ओ3म् सः पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ यजुर्वेद 40.8॥
विशेष विचारणीय- विशेषण रूप में आए सारे शब्द विशेष्य के अनुरूप एक ही लिङ्ग में होते हैं। इस मन्त्र में शुक्रम्, अकायम् आदि नपुंसकलिङ्ग जैसे हैं और कविः आदि पुल्लिङ्ग रूप में हैं। अतः प्रायः व्यत्यय मानकर सः के आधार पर शुक्रम् आदि को पुल्लिङ्ग किया जाता है। तब अर्थ होगा- शुक्र, अकाय आदि स्वरूप गुण वाला। इस मन्त्र में दो क्रियापद हैं- पर्यगात्, व्यदधात्। पहली क्रिया पर्यगात् के साथ शुक्रम्, अकायम् आदि को कर्म मान लिया जाए तो अर्थ होगा- शुक्र, अकाय आदि रूप, गुण को वह पर्यगात् = व्याप्त रहा है। इस प्रकार वाक्यार्थ सरल हो सकता है।
शब्दार्थ- सः = वह सर्व प्रसिद्ध, शुक्रम् = तेजस्वी सर्वशक्तिमान रूप को अकायम् = शरीररहित रूप को अव्रणम् = व्रण - घावरहित स्वरूप को अस्नाविरम् = स्नायु = नस, नाड़ी के बन्धन से रहित रूप को शुद्धम् = हर प्रकार से शुद्ध गुण को अपापविद्धम् = पाप से किसी प्रकार भी न जुड़े हुए स्वरूप को पर्यगात् = व्याप्त हो रहा है, प्राप्त कर रहा है। ऐसा वह कविः = क्रान्तदर्शी, दूर की जानने वाला, सर्वज्ञ, कविवत् वेदकाव्य का कर्ता मनीषी = मननशील, मन-मनन का स्वामी परिभूः = सभी को अपने नियन्त्रण में रखने वाला स्वयम्भूः = स्वयं सिद्ध सत्ता वाला अर्थात् नित्य गुण वाला शाश्वतीभ्यः = नित्यस्वरूप वाली, समाभ्यः = प्रजाओं के लिए याथातथ्यतः = जैसा चाहिए वैसा, जिसके जैसे कर्म वैसा (तदनुरूप) अर्थान् = पदार्थों को, वेद के शब्दों और अर्थों को व्यदधात् = व्यवस्थित करता है, रचता है।
व्याख्या- इस मन्त्र में सः के पश्चात् प्रारम्भ में ही पर्यगात् क्रिया है। इसका भाव है कि ईश्वर का व्यापक होना, कण-कण में समाया होना सबसे मुख्य बात है। ईश्वर के सर्वव्यापक होने से ही अन्य गुणों की उपस्थिति है। सर्वव्यापक एक ही होता है। अतः सर्वत्र एकवचन का प्रयोग है। सर्वव्यापक ही सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान आदि गुण वाला होता है। वह सर्वव्यापक है, अतः अज, अजन्मा, अकाय आदि स्वरूप वाला है। अतएव प्रभु की सर्वत्र समान व्यवस्था वाली रचना है।
शुक्रम् - प्रभु के स्वरूप की प्रथम विशिष्टता है कि वह सर्वव्यापक शुक्र = तेजस्वी, सर्वशक्तिमान, शीघ्रकारी है। प्रभु का तेज सर्वातिशायी है। सभी तेज वाले पदार्थ उसके तेज से ही तेजस्वी हैं। प्रभु सर्वव्यापक होने से सर्वशक्तिमान है अर्थात् उसको अपने कार्य करने के लिए दूसरों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती।
अकायम्- वह सर्वव्यापक अकाय है। क्योंकि एकदेशी का ही शरीर होता है। अतः सर्वव्यापक की किसी प्रकार की काया नहीं होती है। स्थूल, सूक्ष्म कारण के रूप में तीन प्रकार के शरीर विशेष प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक स्थूल देह में पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश नाम वाले पाँच भूतों से बना जहाँ बाह्य आकार होता है, वहाँ इन्द्रियों तथा अन्तःकरण की शक्ति वाला सूक्ष्म, कारण देह भी होता है।
अव्रणम्- शरीर न होने से शरीर में होने वाले किसी प्रकार के घाव या रोग प्रभु में नहीं हैं। ऐसे ही जीवन को जीवित रखने के लिए ही शरीर में नस-नाड़ियों का जाल है, जिससे रस-रक्त आदि का प्रवाह चलता है। जब ईश्वर का शरीर ही नहीं है तो शरीर को जीवित रहने के लिए अपेक्षित नस-नाड़ियों का जाल भी प्रभु में नहीं है। इसीलिए मन्त्र में कहा गया है कि वह प्रभु अस्नाविर है।
शुद्धम्- वह प्रभु सर्वथा-सर्वदा पवित्रता, शुचिता युक्त है। अशुद्धि अधिकतर शरीर के कारण अन्तः-बाह्य रूप में होती है। अपवित्रता का एक कारण स्वार्थ, लोभ आदि दोष होते हैं। परमात्मा सर्वज्ञ एवं पूर्णकाम है। अतः उसमें अज्ञानताजन्य और असामर्थ्यवश होने वाली अन्दर-बाहर की मलिनताएँ सम्पृक्त नहीं हैं । अतः वह सर्वथा-सदा शुद्ध, शुचि, पवित्र है।
अपापविद्धम्- व्यक्ति लोभ, स्वार्थ, किसी प्रकार की कमी, अज्ञानता या विवशता से पाप, अपराध करता है। परमेश्वर प्रत्येक प्रकार से पूर्ण है तथा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। अतः उसमें किसी भी ढंग से पाप की सम्भावना नहीं उभरती। तभी तो कहा है- न कुतश्चनोनः (अर्थववेद 10.8.44) अर्थात् उसमें कभी, कहीं, कैसी भी किसी प्रकार की भी कभी नहीं है। ऐसे अपने अनोखे स्वरूप के साथ ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हो रहा है।
मन्त्र में दूसरी क्रिया है- व्यदधात्। वह सदा रहने वाली प्रजाओं के लिए जीवन यापनार्थ अपेक्षित पदार्थों की व्यवस्था करता है, जिससे वे भोग या अपवर्ग साध सकें। इस व्यवस्था के व्यवस्थापक में विशेष योग्यता होनी चाहिए। अतएव मन्त्र परमात्मा का अपेक्षित परिचय देते हुए कहता है कि सः कविः- वह व्यवस्थापक क्रान्तदर्शी, दूरदर्शी, पूर्णज्ञानी, सर्वज्ञ है। यह संसार प्रभु का एक काव्य है। काव्य की तरह यह संसाररूपी काव्य विविध व्यवस्थाओं से व्यवस्थित है। इसीलिए वेद कहता है- देवस्य पश्य काव्यम् । (ऋग्वेद 10.55.5) इसके साथ ही परमात्मा मानवों को जीवन जीने की कला सिखाने के लिए वेद रूपी काव्य का भी कर्ता है। जैसे एक कवि किसी काव्य का कर्ता होता है।
मनीषी- प्रभु का प्रत्येक कार्य और ज्ञान मनन-विचारयुक्त होता है। वह मन का स्वामी है। अतः उसकी प्रत्येक भौतिक पदार्थ रूपी व्यवस्था तथा प्रशासन की मूल बात कर्मफल व्यवस्था पूरी तरह से मननपूर्वक है। जिसके जैसे कर्म हैं, उसको स्वकर्मों के अनुरूप वह-वह शरीर एवं तदनुरूप भोग्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। इन्हीं दोनों के कारण ही भोक्ता कर्म भोग करने में सक्षम होता है। संसार के पदार्थों की दृष्टि से याथतथ्यतः का अर्थ होगा कि सृष्टि कार्य की दिशा से जो पदार्थ जैसा चाहिए, वह वैसा ही स्रष्टा ने सृजा है।
अर्थान्- मन्त्र में अर्थान् शब्द जहाँ सूर्य, जल, वायु जैसे भौतिक पदार्थों का वाचक है, वहाँ यह शब्द और उससे सम्बद्ध अर्थ का भी वाचक है। अतः यहाँ यह शब्द तथा अर्थ को बताने वाले वेद का भी संकेत करता है। मानव जाति मननशील है। अतः उसका सारा जीवन व्यवहार, क्रियाकलाप ज्ञान द्वारा ही होता है। मानव जाति में पशु-पक्षियों की तरह स्वाभाविक ज्ञान नहीं है।
मानव का ज्ञान नैमित्तिक है। अतः आदिगुरु सर्वज्ञ प्रभु मानव जीवन के निर्वाहार्थ, विकासार्थ ज्ञान देने का अदि निमित्त बनता है। वह ज्ञान वेद ही है। जैसे मनुष्य की आँखे प्रकाश से ही स्वीकार्य करने में समर्थ होती हैं, ऐसे ही मनुष्य के बुद्धि रूपी आन्तरिक नेत्र भी ज्ञान के द्वारा ही जीवन व्यवहार को साधने में सफल होते हैं। जैसे आजकल हर यन्त्र का प्रयोग उसके प्रयोग बोध से ही होता है, ऐसे ही प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित प्रयोग पदार्थ विज्ञान से ही मनुष्य को प्राप्त होता है। ईश्वरीय ज्ञान वेद जीवन विज्ञान तथा पदार्थ विज्ञान से सम्पन्न है।
वेद सूर्य आदि के समान सर्ग के समारम्भ में आया है। अतः वेद स्वयं को प्रथमज कहता है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेद प्राचीनतम स्वीकारे जाते हैं।
ओ3म् अकामो धीरो अमृतः स्वयम्भू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः।
तमेव विद्वान न बिभाय मृत्योरात्मानं धीररमजरं युवानम्॥ अथर्ववेद 10.8.44॥
शब्दार्थ- अकामः = कामनारहित, धीरः = धैर्यशील, बुद्धिवाला अमृतः = सदा विद्यमान, निर्विकार स्वयम्भूः = स्वयंसिद्ध रसेन तृप्तः = आनन्द से भरपूर न कुतः चन+ऊनः = किसी प्रकार से भी न्यून नहीं, तम् = उस सर्वप्रसिद्ध पूर्व वर्णित आत्मानम् = आत्मस्वरूप वाले धीरम्= धैर्यवान् विवेकसम्पन्न अजरम् = किसी भी प्रकार से जीर्ण न होने वाले को एव= ही, निश्चयपूर्वक विद्वान् = जानने वाला मृत्योः = मृत्यु से न ब्भिाय = नहीं डरता।
व्याख्या- अकामः = न+कामः = अकामः अर्थात् कामनारहित। कामः = इच्छा, भौतिक शरीरधारी को ही इच्छा होती है। जैसे कि हम प्रतिदिन के जीवन में देखते हैं कि शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए एक के पश्चात एक इच्छा उभरती है। कामः मन का भी एक पर्याय है। मन अपूर्णता अनुभव करके एक के बाद एक कामना करता है। परमात्मा सर्वथा अभौतिक है। अतः उसमें कामना की चाहना का अवसर नहीं आता है। दूसरी बात है कि परमेश्वर सर्वथा आप्त काम है। अतः उसमें अपूर्णतावशात् कामना की अपेक्षा उजागर नहीं होती।
धीरः = धैर्यशाली, यह संसार रूपी संरचना प्रभु के धैर्य, सहनशक्ति, न घबराने की भावना को दर्शा रही है। वह स्रष्टा कितने धीरज से एक-एक रचना को रच रहा है। धैर्य सदा धीर (धी=बुद्धि, र=वाले़) को ही होता है। वेद ज्ञान बारम्बार कह रहा है कि सर्वज्ञ प्रभु जैसा कोई ज्ञानी नहीं है। हर ज्ञानी उस प्रभु की प्रेरणा, व्यवस्था, निमित्त से ज्ञानवान बनता है।
अमृतः - न-मृत = अमृत। वही मरता है, जो जन्म लेता है। भौतिक का ही जन्म होता है। प्रभु सर्वथा अभौतिक है। अतः वह अज, अजन्मा, निर्विकार, एकरस, नित्य है। जो कहीें कभी उपस्थित नहीं होता, विद्यमान नहीं रहता, वही वहाँ प्रकट होता हैं। जब प्रभु सर्वदा-सर्वत्र विद्यमान, नित्य, शाश्वत है तो उसके जन्म का प्रश्न ही नहीं आता। जब वह जन्म नहीं लेता तो उसके मरण का अवसर कहाँ से आ सकता है। व्यवहार में जो वस्तु जितने काल तक जितने अंश में टिकी रहती है, उसको उतने अंश में अमृत कहा जाता है। इसका एक अच्छा उदाहरण सोना है। अतः स्वर्ण को भी अमृत कहा जाता है। स्थान और काल की दृष्टि से कोई ऐसा प्रसंग नहीं है, जहाँ जब परमात्मा उपस्थित, विद्यमान, टिका हुआ न हो। और अभौतिक होने से न ही उसमें किसी प्रकार का विकार, परिवर्तन आता है। वह सदा एक रस, नित्य है।
स्वयम्भूः - ईश्वर स्वयंसिद्ध सत्ता है। उसका आदि, कारण, जनक, माता-पिता कोई भी, कहीं नहीं है। अतएव उसको अनादि कहा जाता है।
रसेन तृप्तः - परमात्मा पूर्णतः अभौतिक है। भौतिक ही चाहना से पूर्व प्राप्त के न रहने के कारण अतृप्त होता है, रहता है। प्रभु तो सचिदानन्दस्वरूप है। अतः वह सर्वथा-सर्वदा रस= अपने आनन्द स्वरूप से तृप्त, पूर्ण ही है। इसीलिए मन्त्र में आगे कहा है कि वह न कुतः चन ऊनः- सदा-सर्वत्र-ऊन = न्यूनता से शून्य है। उसमें कभी-कहीं भी, कैसी भी कमी नहीं है। वह तो प्रत्येक प्रकार से समर्थ एवं पूर्ण है।
उस आत्मस्वरूप वाले, धीर, अजर, युवा = शक्ति-सम्पन्न को जानने वाला भी कहीं भी मृत्यु से भयभीत नहीं होता है। इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर भौतिकपन को अनुभव करता है, तब वह घबरा जाता है, धैर्य नहीं रखता और तभी मृत्यु के भय से ग्रस्त होता है। ऐसे ही हम देखते हैं कि जब व्यक्ति को भोजन जीर्ण नहीं होता अर्थात् पचता नहीं, वह व्यक्ति जब विशेष रोगी होता है तो वह मृत्यु से अधिक भय अनुभव करता है। ऐसे ही जब कोई कमजोरी अनुभव करता है तो मृत्यु से विशेष भय अनुभव करता है। अर्थात् आत्मिक भावना, धीरता, आरोग्यता, शक्तिमत्ता अनुभव करने पर व्यक्ति मृत्यु से नहीं डरता है।
आत्मा शब्द परमात्मा के लिए भी प्रयुक्त होता है। वैसे परमात्मा में आत्मा शब्द विद्यमान है। आत्मा शब्द अत सातत्यगमने= सदा गतिशील, क्रियायुक्त रहने में जहाँ आता है, वहाँ सदा-सर्वत्र व्याप्त होने और सदा स्थायी रूप में रहने की दृष्टि से परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है। इसके साथ जीवात्मा में भी आत्मा शब्द समाविष्ट है। अतः जीवार्थ भी आत्मा शब्द प्रयुक्त होता है यतो हि वह शरीर के साथ संयुक्त होकर गतिशील, क्रियायुक्त रहता है। जीव एक के बाद दूसरे देह में क्रियावान बना रहता है। अपनी शक्ति, चेतना से अपनी काया में व्याप्त रहता है। अपने कर्मों के फलों का भोक्ता (अद), कर्मफल को ग्रहण करता है।
धीरम्- धैर्यवान्, ज्ञानवान। ईश्वर तथा जीव दोनों अपने-अपने अनुपात से धीरता और ज्ञान से युक्त हैं।
अजरः - ईश्वर अभौतिक होने से मूलतः अजर है, तो जीवन स्वाभावतः अजर है। पर शरीर से संयुक्त होने के कारण शरीरानुरूप जीर्णता को प्राप्त होता है। ऐसे ही युवा= शक्ति सम्पन्नता की बात है। ईश्वर के एक रस होने से उसमें शक्ति शाश्वत रहती है। पर जीव अपनी साधना से अस्थायी शक्तिवान बनता है।
जो अपने आत्मरूप को समझ लेता है तथा यह अनुभव कर लेता है कि भौतिक वस्तुएँ तो प्राकृतिक रूप से परिवर्तनशील हैं, तब मृत्यु का डर कैसा? हाँ, जन्म के पश्चात मरण नियामक प्रभु का शाश्वत, अपरिहार्य नियम है। तब नियामक के नियम को मानने वाला सहर्ष नियम को समझता है और बिना घबराए अंगीकार करता है। जब जीवन और शरीर को खूब घूमा लिया, इस अवसर का लाभ उठा लिया, तब देह के जीर्ण होने शरीर का मोह नहीं रहता, मृत्यु का डर नहीं लगता। रुग्ण, अशक्त को टिकाए रखने की चाहना क्यों? इन दोनों मन्त्रों से विशेष रूप से ईश्वर का स्वरूप स्वतः स्पष्ट हो रहा है। इनसे प्रभु के अनेक गुण-कर्म-स्वभाव सामने स्वतः आ जाते हैं। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 8 | Explanation of Vedas in Hindi | Ved Katha | Vedas | मनुष्य सबसे श्रेष्ठ क्यों और कैसे