ओ3म् या मा लक्ष्मीः पतयालूरजुष्टाभिचस्कन्द वन्दनेव वृक्षम्।
अन्यत्रास्मत् सवितस्तामितो धाः हिरण्यहस्तो वसु नो रराणः॥ अथर्ववेद 7.115.2॥
ऋषि:- अथर्वाङ्गिराः॥ देवता- सविता॥ छन्दः- त्रिष्टुप्॥
विनय- हे जगदीश्वर ! मेरे पास ऐसी लक्ष्मी पड़ी हुई है जो ‘अजुष्टा’ है, जो सेवित नहीं होती। जो किसी की प्रीतिमय सेवा में नहीं आती, वह किस काम की है? वह लक्ष्मी ‘लक्ष्मी’ नहीं है। वह लक्ष्मी दुराचार बढाने का कारण होती है। ‘अजुष्टा’ लक्ष्मी पतन का भारी प्रलोभन होती है। ऐसा धन बुरे कार्यों में ही बरबाद हुआ करता है और मनुष्य को नीचे गिरा देता है। ऐसी लक्ष्मी को मैं मोह के मारे त्यागता (परहित में देता) भी नहीं हूँ और उस सबका स्वयं उपयोग भी नहीं कर सकता हूँ। इसलिए वह या तो बुरे काम में पतित हो जाती है या यूँ ही सड़कर नष्ट हो जाती है। पर सबसे बुरी बात तो यह है कि यह मेरी ऐसी ‘लक्ष्मी’ मुझे चिमटी हुई हर प्रकार से मुझे ही बरबाद करती है, मेरे जीवन-रस को चूसती है। अतः हे मेरे प्रेरक प्रभो! मुझमें ऐसी हिम्मत दो कि मैं उस लक्ष्मी को- इससे पहले कि वह पतित होने लगे और मुझे विनष्ट करने लगे- कहीं अन्यत्र धारित कर दूँ। किसी अच्छे कार्य में लगा दूँ, उसे अपने पर लादे न रक्खूँ। हे सवितः! तुम ही उस दुर्लक्ष्मी को यहाँ से तो हटा दो। यह ‘लक्ष्मी’ नहीं है, किन्तु वह मेरे लिए विनाशक शापरूप है। वह मुझपर मोह द्वारा चिमटी हुई केवल मेरे जीवन-रस को सुखा रही है। जैसे वन्दना बेल जिस वृक्ष पर लगती है उस वृक्ष को बिल्कुल सुखा देती है, वैसे ही यह अजुष्टा लक्ष्मी मुझे घेरे हुए है, मेरा विनाश कर डालने के लिए मुझे आच्छादित किये हुए है। हे प्रभो! तुम मुझसे इसे छुड़ाओ। मेरे मोह को भङ्ग करके इसे यहाँ से हटाने का मुझे सामर्थ्य दो, नहीं तो यह ‘अजुष्टा’ लक्ष्मी मुझे चूसकर खत्म कर रही है, मेरी उन्नति को रोक रही है, मेरे आत्म-तेज को हरती जा रही है।
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
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हे प्रेरक ! मेरी प्रार्थना है कि आगे से ऐसा धन तो मेरे पास आने ही न पाये। मुझे तुम बेशक थोड़ा-सा धन देना, पर वह धन चमकता हुआ, तेजस्वी, निष्कलंक हो, हिरण्य हो, हितरमण हो। वह धन सर्वांश में उपयोगी हो, उसका एक-एक अंश मेरे तेज, मेरे आत्मबल को बढानेवाला हो। तुम्हारे ‘हिरण्यहस्त’ से ही अब मैं धन चाहता हूँ। तेरे चमकते हुए ‘हिरण्यहस्त’ से अब मुझे सदा ऐसा तेजस्वी धन मिलता रहे, जिसका कि एक-एक कण मेरे आत्मतेज को बढाने में व्यय हो तथा वह अन्यत्र भी जहाँ जाए वहाँ मनुष्यों के तेज के बढाने में ही उपयुक्त हो।
शब्दार्थ- अजुष्टा=असेविता, काम में न आनेवाली, अतएव पतयालूः=दुराचार में गिरनेवाली, मुझे गिरानेवाली या=जो लक्ष्मीः=लक्ष्मी मा=मुझे अभिचस्कन्द=चिमटी हुई है वृक्षं वन्दना इव=जैसेकि सुखा देने वाली वन्दना बेल वृक्ष को चिमट जाती है ताम्=उस ऐसी लक्ष्मी को सवितः=हे प्रेरक परमेश्वर! अस्मत् इतः अन्यत्र=तू हमसे, यहाँ से, जुदा धाः=रख दे, कर दे हिरण्यहस्तः=हिरण्यहस्त से, तेजस्वी चमकते हाथ से तू नः=हमें वसु रराणः=निरन्तर ऐश्वर्य प्रदान कर। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)