विशेष :

हमें श्रेष्ठ धन प्राप्त हो

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ओ3म् इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सभगत्वमस्मे।
पोषं रयीणामरिष्टिंतनूनाम्। स्वाद्मानंवाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥ ऋग्वेद 2.21.6॥

शब्दार्थ- इन्द्र = सब प्रकार के ऐश्‍वर्यों के स्वामी श्रेष्ठानि = प्रशंसित, अनिन्दित, जो बुराई करके नहीं आए ऐसे द्रविणानि = जीवन की जरूरतों की गति के आधारभूत धन धेहि = धारण कराइये, प्राप्त कराइए। दक्षस्य = किसी कार्य को करने की योग्यता की चित्तिं = समझ, ज्ञान (धेहि = धारण कराइए)। अस्मे = हमारे लिए सुभगत्वम् = सौभाग्य, अच्छापन दीजिए। रयीणाम् = धन, ऐश्‍वर्यों की पोषम् = पुष्टि, बढोतरी दीजिए। तनूनाम् = शरीरों की अरिष्टिम् = हिंसा से दूरी अर्थात स्वास्थ्य दीजिए वाचः = वाणी और रसना का स्वाद्मानम् = अच्छा बोलना और भोजन को स्वाद से खाना अर्थात भोजन को अच्छी भावना से करना और सुपाचन दीजिए। अह्नाम् = दिनों का सुदिनत्वम् = अच्छापन, अच्छा होना धारण कराओ। जीवन की निर्दिष्ट बातें अच्छी तरह से प्राप्त हों।

प्रसंग- प्रत्येक व्यक्ति का सदा यह प्रयास रहता है कि वह हर प्रकार से पूर्ण हो। कभी कहीं से उसकी कमी न निकले। क्योंकि कमी निकलने पर वह उसे काँटे की तरह चुभती है, कलपाती रहती है। अतः सबकी यह दृढ़ इच्छा होती है कि वह हर तरह से पूर्ण हो। वह पूर्णता कैसे आती है, इसकी प्रक्रिया बताते हुए मन्त्र सन्देश देता है कि इसके लिए हमें सजग होना होगा। इसके लिए यथावसर प्रयास करना होगा। क्योंकि प्रयत्न के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता। तभी तो कहा है-
पुरुषार्थ ही इस दुनिया में सब कामना पूरी करता है।
मन चाहा सुख उसने पाया जो आलसी बनके पड़ा न रहा॥

सफल व्यक्तियों का जीव भी यही कह रहा है कि सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़कर के ही उन्होंने सफलता प्राप्त की है। इस पूर्णता की प्राप्ति का क्रम स्पष्ट करते हुए कहा गया है- इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि।
इन्द्र शब्द ऐश्‍वर्यशाली और राजा के लिए आता है। ये दोनों गुण सबसे अधिक परमात्मा में हैं। ईश्‍वर से ऐश्‍वर्य शब्द बनता है। ईश्‍वर शब्द मालिक, स्वामी अर्थ में है। प्रतिदिन के जीवन मेें बरती जाने वाली चीजों का कोई न कोई मालिक अवश्य होता है। ऐसे ही इस संसार के प्राकृतिक पदार्थों का जो अनेक प्रकार से स्वामी है, उसका इन्द्र शब्द से पुकारते हुए मन्त्र में कहा गया है कि हे सबके स्वामी! श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि = आप हमें श्रेष्ठ (= आज के शब्दों में सफेद) धन, जो यशयुक्त, जो कि चोरी या धोखे से न आया हो अर्थात् अच्छी कमाई वाला हो, वही धारण कराओ। हम अपने परिश्रम, कारोबार से श्रेष्ठ धन ही कमाएँ। निन्दित, बदनाम धन हमारे पास किसी भी रूप में न आए। द्रविण = धन, जिसके माध्यम से जीवन में गति होती है तथा जरुरतों की पूर्ति होती है। जैसे कि आजकल आवश्यकता की हर वस्तु खरीदने-बेचने का मापदण्ड रुपये में धन है। ऐसे धन, द्रविण का विशेषण ही मन्त्र में श्रेष्ठ है अर्थात् जो हर प्रकार से प्रशंसित, अच्छा हो। किसी भी प्रकार से बदनाम न हो, हर तरह के भ्रष्टाचार से मुक्त हो, किसी का बुरा करने वाला न हो। ऐसे धन को ही हम कमाएँ तथा अपने पास रखें। हम ऐसे धन के ही स्वामी हों।
इस मन्त्र का अगला अंश है- चित्तिं दक्षस्य (धेहि)। दक्ष शब्द आपस की बोलचाल भी भाषा में योग्य, निपुण, होशियार के अर्थ में बोला जाता है। जो किसी कार्य, खेल, विषय में निपुण, सफल होता है, उसको दक्ष कहते हैं। यह निपुणता, सफलता, दक्षता, किसी व्यक्ति में समझ से आती है। अतः मन्त्र के इस अंश में दक्षता की चित्ति= समझ, सोच, ज्ञान के अर्थ में है। अर्थात किसी कार्य, क्षेत्र के विषय में कोई कैसे सफल, योग्य, निपुण, होशियार होता है इसकी समझ, सोच, ज्ञान होना। अतः प्रथम सफलता का ज्ञान होना चाहिए और फिर उस ज्ञान, समझ के अनुसार सफलता प्राप्त करने के लिए संकल्प, दृढ इच्छा के साथ जुट जाना चाहिए।

सफल व्यक्तियों की कहानी भी यही कहती है कि वे अपने-अपने क्षेत्र में तभी सफल हुए, जब उन्होंने अपने आपको उस-उस दृष्टि से याग्य बनाया। प्रत्येक क्षेत्र में क्रमशः कार्य की योजना को अपनाने से ही योग्यता आती है। जैसे कि एक विद्यार्थी तभी सफल होता है, जब वह योजनाबद्ध ढंग से पढने का प्रयास करता है। जैसे-जैसे वह पढने का अभ्यास करता है, वैसे-वैसे उसकी योग्यता बढती जाती है।
सुभगत्वमस्मे- मन्त्र के तीसरे अंश में इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि हममें सुभत्वम् = सौभाग्यपना स्थापित कीजिए। सुभगत्वम् में सु उपसर्ग है, भग (भाग्य) मध्य में प्रतिपादिक है और अन्त में त्व प्रत्यय जुड़ा है। संस्कृत साहित्य में छः वस्तुओं के लिए भग शब्द प्रयक्त होता है-
ऐश्‍वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञान वैराग्ययोश्‍चैव षण्णां भग इतीरणाः॥ वाघूल श्रौतसूत्र 5.41॥

हर प्रकार का संसारी ऐश्‍वर्य, धर्म, यश, शोभा, धन, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य रूपी सम्पत्ति ये सब भग शब्द से पुकारे जाने वाले पदार्थ हैं। इन सब या इनमें अधिक से अधिक या दो अथवा एक से युक्त के लिए भगवान शब्द का प्रयोग होता है। भाग्यशाली शब्द भी यह सिद्ध करता है कि किसी प्रकार की सम्पत्ति से भरपूर को भाग्यवान, भाग्यशाली कहा जाता है। परिवार की परम्परा में सन्तानका विशेष स्थान है। अतः सन्तान वाली महिला या माता भी सौभाग्यवती कहलाती है। अर्थात् उसने याग्य सन्तान से अपने मातृत्व को चरितार्थ किया है।

मन्त्र का चतुर्थ वाक्य है- पोषं रयीणाम् = धनों की पोषम् = पुष्टि हे इन्द्र ! हममें धारण कीजिए। धन-ऐश्‍वर्यों की पुष्टि, संरक्षण, सुरक्षा, सदुपयोग भी हमें प्राप्त हो। धन की कमाई जहाँ महत्व रखती है, वहाँ इसके साथ धन की सम्भाल उससे भी अधिक विशेष स्थान रखती है। सम्भाल के बिना सारा कमाया, अर्जित अनेक बार निरर्थक हो जाता है। कमाये हुए धन का विनिवेश, सदुपयोग अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सूत्र है। अन्यथा पुष्टि (संरक्षण) के बिना आगे दौड़े पीछे चौड़ वाली उक्ति चरितार्थ हो जाती है।
अर्थशास्त्र के अनुसार जहाँ धन का महत्व है, वहाँ उसका दूसरा सूत्र योग के पश्‍चात क्षेम है। योग शब्द अप्राप्त की प्राप्ति के लिए प्रचलित है, तो क्षेम प्राप्त की सुरक्षा, सम्भाल का सन्देश देता है। इसके साथ उसकी वृद्धि व सदुपयोग भी सिद्धान्त है। धन तो कंजूस के पास भी होता है, पर कोई भी कंजूस नहीं कहलाना चाहता। सामाजिक दृष्टि से कंजूस कोई योगदान नहीं देता। अतः वह निन्दित है। धनी तो और भी हैं, पर सामाजिक योगदान व परोपकार के कारण बिड़ला जैसों का नाम विशेष प्रसिद्ध है।
अगला वाक्यांश है- अरिष्टिं तनूनाम्। अर्थात् शरीरों की स्वस्थता। स्वस्थ शरीर ही अहिंसित, अखण्डित, पूर्ण होता है। क्योंकि वही शरीर से साध्य रूप को साधने में समर्थ होता है। आत्मा शरीर के द्वारा ही अभ्युदय = सांसारिक सफलता और निःश्रेयस = परम कल्याण, मोक्ष को प्राप्त करने में
समर्थ होता है। रोगी व्यक्ति कुछ भी करने में सर्वथा अक्षम रहता है। पहला सुख निरोगी काया कहावत से स्पष्ट होता है कि सभी सुखों का आधार स्वस्थ शरीर है, जो कि एक प्रत्यक्ष बात है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अपेक्षित सन्तुलित आहार, व्यायाम, ब्रह्मचर्य = संयम, निद्रा को पवित्रता तथा प्रसन्नता के साथ अपनाना चाहिए। ऐसी दिनचर्या के पालन से अस्वस्थ भी स्वस्थ, सक्षम बन जाते हैं। इस सूक्ति का यह सन्देश है कि हम ऐसी कोई भी बात न करें, जिससे शरीर हिंसित, खण्डित, रुग्ण हो, अपितु सदा ऐसा व्यवहार करें जिससे शरीर स्वस्थ, सशक्त हो।
स्वाद्मानं वाचः। वाक् (वाणी) बोलने व खाने में सहायक इन्द्रिय है। स्वाद्मानं भोजन के स्वादुपन की ओर संकेत करता है। जैसे कि स्वाद का बोध फिर-फिर चखने से स्पष्ट होता है। अतः अनुभवियों का कथन है कि इतना चबाओं कि रुखा शुष्क भोजन भी पानी बन जाए।

ऐसे ही बोलने से पहले सोचना मूलभूत बात है। किसी को कब, किस प्रसंग में, क्या कहा जाए? प्रतिदिन के जीवन में पग-पग पर इसका परिणाम, लाभ-हानि प्रत्यक्ष होता रहता है। इतिहास में भी उचित-अनुचित बोल के शतशः उदाहरण स्पष्ट रूप में सामने हैं। सामाजिक जीवन की सफलता के लिए विचारपूर्वक बोलना एक मूलभूत गुण है। क्योंकि आपस का साझापन बोलचाल से ही आरम्भ होता है। 

मन्त्र का अन्तिम अंश है- सुनित्वमह्नाम् अर्थात दिनों का अच्छापन। इस सबका एक भाव यह भी है कि इस प्रकार योजनाबद्ध जीने से हमारा दिन सुदिन हो जाता है।
विदेशों में जैसे परस्पर मिलते समय प्रयुक्त होता है कि ॠेेव चेीपळपस, ॠेेव अषींशीपेेप आदि। आज का दिन सफल हो गया, यह हम कई बार कहे हैं। वैसे ज्यादातर अच्छी कमाई का कार्य करने पर भी इसका प्रयोग किया जाता है। अतः इस प्रकार योजनापूर्वक दिनचर्या जीने से दिन सुदिन बन जाते हैं, सफल हो जाते हैं।

इस मन्त्र का एक अन्य संगतिकरण ः जीवन व्यवहार

सन्दर्भ- हमारा जीवन जहाँ साँस लेने, जलादि पीने और जीवन को जीवित रखने वाले आहार रूपी पदार्थों पर निर्भर है, इनके साथ हमारे जीवन में अन्य भी अनेक जरूरतें सामने आती हैं। जैसे-जैसे जरूरतें पूरी होती हैं, वैसे-वैसे हम अपने जीवन को पूर्ण व सुखी मानते हैं। तभी व्यक्ति को सन्तोष होता है या वह अपने आपको सन्तुष्ट अनुभव करता है। ऐसे जीवन के विविध व्यवहारों को सामने रखकर वेद मन्त्र में कहा है- इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि।

उपसंहार- इस प्रकार मन्त्र में अनेक चाहनाएँ हैं। चाहना हमारे दिल का भाव होती है। इससे तथा प्रतिदिन के व्यवहार से यत्र-तत्र स्पष्ट होता है कि केवल सोच या बोलने से ही कार्य सिद्ध नहीं होता है। एक तो कार्य करने वाला हो और साधन-सामग्री उपस्थित हो। जैसे कि रसोई में कोई माता, पत्नी, बहिन, बेटी आदि कार्य करने वाली हो और वहाँ पकाने, बनाने के लिए, अपेक्षित कच्चा माल भी हो, तो ऐसी स्थिति में हमारी सोच-बोल से ही चाहत की चीज प्राप्त हो जाती है।

सांसारिक व्यवहार में सर्वत्र यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्य अपनी प्रक्रिया से ही सिद्ध व सफल होता है। अतः यह एक प्राकृतिक नियम है कि इच्छा की पूर्ति साधनों के सहयोग से तभी होती है, जब साधक (इच्छा वाला) साधना कार्य के अनुरूप परिश्रम करता है। ठीक इसी प्रकार मन्त्र में निर्दिष्ट प्रार्थना की शैली में की गई चाहनाएँ भी अपना-अपना यह स्वारस्य, संकेत प्रकट कर रही हैं कि यदि हम ऐसी सिद्धि चाहते हैं तो अपने श्रद्धा भरे संकल्प को साकार करने के लिए दृढ इच्छा के साथ यथाविधि पुरुषार्थ करें। अतः पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो! (वेद मंथ)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | वेद कथा - 86 | घर में कैसे रहें | चाणक्य नीति | संत कबीर के विचार