ओ3म् अश्मन्वती रीयते संरभध्वमुत्तिष्ठत प्रतरता सखायः।
अत्रा जहाम ये असन्नशेवाः शिवान् वयमुत्तरेमाभिवाजान्॥ यजुर्वेद 35.10॥
जहीमो अशिवा ये असन्॥ ऋग्वेद 10.53.8॥
शब्दार्थ - अश्मन्वती = पत्थरों वाली अर्थात् पहाड़ी नदी रीयते = बही जा रही है, बह रही है, बहती है। अतः इसको पार करने के लिए सखायः = मित्रो ! तुम संरभध्वम् = मिलकर आरम्भ करो, संकल्प लो, योजना बनाओ, उसकी पूर्ति के लिए संगठन बनाओ, फिर कार्यक्रम निश्चित करके उत्तिष्ठत = उठो, अपने संकल्प, योजना को पूर्ण करने के लिए पूर्व स्थिति से उभरकर तैयार हो जाओ, तब प्रतरत= तैरो, पार करो। जैसे जल में उतरकर हाथ-पैर मारते हैं, वैसे ही संकल्पित कार्य आरम्भ करो, योजना में तत्पर हो जाओ। एक ओर से अर्थात् एक स्थान से दूसरी दिशा की ओर जाओ।
इस अश्मन्वती जीवन नदी से पार उतरने या समस्याओं के हल के लिए आवश्यक है कि ये= जो-जो अशिवाः- न+शिवाः (शिव = कल्याण) अशेवाः न+ शेवाः (शेव = सुख) = अतः कल्याण, सुख न करने वाले अर्थात् दुःख देने वाले बाधक तत्व असन् = हों, तान् = उनको वयम् = हम अत्र = यहाँ, यहीं जहामः, जहीमः = छोड़ते हैं, छोड़ दें और शिवान् = कल्याणकारक शेवान् = सुखदायक, सहायक, वाजान् = बलों, तत्वों, साधनों की सहायता से वयम् = हम सब हल, समाधान चाहने वाले अभि = अभिमुखता से, प्रमुखता देते हुए, सजग होकर उत्तरेम = पार करें, पार उतरते हैं। अर्थात् जीवन लक्ष्य, सामाजिक कार्य को पूरा करें।
व्याख्या- अश्म = पत्थर छोटे-बड़े, गोल-मटोल, टेढे-मेड़े, सरल-नुकीले, चमकीले-रूखे आदि अनेक प्रकार के होते हैं। ईंट का जवाब पत्थर से, पत्थर बाँधना, कोरा पत्थर, रास्ते का पत्थर जैसे अनेक मुहावरे हमारी भाषाओं में चलते हैं। ये अनेक भावों को अभिव्यक्त करते हैं। पत्थर ईंट से दृढ होता है। ईंट मनुष्य द्वारा निर्मित कृत्रिम और पत्थर प्राकृतिक है। अश्वमन्वती शब्द जीवन नदी के उस रूप का संकेत करता है, जिसमें एक से बढकर एक और एक के बाद एक अड़चन, उतार-चढाव, बाधा, विषमता, समस्या, विघ्न आते हैं। ये समस्याएँ मूलतः काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, अहंकार से पैदा होती हैं। इनका अपने-अपने ढंग का अलग-अलग प्रभाव या परिणाम होता है।
रीयते- बहना, बदलाव, परिवर्तन, आगे बढना, चलना। भौतिकता के कारण संसार और जीवन में परिवर्तन आना एक स्वाभाविक बात है। यहाँ दिन-रात की तरह सुख-दुःख जनक घटनाएँ घटती रहती हैं। तब इनका कोई न कोई प्रभाव भी होता है। इन समस्याओं के समाधान के लिए सखायः - मित्र के रूप को अपनाओ। सखायः शब्द सामूहिक खेलों की टीम भावना (सहयोग) को व्यक्त करता है। सखा = समान ख्यान = प्रकटाव, सम स्थिति। ज्ञान, विचार ही समान न हों, अपितु क्षमता-योग्यता उभारने के लिए अभ्यास भी समस्तर पर हो। समानशीलेषु व्यसनेषु सख्यम्। समान स्वभाव तथा समस्थिति में मित्रता होती है और निभती है। व्यसन = बुरी आदत, एक-जैसी स्थिति वालों में मित्रता जल्दी होती है। सखायः को समझने के लिए सेना शब्द एक अच्छा उदाहरण है। अतः विशेष विचार्य है।
सेना- स+इन = सेश्वरा सदा नेतायुक्त होती है। संख्या व कार्य के अनुपात से वहाँ कोई न कोई नायक होता है, जिसके अनुशासन, आज्ञा में वह रहती है। कभी भी शासकविहीन नहीं होती, सदा अनुशासन में रहती है। सेना का दूसरा मूलमन्त्र है समानगतिः = समचाल, एक सी स्थिति। अपने-अपने स्तर के अनुरूप उनके वस्त्र (वर्दी) रहन-सहन-भोजन आदि व्यवस्था, दिनचर्या, प्रशिक्षण की प्रक्रिया एक जैसी ही होती है। सख्यता, मित्रता होने से व्यक्ति स्वाभाविक रूप से ही उत्साहित हो जाता है। उदास, हताश, निराश नहीं होता है। अतः सखायः से सामाजिक कार्य करने की प्रक्रिया सामने आती है। ऐसे प्रसंग, अवसर पर टीम (सहयोगी) भावना से सहयोगी बनकर कार्य हो।
मन्त्र में एक साथ तीन क्रियाएँ हैं, जो कार्य की योजना, प्रक्रिया, कार्यान्वयन को कह रही हैं। संरभध्वम् में मिलकर आरम्भ करने की भावना है। अतः संगठन बनाकर संकल्प लेना, प्रक्रिया की योजना= नक्शा बनाना। उत्तिष्ठत = उठना, योजना के अनुरूप तैयार होना, तैयारी करना, प्रतरत= कार्य की प्रक्रिया को कार्यान्वित करना, चरितार्थ करना। अतः संगठित होकर पूरी सोच, पक्का इरादा करके फिर कड़ी मेहनत करना। इस प्रकार तीन क्रियाओं द्वारा मन्त्र पूर्ण परिश्रम से, पूरी ताकत से जुटने के लिए कह रहा है, जिससे बात बीच में न रहे।
शिवान्। यह मन्त्र ऋग्वेद और यजुर्वेद दोनों में ही है। अशिव, अशेव और जहाम-जहीम का ही अन्तर है। न+शिव-अशिव, न+शेव-अशेव। शिव=कल्याण, शेव=सुख को अपनाने से पूर्व अशिव=बाधक रूप, दोष, व्यसन, गलती, अशुद्धि को पूरी तरह से छोड़ने की बात हो रही है। यतो हि व्यसनी अधोऽधो व्रजति। (मनु. 7.53) व्यसनी और से और धंसता चला जाता है। यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः (मुण्डक. 3.1.5)। दोषरहित ही परमतत्त्व को प्राप्त करते हैं। शिव=कल्याण, शेव=सुख देने वाले सहायक साधनों को सावधानी पूर्वक अपनाना चाहिए। ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्वाः। (मुण्डक 3.1.5) ज्ञान की सहायता से निर्मल मन वाले सफल होते हैं।
इस प्रकार के मन्त्रों के आधार पर ही महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश में अनेक बार लिखा है कि जब तक अधर्म (बुरे व्यवहार) को छोड़ते नहीं और धर्म (अच्छे आचरण) को अपनाते नहीं, तब तक सुख, शान्ति, सफलता, कल्याण, आनन्द नहीं होता है।
भावार्थ- यहाँ ’मैं निशा में भटकते अनजान खग सा’ जैसों को जीवन जीने का सन्देश देते हुए कहा है कि सफलता प्राप्त करने के लिए दृढ संकल्प और पुरुषार्थ के साथ बाधक बातों को छोड़ते हुए तथा सहायक तत्त्वों को अपनाना चाहिए। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 17 | जीवन में सुख प्राप्ति का मूल मंत्र | चाणक्य नीति | Explanation of Vedas | Ved Katha