ओ3म् स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु, स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः।
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव दृशेम सूर्यम्॥ अथर्ववेद 1.31.4॥
ऋषि ब्रह्मा। देवता वास्तोष्पति।
शब्दार्थ- (स्वस्ति मात्रे) स्वस्ति माता के लिए, (उत नः पित्रे अस्तु) और हमारे पिता के लिए हो। (स्वस्ति गोभ्यः) स्वस्ति गौओं के लिए (जगते पुरुषेभ्यः) जगत् के लिए, पुरुषों के लिए। (नः विश्वम्) हमारा विश्व (सुभूतम् सुविदत्रम् अस्तु) सु-सम्पन्न, सुमतियुक्त हो। (जोगेव सूर्यम् दृशेम) चिरकाल तक ही सूर्य को हमें देखना चाहिए।
शायद ही विश्व के किसी अन्य ग्रन्थ में ऐसी महान् भावनाएं हों जैसी वेदों में हैं। मानव मात्र के कल्याण की भावना से वेद भरा पड़ा है।
इस मन्त्र में भी सबके कल्याण की भावना है। विश्व का निर्माण परिवारों से होता है और परिवार के अग्रणी माता और पिता हैं। उनके स्वस्ति से परिवार का स्वस्ति सम्भव है। माता-पिता को सु-जीवन देना सन्तान का प्रथम कर्त्तव्य है। विश्व-स्वस्ति के सम्पादन के लिए माता-पिता और परिजन आदि की स्वस्ति प्रथम स्थान पर है। परिवार विश्व की प्रथम कड़ी है।
हमारे परिवार को सुखी और सम्पन्न बनाने में घरेलू पशुओं का बहुत बड़ा हाथ है। उनसे उदासीन रहकर परिवार का समुचित विकास सम्भव नहीं है। गौ पशु मात्र का उपलक्षण है। इसलिए गौ को समुचित सम्मान देना चाहिए। उसकी अच्छी तरह देख-रेख हमारी आर्थिक प्रगति के लिए भी आवश्यक है।
घर-घर की स्वस्ति ही जगत् के मानवों की स्वस्ति है। अखिल जगत् एक विराट् परिवार है। अतः घर-घर में सुशिक्षा और सु-व्यवस्था द्वारा मानव मात्र को सदाचारी, स्वस्थ, सुखी और शान्तिप्रिय बनाया जाना चाहिए। इसीलिए कामना की गई है कि जगत् के लिए स्वस्ति हो और पुरुषों के लिए स्वस्ति हो। अतः विश्व को सुख, सम्पत्ति और सुजीवन देने के निमित्त प्रत्येक घर को सुखी बनाना होगा। पारिवारिक स्वस्ति से राष्ट्र की स्वस्ति और राष्ट्र की स्वस्ति से जगत् की स्वस्ति सिद्ध होगी।
स्वस्ति के लिए एक और क्षेत्र मन्त्र में सुझाया गया है। कहा गया है कि हमारा विश्व सु-भूत और सु-विदत्र हो। हमारे विश्व का भूतकाल ‘सु’ का इतिहास हो और ऐसा सु-बुद्धि के साथ सत्कर्मों पर चलने से होगा। भावी पीढ़ियाँ हमें श्रद्धा से गौरव के साथ स्मरण करें, हमें कोसें नहीं, धिक्कारें नहीं।
हमारा भूत संस्कारों के रूप में हममें बसा हुआ है। मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार ये चार अन्तःकरण हमारा ‘विश्व’ हैं जिसमें हम बसे हुए हैं। यह हमारा विश्व सु-संस्कारों वाला हो।
यह हमारा विश्व सु-वेद का धनी हो। हमारा ‘वेद’ हमारा आत्मबोध ‘सु’ हो, ‘कु’ नहीं। अपना बोध तो दुष्ट को भी होता है और योगी-आत्मज्ञ-स्थितप्रज्ञ को भी होता है। हम योगी बनें। समभाव रखने वाले और कर्मशील योगी का आत्मबोध (विदत्र, वेद) ‘सु’ होता है। भावी पीढ़ियाँ ऐसे योगियों की सन्तति होवें। वे योगी जो गौरव से कह सकें कि हमारा भूत काल ‘सु’ है, और हमारा आत्मबोध भी ‘सु’ है। अतः हमारी अगली पीढ़ियाँ भी यह गौरव कर सकने वाली होंगी।
आगे बताया गया है कि सु-भूत और सु-विदत्र के सम्पादन के लिए हम चिरकाल तक सूर्य का दर्शन करें, उदय होते हुए सूर्य को देखें, जिससे हममें (1) उदीयमानता, समुत्थान की भावना जागृत हो। (2) आत्मस्थ होकर सबकी प्रगति की भावना जागृत हो। (3) सूर्य के समान स्वयं प्रज्ज्वलित रहते हुए विश्व को अपने ज्ञान-विज्ञान से प्रकाशित करें और (4) सूर्य के समान अपने व्यक्तित्व से सबके आकर्षण-आदर्श का केन्द्र बनें। इन चार गुणों से युक्त होकर हम विश्व में स्वस्ति की स्थापना कर सकते हैं। सूर्य जगत् का आत्मा है। वह जगत् की स्वस्ति कर रहा है। हम भी सूर्यानुकरण करें। - आचार्य डॉ. संजयदेव
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