ओ3म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥
(ऋग्वेद 1.189.1, यजुर्वेद 5.36,7.43,40.16, तैत्तिरीय संहिता 1.1.14.3, 1.4.43.1,
तैत्ति. ब्राह्मण 2.8.2.3, तैत्ति. आरण्यक 1.8.8., शतपथ ब्राह्मण 14.8.3.1)
अन्वय- हे देव अग्ने, विश्वानि वयुनानि विद्वान् (जानंस्त्वं), राये अस्मान् सुपथा नय, जुहुराणं एनः युयोधि। (वयं) ते भूयिष्ठां नम उक्तिं विधेम॥
अर्थ- (देव अग्ने) हे सबके नायक या पथप्रदर्शक भगवन्! आप (विश्वानि) सब (वयुनानि) ज्ञानों को (विद्वान्) जानने वाले हैं। इसलिए हम (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत-बहुत (नम उक्तिम्-विधेम) स्तुति करते हैं। आप (राये) धन-सम्पत्ति के लिए (अस्मान्) हमको (सुपथा) ठीक मार्ग से (नय) ले चलिए। (अस्मत्) हमसे (जुहुराणम्) कुटिल (एनः) पाप को (युयोधि) दूर कीजिए।
व्याख्या- इस मन्त्र में परमात्मा का विशेष नाम ‘अग्नि’ है और उससे पथ-प्रदर्शन की प्रार्थना की गई है। लोक-भाषा में ‘अग्नि’ आग को कहते हैं। आग से प्रकाश होता है और प्रकाश मार्ग-प्रदर्शन करता है। अन्धेरे में चल नहीं सकते। अन्धेरी रात में घने जंगल में भटकने वाले पथिक के लिए जुगनू की चमक भी सहायक हो जाती है और यदि कहीं बिजली कौन्ध जाए तो कुछ न कुछ मार्ग दिखाई देने लगता है।
अन्धेरे रास्ते में दीपक, मशाल आदि मार्ग प्रदर्शन करते हैं। ये सब आग के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। सूर्य आग का सबसे बड़ा गोला है और सूर्य के समान दूसरी वस्तु भौगोलिक अर्थ में पथ प्रदर्शक है ही नहीं। अतः ‘अग्नि’ का पथ प्रदर्शन् से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
वेद में ईश्वर को ‘अग्नि’ शब्द से सम्बोधित किया गया है। ऋग्वेद का सबसे पहला शब्द अग्नि है। मानव जाति के साहित्य में ऋग्वेद प्राचीनतम पुस्तक है और ऋग्वेद का पहला शब्द अग्नि है। अतः कोई संशय नहीं कि ईश्वर के लिए हमारे ऋषियों ने जिन शब्दों का प्रयोग किया उनमें ’अग्नि’ सबसे पहला है। ईश्वर के पर्यायों में अग्नि से पुराना कोई शब्द नहीं है। सृष्टि के आरम्भ में जब वेदों का आविर्भाव हुआ होगा तो ऋषियों को सबसे पहली आवश्यकता हुई होगी कि कोई उनका पथ प्रदर्शक होता। एक तो ईश्वर की बनाई सृष्टि थी, उसकी वस्तुएँ मनुष्य का पथ प्रदर्शन करती थीं। इसको आप ‘नेचर’ या सृष्टि कह सकते हैं।
घास की छोटी सी पत्ती से लेकर सूर्य जैसे विशाल पदार्थ सभी मनुष्य को कुछ-न-कुछ पाठ पढ़ाते ही हैं। चींटी से लेकर हाथी तक सभी मनुष्य के गुरु बनना चाहते हैं और बुद्धिमान् मनुष्य सभी से आचार ग्रहण कर सकता है। सृष्टि पथ-प्रदर्शन का ठीक-ठीक कार्य करने में असमर्थ है। सृष्टि विशाल है। यह एक अद्भुत भिन्नताओं का संग्रहालय है। मनुष्य इतनी भारी भीड़ में से किसका अनुकरण करे, यह एक प्रश्न रहता है। जो मनुष्य केवल प्रकृति का अनुकरण करते हैं वे प्रायः धोखे में पड़ जाते हैं। बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती हैं। शेर छोटे पशुओं को खा जाता है। बहुत से मनुष्यों का विचार है कि कुदरत या नेचर हमको क्रूर होना सिखाती है। ‘हिंसा’ स्वाभाविक है और ‘अहिंसा’ अस्वाभाविक है। यदि मनुष्य पशुओं को ही गुरु बनाए तो मानव-समाज में मत्स्यराज्य या सिंहराज्य हो जाए। सभ्यता कहाँ रहे? सभ्य समाज के सभी नियम उलट-पलट हो जाएँ।
कुछ लोगों का विचार है कि मनुष्य माँ के स्तन से दूध पीने वाला जन्तु है। इस कोटि के प्राणी विवाह की प्रथा को नहीं मानते। गाय और बैल या घोड़े और घोड़ी, कुत्ते और कुतिया में पति-पत्नी का स्थायी सम्बन्ध नहीं होता। केवल कुछ पक्षियों में वैवाहिक जीवन के कुछ चिह्न पाये जाते हैं। अतः समय-समय पर किसी-किसी देश में ऐसे नेता उत्पन्न हो गए हैं, जिन्होंने वैवाहिक प्रथा को सृष्टिक्रम के प्रतिकूल बताया है।
यूनान का यशस्वी और कीर्तिमान् दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) उच्चकोटि के मानव के लिए पति-पत्नी के स्थायी सम्बन्ध को आदर्श धर्म नहीं मानता था और उसके तत्सम्बन्धी विचारों का आधार केवल पशु-जगत् ही था। अतः सृष्टि या कुदरत हमारा नेतृत्व तो करती है परन्तु अचूक नेतृत्व नहीं। सृष्टि तो वस्तुतः जड़ है। वह अपना एक अंग ही प्रदर्शित कर सकती है। चेतन के पथ-प्रदर्शन के लिए चेतन चाहिए। ऐसा चेतन जो चेतनों में सबसे अधिक चेतनता का स्वामी हो। ऐसे चेतन को वेदों ने ‘अग्नि’ शब्द से सम्बोधित किया।
सृष्टि के आरम्भ में जब वेदों का प्रचार हुआ होगा तो उस समय पाणिनि आदि के व्याकरण नहीं रहे होंगे। शब्दों के धातु और प्रत्ययों को अलग-अलग करना और फिर उनसे संश्लेषण करके नये शब्द बनाना यह आदिकाल की प्रथा नहीं थी। कालान्तर में ऋषियों ने निरुक्त, व्याकरण आदि शास्त्र रचे और उनके भिन्न-भिन्न नियम बनाये। आदि ऋषियों के हृदयों में ईश्वर की प्रेरणा से शब्द और अर्थ का साक्षात् सम्बन्ध रहा होगा, धातु और प्रत्ययों के माध्यम से नहीं। इसीलिए आदि ऋषियोें को साक्षात्-कृत-धर्मा कहा गया है। मधुच्छन्दा आदि ऋषि संज्ञा अग्नि और संज्ञी परमात्मतत्व के सम्बन्ध को साक्षात् अर्थात् बिना धातु प्रत्यय के माध्यम के समझते रहे होंगे। माध्यम की आवश्यकता तो तब पड़ी होगी जब वैदिक भाषा जनसमुदाय की भाषा बनी होगी।
इसीलिए हम देखते हैं कि प्राचीन व्याकरण या निरुक्त की पुस्तकों में ‘अग्नि’ शब्द की भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ दी हुई हैं। यास्क ने कई आचार्यों के मत दिये हैं। जैसे ‘अग्नि’ का अर्थ है अग्न+नी=अग्रणी, नेता। एक आचार्य का मत है कि ‘अग्नि’ तीन अक्षरों का समुदाय है। ‘अ’ का अर्थ है ‘अयन’। ‘अनक्ति’ से क् या ग् का अक्षर लिया है और ‘नि’ णीञ् प्रापणे से लिया गया है। यहाँ भी अग्नि से नेतृत्व का अर्थ मिलता है। वेद हैं किसलिए? मनुष्य को ठीक मार्ग बताने के लिए। और वेदों का दाता है ईश्वर, वही हमारा पथ-प्रदर्शक हुआ।
प्रस्तुत वेदमन्त्र में ‘अग्नि’ का एक विशेषण दिया है- विश्वानि वयुनानि विद्वान। यह अग्नि के उस गुण को व्यक्त करता है जिसके कारण हम ईश्वर का आश्रय चाहते हैं। ‘वयुनम्’ का अर्थ है ‘प्रज्ञा’ या ज्ञान। ‘विश्वानि वयुनानि’ का अर्थ हुआ समस्त ज्ञानों का भण्डार। सृष्टि के पदार्थ हमको ज्ञान देते हैं, पन्तु आंशिक, एकदेशीय या अधूरा। इसी लिए हम धोखे में पड़ जाते हैं। ईश्वर पूर्ण ज्ञानी है, उसमें अज्ञान लेशमात्र भी नहीं है। उसका पथ-प्रदर्शन सबसे उचित होगा। उपनिषद् में कहा है कि ईश्वर के दर्शनमात्र से ‘छिद्यन्ते सर्वसंशयाः’ समस्त शंकाएं निवृत्त हो जाती हैं और मनुष्य का मार्ग सरल हो जाता है।
इस वेदमन्त्र में ‘जुहुराणम्’ अर्थात् कुटिल मार्ग को ही ‘एनः’ अर्थात् पाप बताया है। टेढ़े मार्ग पर चलने का नाम ही पाप है। इसका उलटा है ‘सुपथ’ अर्थात् सीधा मार्ग। सीधा मार्ग एक होता है। दो बिन्दुओं के बीच के सबसे छोटे मार्ग को सरल रेखा कहते हैं। जो सरल न हो वह ‘जुहुराणम्’ अथवा कुटिल है। मनुष्य यों तो जीवनभर चलता ही रहता है। जैसे जंगल में पचासों रास्ते बने होते हैं, समझ में नहीं आता कि कौन सा रास्ता ग्रहण करना चाहिए। यदि शेर ने कहीं से अपनी माँद में जाने के लिए मार्ग बना लिया तो वह भी मार्ग है। भालू किसी ओर होकर गुजर गया तो उसके पैरों के चिह्न भी पद्धति (पत्-हति) हैं। सैकड़ों भूल-भुलैयाँ हैं। वे पथ तो हैं ‘सुपथ’ नहीं। ये सब ‘जुहुराणम्’ कुटिल और मनुष्य को हानि पहुँचाने वाले हैं। इसी प्रकार संसार में भी मनुष्य दूसरे के मार्गों का अनुसरण करके अपने लिए कितने ही आदर्श गढ़ता है। किसी ने जुआरी को देखा कि एक दाव पर उसे पाँच सौ रुपये मिल गये। वह मन में कहता है कि यही मार्ग है ‘राये’ अर्थात् सम्पत्तिशाली होने के लिए। जुआरी का मार्ग मार्ग तो है, पर सुपथ नहीं। इस मार्ग पर चलकर हजारों लोग जुआरी बन जाते हैं। वे स्वयं भी भ्रष्ट होते हैंऔर संसार के लिए भी बुरा उदाहरण छोड़ जाते हैं। कोई डाका डालता है तथा कोई अन्य अत्याचार करके सुखी होना चाहता है। सच्चा प्रार्थी ईश्वर से प्रार्थना करता है कि ‘जुहुराणं एनः युयोधि’ ऐसे कुटिल मार्ग से मुझे दूर रख अर्थात् मुझे पाप करने की प्रवृत्तियों से बचा। जिस प्रार्थी के हृदय में पाप से बचने की इतनी उत्कट इच्छा होगी वह पाप से अवश्य बचेगा। पाप-कर्मों में कुछ प्रलोभन होता है, कुछ मिठास होता है। मक्खी बैठी शहद पर, पंख गये लिपटाय। शहद मीठा है। मक्खी को यह पता नहीं कि यह मिठास ही उसकी मृत्यु का हेतु बनेगी। परन्तु जिसको पाप की प्रवृत्ति की कुटिलता या हिंसकता का पता है, वह पाप से ऐसे ही डरता है जैसे बच्चा आग से। योगदर्शन (2-34) में पाप से बचने के लिए एक सूत्र आया है- वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्। अर्थात् पाप की प्रवृत्ति से बचना चाहो तो पाप से होने वाली हानियों को चित्रित करके अपने मन के सामने रक्खा करो। यदि हम कुटिल मार्ग पर चलेंगे तो ऐसा दुःख होगा। बद-परहेज बीमार व्यक्ति कभी-कभी आने वाली पीड़ा के डर से परहेज करने लगता है। प्रार्थना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि जब हम पाप से बचने के लिए प्रभु के सामने गिड़गिड़ाते हैं तो पापों की हानियाँ हमारे मन पर अंकित हो जाती हैं और यही पापों से बचने का उपाय है।
परन्तु प्रतिपक्ष भावना सुगम काम नहीं है। पापी के हृदय में पाप के मिठास की तो भावना होती है, परन्तु उसके प्रतिपक्ष अर्थात् दुःख की भावना उत्पन्न नहीं होती। जो विद्यार्थी खेल-कूद में पड़कर कुटिल मार्ग का अवलम्बन करता है और विद्यार्थी के कर्त्तव्यों से विमुख होता है, उसके सामने परीक्षा में विफल होने वाले दुःख का पूरा चित्र बन ही नहीं पाता। जो उस चित्र को ठीक-ठीक मन के पटल पर खींच पाया उसका अपने कार्य में सफल होना अवश्यम्भावी है। यह काम साधारण इच्छा मात्र से पूरा नहीं होता। सुख की इच्छा तो सभी करते हैं और पुण्य भी सभी करना चाहते हैं। परन्तु इच्छामात्र से ईश्वर किसी की सहायता नहीं करता। इच्छा उत्कट होनी चाहिए, जो साधारण प्रलोभनों से चलायमान न हो सके। प्रलोभनों की आन्धी छोटे वृक्षों को तो शीघ्र ही उखाड़ फेंकती है। इसके लिए लगातार कोशिश की जरूरत है।
मन्त्र में कहा है- भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम। हे प्रभो! हम बहुत अधिक बार अर्थात् बार-बार प्रार्थना करते हैं। ‘भूयिष्ठ’ शब्द के अर्थों पर विचार कीजिए। केवल ‘भूयिष्ठ’ शब्द कहने से कोई क्रिया ‘भूयिष्ठ’ नहीं हो जाती। जिह्वा से ‘भूयिष्ठ’ शब्द तो जल्दी से कहा जा सकता है, परन्तु क्रिया के ‘भूयिष्ठ’ होने में समय लगता है, परिश्रम करना पड़ता है, तप की आवश्यकता होती है। हम समझते हैं कि जब हमने वेदमन्त्र में ‘भूयिष्ठ’ शब्द का प्रयोग किया तो हमारी प्रार्थना भी ‘भूयिष्ठ’ हो गई और ईश्वर भी यह समझकर कि मैं ‘भूयिष्ठां नम उक्तिम्’ करता हूँ, उसका फल मुझे दे ही देगा। हम प्रायः बहुत से भजन गाते हैं जिनमें दिया होता है कि प्रभो! हम तुम्हारी लाखों बार प्रार्थना करते हैं। यहाँ लाखों का अर्थ लाखों नहीं होता। ‘सहस्रों’ में तीन अक्षर हैं, ‘लाखों’ में दो। वस्तुतः प्रार्थी एक छोटे से शब्द का प्रयोग करके ‘लाखों’ का लाभ उठाना चाहता है। यह स्वयं अपने को धोखा देना है। दस बार प्रणाम करने का अर्थ है एक-एक क्रिया दस बार करनी।
इसी प्रकार लाख प्रणामों का क्या अर्थ होगा? क्या कोई लाख बार प्रार्थना करता है? यदि करता ही नहीं तो उसको फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? वेदमन्त्र इस प्रकार की निरर्थक प्रार्थनाओं को विहित नहीं समझते। जो कहो उसे करो। जो वाणी में हो वही मन में हो। यदि प्रार्थी गम्भीरता से ऐसी प्रार्थना करेगा तो उसका जीवन अवश्य पवित्र होगा।
वेदमन्त्र में ‘सुपथा’ अर्थात् ठीक मार्ग की मांग की गई है। ईश्वर हमारा पथप्रदर्शक है। पथप्रदर्शन उसी का हो सकता है जो वास्तव में पथिक हो। जो पथिक ही नहीं उसके लिए पथप्रदर्शक व्यक्ति और पथप्रदर्शन करने वाले चित्र या पुस्तिकाएं व्यर्थ हैं। यदि मैं कलकत्ते जाना ही नहीं चाहता तो रेल के टाइम-टेबिल या स्टेशन का इन्क्वायरी (पूछताछ) आफिस किस प्रयोजन का? इसी प्रकार वैदिक प्रार्थनाएँ भी धर्मयात्रा के यात्री के लिए हैं। जो उस मार्ग का अनुगामी ही नहीं उसके लिए प्रार्थनाएँ बेकार हैं। मार्ग की खोज वह करता है जिसे मार्ग पर चलना है। प्रायः हर धर्ममन्दिर में प्रार्थनाएँ हुआ करती हैं। बड़े-बड़े कवि अपने मनोहर काव्य रचकर प्रार्थियों के हाथ में दे देते हैं और प्रार्थी इन पदों को बड़ी श्रद्धा से गाते हैं। इसी का नाम प्रार्थना है। परन्तु इन प्रार्थना करने वालों में एक भी धर्म मार्ग पर चलने वाला नहीं होता। परमात्मा ऐसे प्रार्थियों को ‘सुपथा’ या अच्छे मार्ग से कैसे ले जा सकता है? सन्मार्ग पर चलने की इच्छा हो, सन्मार्ग खोजने की इच्छा हो और वह इच्छा तीव्र, उत्कट तथा अमिट हो तो अग्निदेव उसका पथ प्रदर्शन अवश्य करेंगे। - गंगाप्रसाद उपाध्याय
Rigaveda | Ved Mantra | Sun | Yog Darshan | Pathpradarshan | Good Education | Peaceable | Orderliness | Vedbhashya | Ved | Mahamuni Gautam | Vedic Formulas | Vedic Motivational Speech & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Chakrata - Paniara - Kharar | Newspaper, Vedic Articles & Hindi Magazine Divya Yug in Chakulia - Panna - Khemkaran | दिव्ययुग | दिव्य युग |