ओ3म संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथापूर्वे संजनाना उपासते॥ ऋग्वेद 10.91.2॥
विशेष - मन्त्र की दूसरी पंक्ति में यथा का प्रयोग है। अतः भाषा के सामन्य नियम के अनुरूप तथा की अपेक्षा हो जाती है। तभी सन्दर्भ, बात, भाव की पूर्ति हो सकती है।
शब्दार्थ- यथा = जैसे पूर्वे = हमसे पूर्ववर्ती देवाः = दिव्य पुरुष जानानाः = प्रकरणगत सचाई को समझते हुए भागम् = अपने हिस्से के कर्तव्य कर्म को सम् = अच्छी प्रकार, यथोचित, एकरूपता से उपासते = करते हैं, निभाते हैं। तथा = वैसे ही संगच्छध्वम् = तुम भी मिलकर चलो, सामाजिक जीवन जीओ, संवदध्वम् = सामाजिक भावना से प्रसंगानुरूप बोलो। इसके लिए वः = तुम्हारे, तुम जानताम् = ज्ञानवालों, ज्ञानियों, समझदारों के मनांसि = मन सम् = अपेक्षा के अनुसार (सन्तु, भवन्तु) सहमत, तैयार हों।
व्याख्या - हमारे जीवन में कुछ बातों की अनिवार्यता इतनी आवश्यक होती है कि जो हटाए नहीं हटती। रह-रहकर उनकी अनिवार्यता सामने आती है। इन्हीं में एक विशेष स्थान हमारे पूर्वजों का है। अतः मन्त्र का पूर्वे शब्द पूर्वज का बोधक है। पूर्वज शब्द का अर्थ है = पूर्व + ज। अर्थात हमसे जो पहले पैदा हुआ हो, जैसे कि हमारे माता-पिता। यह एक प्राकृतिक नियम है कि आज उत्पन्न होने वाला प्रत्येक मनुष्य प्रकृति की प्रक्रिया के अनुसार अपने माता-पिता के माध्यम से ही संसार में आता है। यह आना कोई सरल-सहज घटना नहीं है। हर बच्चे वाला एक लम्बा अनुभव रखता है कि किसी शिशु का बालक-किशोर-युवा होना एक लम्बी-चौड़ी संघर्ष भरी साधना का परिणाम है। सभी के पालन-शिक्षण-योग्यता में पल-पल का योगदान होता है।
इसीलिए मनुस्मृति (2.227) में कहा गया है कि बच्चों के पालन-पोषण-वर्धन के लिए माता-पिता जो परिश्रम-योगदान-संघर्ष करते हैं, उसका बदला सन्तान सैकड़ों सालों में भी नहीं चुका सकती है। हाँ, हमारी परम्परा में पितृयज्ञ के द्वारा इसको समझाने और इस ऋण को कुछ हल्का करने का एक सन्देश दिया जाता है। पंचमहायज्ञों में से पितृयज्ञ तीसरा है, जिसको प्रतिदिन करने का विधान है। (मनुस्मृति 3.82)
हमारा होना, जीना पूर्वजों के परिश्रम का प्रत्यक्ष प्रमाण है। हम अपने-अपने परिवार का अंग हैं। परिवार समाज की ईकाई है। अर्थात् परिवारों के मेल से ही समाज सामने आता है। अतः पूर्वज अपने परिवार की परम्परा को आगे बढाकर समाज की ही सेवा करते हैं। उनकी यह समाज सेवा ही पूर्वजों के परिश्रम की पहचान है।
देवाः। इस मन्त्र में पूर्वे देवाः से जुड़ा हुआ है। पूर्वे पूर्वज अर्थ में लेने पर तैतिरीय (1.11) उपनिषद के मातृदेवो भव, पितृदेवा भव, आचार्य देवा भव आदि के आधार पर तब यहाँ देव शब्द से माता-पिता का ग्रहण करना स्वाभाविक हो जाता है।
वेद में देव शब्द अधिकतर अग्नि, इन्द्र आदि देवता पदों से संयुक्त, सम्बन्धित करके जहाँ आया हे, वहाँ स्वतन्त्र रूप में भी है। इस दृष्टि से यजुर्वेद (14.20) का अग्निर्देवता --- मन्त्र प्रसिद्ध है। ऐसे ही देव शब्द अनेकत्र चेतन, जड़ दोनों के लिए आया है। देव शब्द दिवु धातु से बनता है, जो कि क्रीड़ा, विजिगीषा आदि अर्थों में है। निरुक्त (7.15) का देवो दानाद् वा द्योतनाद् वा द्युस्थानों भवतीति वा वचन पर्याप्त प्रचलित है। इससे किसी प्रकार के दान, प्रकाश करने वाले का भाव सामने आता है। हाँ, विद्वांसो हि देवाः (शतपथ 3.7.6.10) बहुत्र अपनी सार्थकता दर्शाता है। अतः इस विवेचन से स्वतः सिद्ध होता है कि प्रकरण के अनुरूप ही देव शब्द का अर्थ लेना चाहिए।
ऐसे दिव्य महानुभाव अपने अवसर पर किसी भी रूप में स्वीकृत कार्य, संगठन में जानानाः = स्व गुरु, शास्त्र अनुभव से प्रेरणा, उत्साह, समझ प्राप्त करके भागम् = स्व कर्तव्य कर्म का यथा = जिस प्रकार सम् = अच्छी प्रकार अपेक्षा के अनुरूप उपासते = करते हैं, वैसे ही तुम भी सामाजिक जीवन जियो। इन मन्त्र में सम् उपसर्ग चार बार है। दो बार गम् और वद् धातु से बने क्रियापदों के साथ संयुक्त रूप से है। तीसरी बार उपासते के साथ व्यवधान पूर्वक (किसी शब्द को बीच में लेना) है और चौथी बार स्वतन्त्र है। उसके साथ कोई क्रियापद नहीं है। इस कमी की पूर्ति के लिए क्रिया को ऊपर से अध्याहार द्वारा लाया जाता है। प्रेरणा विशेष देने लिए यहाँ सम् उपसर्ग है। जैसे कि मन्त्र में आया सम् (सं) उपसर्ग गीत के साथ संयुक्त होकर संगीत का स्मरण कराता है। ’गीत’ शब्द ध्वनि के भाव को उजागर करता है और ’संगीत’ शब्द तथा वाद्ययन्त्रों के पारस्परिक तालमेल का स्मरण कराता है। हाँ, सामूहिक गीत-संगीत में सभी की एकरूपता भी मन्त्रगत सम् उपसर्ग के भाव को स्पष्ट करती है। अतः सम् = संगठन, एकरूपता, अच्छी प्रकार के अर्थ में है।
’उपासते’ क्रियापद ’उप’ उपसर्गयुक्त ’आस’ धातु से बना है, जैसे उपासना शब्द बनता है। उपासना का मुख्य भाव है- जीव का ईश्वर से जुड़ना। अतः जो जिन-जिनको पूर्वज मानता है, उसके अनुसार परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व से जुड़ने की बात सामने आ जाती है। जैसे कि श्रीराम, श्रीकृष्ण को पूर्वज मानने पर इन्सान का इन्सान से भाईचारा होगा। तब यही भाईचारा था। संगच्छध्वम् = मिलकर चलो। जीवन के हर क्षेत्र में कदम से कदम मिलाकर चलो। संगठन भाव से सामाजिक जीवन का हर कार्य, व्यवहार करो। संवदध्वम् = संवाद-विवाद शब्द अलग-अलग अर्थ रखते हैं। जब किसी एक विषय पर क्रमशः सहमति, सहानुभूति, मैत्री की भावना से विचार-विमर्शपूर्वक बोलते हैं, चर्चा करते हैं, तब वह संवाद होता है। विवाद = लड़ने-झगड़ने के अर्थ में चलता है। इसका सीधा अर्थ है- अकड़ व अभिमानपूर्वक बोलना। तब संवाद का अर्थ होगा नम्रभाव से बोलना अर्थात प्रेम से भरकर हितभावना से बोलना। मनांसि का अर्थ मन का सम विचारों से युक्त होना है।
विशेष सन्देश- तैत्तिरीय उपनिषद का प्रथम भाग शिक्षावल्ली है, जिसमें पाठ्यक्रम शिष्य-शिक्षक सम्बन्ध, लक्ष्य आदि की चर्चा है। यहीं दीक्षान्त के रूप में- सत्यं वद, धर्मं चर जैसे जीवन व्यवहार के जरूरी सन्देश हैं। वहाँ एषः आदेशः एषः उपदेशः एतद् अनुशासनम् (1.11) कहा गया है। अर्थात् यही जीवन का निचोड़ है। ये बातें अनिवार्य तत्व हैं। ठीक ऐसे ही यह मन्त्र ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त का दूसरा है। अतः पूर्व विधानों को अपेक्षा के अनुरूप वर्तने, जीने का यहाँ सन्देश है। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा -16 | दुःख की निवृति एवं सुख प्राप्ति के वैदिक उपाय | Explanation of Vedas | Vedas in Hindi