विशेष :

पारिवारिक-सामाजिक एकता की सफलता

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एक साधारण-सा समझे जाने वाले माली की यही दिली भावना होती है कि मेरा लगाया पौधा हर तरह से आगे से आगे तरक्की करता हुआ फूले-फले। क्योंकि वह भी विचारशील सामाजिक प्राणी है। मनुष्य माता-पिता सर्वथा स्पष्ट रूप से अपनी चेतना चरितार्थ करने वालों में सर्वस्व हैं। अपनों की काया का अंग-अंग अपने शरीर का अंश होता है। इससे भी बढकर अपनों का दिल-दिमाग भी अपने से जुड़ा होता है।

किसी व्यक्ति में जहाँ जीने की भावना स्वाभाविक होती है, वहाँ सन्तान की चाहना भी नैसर्गिक होती है। क्योंकि व्यक्ति सन्तान को अपने परिवार की परम्परा का प्रतिनिधि मानता है। पिता-पुत्र-पौत्र रूप में व्यक्ति अपने आपको अमर समझता है।

परिवार-परम्परा की प्रगति में महिला-पुरुष दोनों का योगदान है। परिवार के विकास में माता-पिता एक-दूसरे के पूरक, सहायक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा, असमर्थ है। अतएव माता-पिता बच्चों को अपना आपा अनुभव करते हुए उनको हर तरह से फूलता-फलता देखना चाहते हैं। क्योंकि इससे उनकी खुशियाँ दुगनी हो जाती हैं। उनकी उपस्थिति में व्यक्ति हर कारोबार दुगने उत्साह से करता है।

इन्हीं सारी भावनाओं, तमन्नाओं को वेद ने सु-सह-असति के शब्दों से अभिव्यक्त किया है। इसका भाव है- साथ-साथ रहना, जीना सु रूप में हो। तभी तो यह गाया गया- जिससे बढे सुख-सम्पदा। इसकी पूरी प्रक्रिया प्रदर्शित करते हुए ऋग्वेद का अन्तिम मन्त्र अच्छी प्रकार से समझाता है। वह वेद मन्त्र है-
ओ3म् समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥ (10.191.4)

शब्दार्थ- वः = तुम्हारा आकूतिः = भाव, निर्णय समानी = एक जैसा (अस्तु) हो, ऐसे ही वः = तुम्हारे हृदयानि = हृदय, दिल, समाना, नि = समान भावना वाले सन्तु = हों वः = तुम्हारा मनः = मन भी समानम् = समान अस्तु = हो यथा = जैसे, जिससे वः = तुम्हारा सह = साथ सु-असति = सु रूप में हो अर्थात सांझापन, यह अभिलषित जीवन अच्छे रूप में हो। जहाँ ऐसा है वहाँ वः = तुम्हारा असति = रहना, जीना, स्थिति सह = साथ-साथ सु असति = अच्छे रूप में होती है।

व्याख्या- यह मन्त्र जहाँ सामाजिक स्थिति, सामञ्जस्य का चित्रण करता है, वहाँ यह मन्त्र पारिवारिकता का भी स्मरण कराता है। क्योंकि सामाजिकता का प्रथम पग परिवार ही होता है। यहाँ भी सामाजिक भावना कार्य करती है।

वः आकूतिः समानी। हे सामाजिक सम्बन्ध को स्वीकार करने वालो! समाज में सामाजिक भावना, जीवन चाहने वालो! एतदर्थ किसी प्रकार का संगठन बनाने वालो! तुम्हारी आकूति = अभिप्राय, निर्णय, निश्‍चय एक जैसा हो। आकूति शब्द अभिप्राय के अर्थ में प्रसिद्ध है। अभिप्राय किसी की इच्छा, सार, परिणाम, निर्णय, तात्कालिक लक्ष्य, उद्देश्य ही होता है। उसकी समानता उस-उस संगठन को सफल,स्थायी, विजयी बनाती है।

वः हृदयानि समाना। इस दूसरे चरण का अर्थ है- तुम्हारे हृदय समान हों। भावनाओं, स्नेह, अपनत्व का जो उद्गम, आधार स्थल है, वह ही हृदय है। उस हृदय की पारस्परिक श्रद्धा, निष्ठा, आस्था एक जैसी हो। हृदय में उभरने वाली प्रसन्नता, साथ-साथ रहने की तड़प, अपनों को और एक-दूसरे को आदर-स्नेह देने से एकांगी, एकतरफा, एक ओर झुकी हुई या केवल एक ओर से पाली जाती हुई न हो! ऐसा होने से संगठन, सांझापन शक्तिशाली होता है।

समानमस्तु वो मनः। यह मन्त्र का तीसरा चरण है, जिसका अर्थ है- तुम्हारा मन भी समान हो। मन भी बुद्धि आदि की तरह अन्तःकरण = अन्दर का साधन है। जो किसी बात, व्यवहार के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प, ऊहापोह, विचार-विमर्श, पक्ष-विपक्ष प्रस्तुत करता है। अर्थात हमारा सोचना-विचारना भी समान हो। इसका निष्कर्ष है कि सांझे जीवन की हर बात में सहमति हो, छिपाव का अभाव हो।

आगे चौथे चरण में मन्त्र कहता है- ऐसी तीनों स्थितियाँ जहाँ जितने अंश में होती हैं, वहाँ यथा= तथा सु+सह-असति = एकरूपता, एक साथ रहना, जीना, समस्थिति, सामाजिक भावना सुरूप में सामने आती है। जहाँ जितने अंश में अपनापन कम होता है या व्यवहार में अन्तर, भेदभाव किया जाता है। अर्थात मन्त्र में निर्दिष्ट बातों के पालन में पूर्णता नहीं आती है, वहाँ साथ-साथ रहना, जीना कठिन होता है।

इस सारे का सारांश यह है कि जहाँ एक-दूसरे को हल्का, झूठा सिद्ध करने या नीचा दिखाने का वाद-विवाद होता है या मेरी ही मानी जाए का हठ चलता है, वहाँ एकता की दृष्टि से विचार नहीं हो सकता है। हाँ, कई बार एक-दूसरे से गलती हो जाती है और गलती प्रायः सबसे हो जाती है। स्वतः या संकेत पर दूसरा सुधरना चाहता है, तो अवसर देना चाहिए। तब अड़ना अच्छा नहीं रहता। जब पहले से पक्षपात, आग्रह की बात की जाती है तो ऐसी स्थिति में परिणाम अच्छे रूप में सामने नहीं आता है।

उपसंहार- यह मन्त्र जिस सूक्त का है उसका देवता- विषय-शीर्षक- संज्ञान है। अर्थात सम् + ज्ञान = एकसा ज्ञान, सांझा ज्ञान, समान सोच, सांझी समझ। इस सूक्त के चारों मन्त्रों में सम्, समान शब्दों का अनेक बार प्रयोग हुआ है। समान (= एक जैसा) के अच्छे उदाहरण प्राकृतिक पदार्थ अर्थात जल वायु आदि हैं, जिनका व्यवहार सबके लिए एक जैसा है। अतः सभी उनसे अनुभव भी एकसा करते हैं। इसके साथ स+मान के आधार पर यह भी कहना चाहिए कि आपस में मन, हृदय से आदर, सत्कार, इज्जत देना।

यह परस्पर सम्बन्ध के अनुरूप योग्यता, आयु की दृष्टि से परस्पर बोलते हुए किसी वस्तु को देते हुए या किसी ढंग से वर्तते हुए प्रकट होनी चाहिए कि आदर दिया जा रहा है। तब कहीं सुख-सम्पदा टिकती है और इसी में संगठन,गृहस्थ की सफलता है। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा -10 | Explanation of Vedas | Ved Pravachan | सुखी मानव जीवन के वैदिक सूत्र एवं सूर्य के गुण