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वैदिक राष्ट्र में शासक का चुनाव

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ओ3म् याप सर्पं विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्नग्नयो ये अप्स्वन्तः।
परा दस्यून्ददती देवपीयूनिन्द्रं वृणाना पृथिवी न वृत्रम्।
शक्राय दध्रे वृषभाय वृष्णे॥ अथर्ववेद 12.1.37॥

अर्थ - (या) जो (विमृग्वरी) शुद्ध करने वाली और अन्वेषण करने योग्य तथा अन्वेषण करने वाली (पृथिवी) हमारी मातृभूमि (सर्प) सांप की भांति कुटिल चाल चलने ले पुरुषों से (अप विजमाना) परे रहने वाली है (यस्याम्) जिसमें (अग्नयः) वे अग्नियाँ हैं (ये) जो (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर (आसन्) रहती हैं, जो (देवपीयून्) देव-पुरुषों की हिंसा करने वाले (दस्यून्) दस्यु-पुरुषों को (परा ददती) परे करने वाली है, जो (इन्द्रं) ऐश्‍वर्यशाली सम्राट और परमात्मा का (वृणाना) वरण करने वाली, आश्रय लेने वाली है (वृत्रम्) उन्नति के रोधक पाप अथवा पापी पुरुषों का वरण करने वाली (न) नहीं है, वह हमारी मातृभूमि (शक्राय) विभिन्न कार्य करने में समर्थ (वृषभाय) बलवान् (वृष्णे) अपने गुण और शक्तियों का औरों पर वर्षण करने वाले पुरुषों के लिये (दध्रे) धारण की गई है।

हमारी मातृभूमि विमृग्वरी है, शुद्ध करने वाली है। राष्ट्र-निवासियों के मनों में रहने वाली उसके प्रति मातृत्व की भावना उन्हें पवित्र बना देती है। अपने राष्ट्र के प्रति यह मातृत्व की भावना और उससे उत्पन्न होने वाली स्वार्थ-त्याग आदि की भावनायें बड़े प्रयत्न से हृदयों में जागृत की जाती हैं, उन्हें एक प्रकार से प्रयत्नपूर्वक अन्वेषण करके, खोज करके, प्राप्त करना होता है, इस दृष्टि से भी मातृभूमि विमृग्वरी है। हमारे राष्ट्र में भांति-भांति के नये-नये आविष्कारों का अन्वेषण और अनुसन्धान होता रहता है, इसलिये भी हमारी मातृभूमि विमृग्वरी है।

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यह हमारी विमृग्वरी मातृभूमि हमें शुद्ध करने वाली और सत्य के नये-नये रुपों का अन्वेषण करते रहने वाली मातृभूमि, सर्पों से अपविजमान1 रहती है। सर्प-प्रकृति के, जहरीली और कुटिल प्रकृति के पुरुषों से परे हटकर रहती है। हमारे राष्ट्र में सर्प-प्रकृति के लोगों को नहीं रहने दिया जाता। हमारे राष्ट्र की राज्यव्यवस्था और उसकी शिक्षा-दीक्षा इस प्रकार की आदर्श है कि पहले तो उसमें सर्प-प्रकृति के कुटिल वृत्ति वाले लोग उत्पन्न ही नहीं होने पाते और यदि कभी उत्पन्न हो भी जाते हैं तो उन्हें दण्डित किया जाता है और कारागार आदि में रखकर उन्हें राष्ट्र की जनता से दूर रखा जाता है। हमारी विमृग्वरी, पवित्र भावना वाले प्रजाजनों से भरी हुई मातृभूमि अपने अन्दर सर्प-प्रकृति के कुटिल पुरुषों को सहन नहीं कर सकती। उसकी प्रकृति कुटिलता से घबराती है।

हमारे राष्ट्र में उन अग्नियों का निवास है जो कि जलों में रहा करती हैं। वर्षाकाल में आकाश के जलों में, बादलों में जो अग्नि, जो विद्युत चमका और कड़कड़ाया करती है, उस विद्युतदग्नि को वश में करके हमारे राष्ट्र ने उसे अपना निवासी बना रखा है। अन्य राष्ट्र-निवासियों की भांति वह विद्युत भी दिन-रात हमारे राष्ट्र के हित-साधन और अभ्युदय-वृद्धि में लगी रहती है। वर्षा के जल को संचित करके प्रपातों के रूप में उनकी धारायें बहाकर, नदियों में बांध-बांधकर प्रपात-रूप में उनके पानी को गिराकर और पर्वतों के स्वाभाविक प्रपातों को वश में करके, इन सबके जलों के वेग से विशेष प्रकार के वैज्ञानिक यन्त्रों को चलाकर हमारे राष्ट्र में विद्युत की उत्पत्ति की जाती है। अन्य साधनों से भी यन्त्र चलाकर हमारे राष्ट्र में विद्युत की उत्पत्ति की जाती है। फिर इस विद्युत से उत्पन्न होने वाले प्रकाश से राष्ट्र-निवासियों के घरों को आलोकित किया जाता है। बिजली की गति देने की शक्ति से भांति-भांति के यन्त्र चलाकर उनसे राष्ट्र के लिये उपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। इसकी प्रसारण की शक्ति से दूर-दूर की बातों को सुनने और दूर-दूर के पदार्थों को देखने के यन्त्र बनाये जाते हैं। इस प्रकार इस विद्युदग्नि को वश में करके उससे अनेक राष्ट्रोपयोगी कार्य लिये जाते हैं।

हमारी मातृभूमि देव-पीयु2 लोगों को अपने से परे रखती है। जो लोग देव-प्रकृति के सज्जन पुरूषों की हिंसा करते हैं, उन्हें भांति-भांति के कष्ट देते और सताते हैं उन घातक, डाकू, चोर, लुटेरे, ठग, धोखेबाज आदि दस्यु लोगों को हमारे राष्ट्र में नहीं रहने दिया जाता। पहले तो ऐसा प्रयत्न किया जाता है कि उत्तम शिक्षा-दीक्षा द्वारा राष्ट्र में ऐसे दस्यु पुरुष पैदा ही न होने पावें, पर फिर भी यदि कुछ ऐसे दुष्ट पुरुष पैदा हो जाते हैं तो उन्हें दण्डित किया जाता है। इस प्रकार उत्तम शिक्षा और दण्ड दोनों का सहारा लेकर हमारे राष्ट्र में से दस्यु पुरुषों को सदा हटाया जाता रहता है।

हमारी मातृभूमि इन्द्र का, सम्राट का वरण करने वाली है। हमारे राष्ट्र में आनुवंशिक राज्य नहीं होता। हमारे राष्ट्र में राजा का वरण3 होता है, उसका चुनाव होता है। हमारा यह चुना हुआ सम्राट अपने उत्तम राज्य-प्रबन्ध द्वारा हमारे राष्ट्र को सर्प-प्रकृति के कुटिल पुरुषों और चोर, डाकू, लुटेरे आदि दस्यु पुरुषों से रहित करने में प्रजाजनों की सहायता करता है। यह इन्द्र4 यह सम्राट अपनी राज्य-व्यवस्था द्वारा पूर्वोक्त विद्युदग्नि को भी राष्ट्र में उत्पन्न करने और व्यापक बनाने के उपाय करता है और इस प्रकार राष्ट्र को समृद्ध बनाने के साधन जुटाता है।

हमारे राष्ट्र के सब अधिवासी परमात्मा के विश्‍वासी और भक्त हैं। उनके हृदय में हर समय परमात्मा का वास रहता है। प्रभु और उनकी महिमा तथा उनके पवित्र गुण प्रतिक्षण उनके मन की आँखों के आगे रहते हैं। वे हर समय परमात्मा से अनुप्राणित रहते हैं। वे हर समय प्रभु के आश्रय में रहते हैं। उनकी वृत्ति हर समय आध्यात्मिक रहती है। भला ऐसी आध्यात्मिक वृत्ति वाले पुरुषों से भरे हमारे राष्ट्र में सर्प-प्रकृति के कुटिल और दस्यु लोग कैसे टिके रह सकते हैं?

हमारे राष्ट्र में इन्द्र का ही वरण होता है। उसमें राष्ट्र को भौतिक दृष्टि से ऐश्‍वर्यशाली बनाने वाले सम्राट का और आध्यात्मिक दृष्टि से ऐश्‍वर्यशाली बनाने वाले परमात्मा का ही वरण होता है। हमारे राष्ट्र में वृत्र5 का वरण नहीं होता। उसमें उन्नति के रोधक पाप और पापी पुरुषों का वरण नहीं होता। पाप और पापी पुरुष हमारे राष्ट्र में पसन्द नहीं किये जाते। हमारे राष्ट्र में इन वृत्रों को सदा अपने से दूर रखा जाता है।

हमारी मातृभूमि बड़ी उत्तम रीति से धारित है। उसकी सब व्यवस्थायें ठीक चल रही हैं, उसके सब कार्य भले प्रकार से हो रहे हैं। वह शक है, शक्ति सम्पन्न है। उसके निवासी सुखी हैं, सुरक्षित हैं। हमारी मातृभूमि के इस प्रकार धारित होने का कारण यह है कि उसके सब निवासी शक्र6 हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य करने में समर्थ हैं। वृषभ7 हैं, बलवान् हैं। और वृषा8 हैं, अपनी शक्ति और गुणों का दूसरों का कल्याण के लिये वर्षण करने वाले परोपकारी हैं। इन गुणों के धनी होकर हमारे राष्ट्र के लोगों ने अपने राष्ट्र को धारित कर रखा है।

मातृभूमि के इस वर्णन द्वारा वेद ने यह उपदेश दिया है कि जो लोग अपने राष्ट्र की उन्नति चाहते हैं उन्हें अपने राष्ट्र में सर्प और दस्यु-प्रकृति के लोग नहीं रहने देना चाहियें। राष्ट्र में आनुवंशिक राजा नहीं होना चाहिये, राजा का चुनाव होना चाहिये। राष्ट्रवासियों को ईश्‍वर विश्‍वासी होना चाहिये। उन्हें सब प्रकार के पापों से बचकर रहना चाहिये और पापी पुरुष राष्ट्र में उत्पन्न न हो सके, इसका उपाय करना चाहिये। राष्ट्र के लोगों को विभिन्न प्रकार के काम करने में समर्थ, बलवान् और परोपकारी होना चाहिये।9 - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति (दिव्ययुग - जनवरी 2019)