ओ3म् मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी॥ ऋग्वेद 10.117.6॥
शब्दार्थ- अप्रचेताः= नासमझ, दूर की, लम्बी सोच न रखने वाला अन्नम्= खाने आदि की वस्तु को अर्थात् बर्ताव की हर चीज को मोघम्=निरर्थक, अनर्थक, बिना लाभ के विन्दते= प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, वस्तुतः सः= वह प्राप्ति तस्य= उस प्राप्तिकर्ता का वधः= नाश, हानि, इत्=ही है। यह बात सत्यम्=पूर्णतः सत्य, सन्देहरहित है, मैं यह ब्रवीमि= विश्वासपूर्वक कहता हूँ। यह स्थिति कब आती है, होती है, जब सः= वहे अर्यमणम्= न्याय, सत्य सही बात का समर्थन करने वालों को, पक्ष लेने वालों को न पुष्यति= पुष्ट नहीं करता, उसका सहयोग-सम्मान नहीं करता और अपना सखायम्= साथ देने वाले अड़ोसी-पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार को भी कम से कम सहयोग के अनुरूप भी न पुष्यति= नहीं देता, उनके साथ बाँटकर नहीं खाता। अतः ऐसा व्यक्ति दूसरों के सहयोग से उपार्जित, प्राप्त वस्तु को भी जब केवल+आदी=अकेला खाता है, तब वह केवल+अघः= अपने आप ही अकेला पानी, पापयुक्त, दोषी, अपराधी भवति= हो जाता है।
विशेष- मन्त्र के प्रत्येक शब्द तथा चरण की क्रमशः व्याख्या से पूर्व मन्त्र के समग्र भाव को सामने रखना आवश्यक है। क्योंकि मन्त्र के चर्तुथ चरण में मन्त्र का निष्कर्ष है। इस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सामाजिक व्यवस्था की मूलभावना को प्रथम सामने लाना चाहिए।
पृष्ठभूमि- मनुष्य एक विचारशील सामाजिक प्राणी है। अतः उसका जन्म समाज की प्रथम ईकाई परिवार पर निर्भर है। व्यक्ति का जीवन रिश्तेदारों, मित्रों, सहकर्मियों के सहयोग से चलता है। व्यक्ति के स्वावलम्बी होने तक उसका जीवन निर्वाह अनेक रूपों में दूसरों के सहयोग से सम्पनन होता है। अतः स्वावलम्बी बन जाने पर थोड़े या अधिक परिश्रम से वह जो कुछ प्राप्त करता है, उस प्राप्ति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अनेकों का अनुदान (सहयोग) रहता है। जैसे कि किसी उद्योग (कारखाने) में उसके स्वामी को कारीगरों, मजदूरों के प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान से ही प्रत्येक उत्पाद प्राप्त होता है। अतः इस प्राप्ति, लाभ, उत्पाद में कुछ न कुछ मात्रा में सभी भागीदार हैं। पुनरपि यदि कोई उस लाभ को अकेला ही खाता है, बर्ताव में लाता है, तो लाभ में दूसरे भागीदारों को लाभांश न देने से वह सहयोगियों का ऋणी= कर्जदार हो जाता है। वह यदि उनका कर्ज नहीं लौटाता तो उनके ऋण से उऋण न होने के कारण पाप-दोष-अपराध करता है। इसीलिए कहा गया है कि सहयोग लेकर भी केवल+आदी= अकेला खाने वाला केवल+अघः= केवल पापयुक्त, पापी, दोषी, अपराधी भवति= होता है।
व्याख्या- अप्रचेताः= न+प्रचेता=अप्रचेता= जो प्रचेता नहीं है, वही अप्रचेता कहलाता है। प्रः= प्रकृष्ट, अच्छा, उचित, गहरा= दूर का, लम्बा, चेता= सोचने, समझने वाला, जैसे कि सचेत शब्द प्रसिद्ध है- चिति संज्ञाने। अतः सोच, समझ न रखने वाला ही अप्रचेताः= नासमझ है।
समाज से अनेक प्रकार के सहयोग प्राप्त करके भी सहयोग के लिए अन्यों का आभार स्वीकार नहीं करता है, अतः वह नासमझ है। ऐसा व्यक्ति- मोघम् अन्नं विन्दते। क्योंकि जो भी लाभ के रूप में किसी वस्तु को प्राप्त करता है, वह केवल उसी की ही मेहनत का फल नहीं है। उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दूसरों का भी योगदान हो सकता है। ऐसी स्थिति में पुनरपि वह अन्यों के सहयोग को स्वीकारनहीं करता है और वह किसी अंश में भी प्राप्त पदार्थ को दूसरों में बाँटे बिना अकेला उपभोग में लाता है, तो उस उपभोग्य पदार्थ की प्राप्ति उसके लिए निरर्थक, अनर्थक=घाटे की वस्तु हो जाती है।
यहाँ मन्त्र में अन्न आदी शब्द उपलक्षण, उदाहरण मात्र हैं। इस दृष्टि से अन्न का पर्याय आहार बहुत व्यापक अर्थ दर्शा सकता है। इसका व्यापक अर्थ आह्नियते यः स आहारः। अर्थात जीवन निर्वाह के लिए जो कुछ भी ग्रहण किया जाता है, वह सब आहार या अन्न है। अतः भोजन के साथ वस्त्र-बिस्तर-बर्तन-भवन-शिक्षा-चिकित्सा-सन्देश-संचार-वाहन आदि के साधन-भूत जो भी पदार्थ जीवन में ग्रहण किए जाते हैं, वे सब आहार शब्द के वाच्य हो जाते हैं।
सत्यं ब्रवीमि वध इत्। लाभ के रूप में प्राप्त पदार्थ के बाँटने, कुछ अंश में दान देने से वह पुण्य प्राप्त कर सकता था। परन्तु उसने पुण्य प्राप्ति का अवसर हाथ से निकाल दिया। इस प्रकार उसने अपने हानि कर ली। पुण्य सेवंचित रहकर अपना नाश कर लिया। यह तथ्य सर्वदा-सर्वथा सत्य है। यह सन्देहरहित बात है कि लाभ के रूप में प्राप्त वह वस्तु अपने उपार्जन में अन्यों के परिश्रम का भी अंश रखती है। अतः अपने भागीदारों का वह ऋणग्रस्त बन जाता है। ऋणी जब तक दूसरों के ऋण से अनृण नहीं होता, तब तक वह कर्जदार अधमर्ण कहलाता है अर्थात वह आधे मरे (अधमरे) जैसा हो जाता है। प्राप्त पदार्थ दान में देने, बाँटने से ही ऋण उतरता है। ऐसा जब तक वह नहीं करता, तब तक ऋणग्रस्त घाटे में ही रहता है। वह कर्ज से दबा ही रहता है। कर्जदार होना घाटे की ही बात है। लाभ की बात वह कभी नहीं होती। अतः मन्त्र के इस चरण का यही सन्देश है कि सामाजिक सहयोग से प्राप्त लाभ को प्राप्तकर्ता यदि अकेले ही उपभोग में लाता है, तो वह वस्तु उपभोक्ता के लिए हानि व नाश का ही कारण बनती है। यह तथ्य सर्वदा-सर्वथा सन्देह रहित है, पूर्ण सत्य है।
नार्यमणं पुष्यति। आज जो समाज की व्यवस्था चल रही है, उसमें परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में अनेकों का योगदान रहता है। अनेक महानुभाव अनेक अवसरों पर न्याय-सत्य-उचित-सही का समर्थन करके समाज में सभी के ससम्मान जीवन का अधिकार दिलाते हैं या उचित का समर्थन करते हैं। समाज की इस सहयोग भावना का आभार स्वीकार करना चाहिए। जहाँ-कहीं किसी के लिए समर्थन देने का अवसर आए, तब स्पष्ट आवाज उठानी चाहिए, जिससे दूसरों का हक हड़पने वालों का साहस, धक्केशाही कमजोर हो। सभी का हक, पक्ष प्रबल से प्रबल हो।
न सखायम्। समान ख्यान = समान स्थिति, समाज में एक समान जीने का हक, अधिकार, अवसर जिनका है वे सब सम्बन्धी, मित्र, अड़ोसी-पड़ोसी, साथ-साथ कार्य करने वाले (= सहकर्मी) सखायः में आ जाते हैं। अतः इन सबको परस्पर आवश्यकता के अनुसार सहयोग देना-लेना चाहिए। यह सेवा भावना एकतरफा न हो। यह व्यवहार दोनों ओर से चलता रहना चाहिए। तभी समाज की व्यवस्थाएँ ठीक चलती हैं।
इस मन्त्र की मूल भावना यही है कि हमें सामाजिक जीवन में केवलादी = अकेले खाने से बचना चाहिए तथा समाज सेवार्थ सदा तत्पर रहना चाहिए। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 9 | मानव निर्माण के सूत्र | introduction to vedas | Ved Katha Pravachan | Dr. Sanjay Dev