विशेष :

सुमन संचय

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एक बार एक तंग रास्ते पर काशीराज और कोशलराज दोनों के ही रथ आमने-सामने आ गए। अब रास्ते से एक ओर हटे बिना दूसरे रथ को निकलने की गुंजाईश न थी।

काशीराज के सारथी ने कहा “मेरे रथ पर काशी नरेश हैं। तुम रास्ता दो, हम निकल जाएं।’’
“नहीं, नहीं, तुम रास्ता छोड़कर हट जाओ। तुम्हें मुझे रास्ता देना चाहिए। क्योंकि मेरे रथ पर कोशल राज बैठे हैं।’’ जो अवस्था में छोटा हो, वह बड़े को जाने दे। दोनों सारथियों को यह बात पसन्द आ गई। पर कोई हल न निकल सका। क्योंकि दोनों की अवस्था समान थी।

“जो बड़ा राजा हो उसे प्रथम निकलने का अधिकार होना चाहिए’’ इसे दोनों सारथियों ने उचित समझा। पर यह भी कोई हल न बन सका क्योंकि दोनों राजाओं का राज्य समान था।
’‘जो अधिक सदाचारी हो उसे प्रथम निकलने का अधिकार हो’’ दोनों ने फिर एक हल्का मार्ग ढूंढा।

कोशलराज के सारथी ने कहा- “मेरे महाराज भले के साथ भला तथा शठ के साथ शठता का व्यवहार करते हैं। यह इनका महान् गुण हैं।’’

काशीराज के सारथी ने कहा ’‘तब तो मेरा ही रथ निकलेगा। क्योंकि मेरे राजा स्दव्यवहार से ही दूसरों के दुर्गुणों को दूर करते हैं।’’

इस पर कोशलराज ने स्वयं काशीराज को मार्ग दे दिया। - रघुनाथ प्रसाद पाठक

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