुतियाँ विफल हो जाती है। धर्म की अनेक परिभाषाओं में एक परिभाषा यह भी है- तर्केण अनुसन्धीयते स धर्मः। जहाँ धर्म को तर्क पर कसा जाता है, वहाँ सामान्य से प्रजा बनने की प्रक्रिया होती है। प्रजा राष्ट्र को भी उत्तर बनाएगी। राष्ट्र के अनेक रूप हो सकते हैं। हमारा शरीर एक राष्ट्र है। भूखण्ड एक राष्ट्र है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता हैराष्ट्र के स्वरूप को समझने की और उसके अनुरूप जीवन को ढालने की । हम प्रभु से प्रार्थना करें कि वह हमें इस उत्तर राष्ट्र की उत्तम प्रजा बनने की प्रेरणा दे, जिससे हमारा राष्ट्र उत्तम हो। - डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली

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