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श्रीराम नवमी

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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम का उज्ज्वल चरित्र वर्णित है। वाल्मीकि के राम संभाव्य और इस संसार के वास्तविक चरित्र लगते हैं। कालान्तर में अनेक कवियों एवं लेखकों ने उनके जीवन चरित्र मनमाने ढंग से लिखकर ऐसे गल्प जोड़ दिए कि श्रीराम एक काल्पनिक चरित्र लगने लगे। जिस प्रकार श्रीकृष्ण जैसे महान् योगी को अनेक कवियों और लेखकों ने लम्पट और कामी लिख दिया, उसी प्रकार श्रीराम जैसे आदर्श सर्वगुणसम्पन्न चरित्र को आम जनता से बहुत दूर ले जाकर पटक दिया। जहाँ आश्‍चर्यजनक घटनाओं और रहस्यमय कार्यकलापों का झूम-झूमकर और वाह-वाह करके मनोरञ्जन तो किया जा सके, परन्तु उन आदर्शों को अपनाने में असमर्थता प्रकट की जाए, क्योंकि उन जैसे तो वही हो सकते थे। राम ही नहीं रामायण के अन्य पात्रों के साथ इन कवियों, लेखकों तथा अन्धभक्तों द्वारा बड़ा भारी अन्याय किया गया है। चाहे वह दशरथ हो, कौशल्या, केकैयी, सुमित्रा, सीता, लक्ष्मण, भरत, बाली, सुग्रीव, हनुमान या रावण और विभीषण ही क्यों न हों।

राम को सब कुछ मालूम था। वे तो मात्र लीला कर रहे थे। इससे बड़ा उपहास और भला क्या होगा? रावण को भी सब कुछ पता था तथा उसने तो राम के हाथों मरने के लिए ही सीता का अपहरण किया। इन कपोल कल्पित बातों से राम, सीता और रावण के चरित्रों को शून्य बना दिया गया। वीर हनुमान, बाली, सुग्रीव तथा तारा आदि पात्रों की भी बहुत दुर्गति की गई है। इन योग्य, ज्ञानवान् वीरों को मात्र उछलने-कूदने वाले बन्दर कहना कहाँ तक उचित है? सम्पाति और जटायु जैसे तपस्वियों को गिद्ध जैसा एक पक्षी वर्णित करना कहाँ तक न्यायसंगत है? अपने पूर्वजों के आदर्श जीवन को मलिन करने वाले ये कवि और लेखक तो दोषी हैं ही, उनसे भी बड़े दोषी वे अन्धभक्त हैं, जो इन बातों पर विश्‍वास करके पाप के भागी बनते हैं। इस मनोरंजन प्रधान युग में रामलीलाओं के रूप में राम और रामायण के अन्य पात्रों के साथ कितना बड़ा छल किया गया है और अपने इतिहास तथा महापुरुषों को कैसे-कैसे कलंकित किया गया है, यह शहर-शहर और गांव-गांव में जाकर देखा जा सकता है। तरह-तरह के नए-नए लटके लगाकर और लोगों का भरपूर मनोरंजन करने के लिए ऐसे-ऐसे भौंडे प्रदर्शन किए जाते हैं कि बुद्धिवादी और सभ्य लोगों को मात्र माथा पीटकर रह जाना पड़ता है।

आजकल टी.वी. पर रामायण के नाम पर मनोरंजन से भरपूर सीरियल दिखाकर भारतीय जनता को मोहित किया जा रहा है। इन सीरियलों के लिए बच्चा-बच्चा पागल हुआ फिरता है। इसका एक पक्ष तो बड़ा उज्जवल है कि अपने महापुरुषों के प्रति आज भी लोगों में इतना अधिक आकर्षण है। राम और रामायण के अन्य पात्रों से शिक्षा ग्रहण करना बड़े सौभाग्य की बात है।

परन्तु यदि केवल अनहोनी, आश्‍चर्यचकित करने वाली मनोरंजन से भरपूर घटनाएं ही दिखाने का चाव है तो इससे इस राष्ट्र या किसी व्यक्ति का कुछ भी भला होने वाला नहीं। टी.वी. के माध्यम से रामायण के सभी पात्रों को सही ढंग से प्रस्तुत करने का यह बड़ा ही अच्छा अवसर था। परन्तु इसमें तो मनोरंजन के दृष्टिकोण को सामने रखकर और भी इधर-उधर की सामग्री मिला दी गई।

इतिहास की रक्षा करने के स्थान पर उसे परिवतर्तित करके दूषित कर देना एक ऐसा अपराध है जिसका कोई प्रायश्‍चित नहीं। क्योंकि आने वाली पीढ़ियाँ उस पाप के बोझ तले दबकर समाप्त हो जाती हैं। मगर आज यह पाप हर कोई कर रहा है। टी.वी. के इस रामायण में सही इतिहास के परिप्रेक्ष्य में राम और अन्य पात्रों को दिखाकर बड़ा भारी उपकार किया जा सकता था। परन्तु इसमें भी हनुमान, सुग्रीव, वाली आदि को बड़ी-बड़ी पूंछें लगाकर दिखाया जा रहा है, मगर उनकी पत्नियों के पूंछ नहीं। यह कैसी करामात है कि बन्दरों के तो पूंछ हैं मगर बन्दरियों के नहीं.....? यह प्रश्‍न हर बड़े-बूढ़े के जेहन में दृढ़ता के साथ कुलबुला रहा है । परन्तु आत्मा की आवाज को दबाकर सब देखते और दिखाते चले जा रहे हैं। इस सच्चाई से भी आंखें बन्द की जा रही हैं कि ये असम्भाव्य घटनाएं धीरे-धीरे राम के अस्तित्व को ही समाप्त कर देंगी। यही कारण है कि राम और रामायण को एक काल्पनिक गाथमात्र घोषित करने का दुष्प्रयास किया जा रहा है।

वास्तव में रामायण वाल्मीकि द्वारा रचित एक जीवन चरित है। इसके नायक भगवान श्रीराम किसी कल्पना लोक के पात्र नहीं बल्कि ‘रघुकुल’ के एक महाराजा थे। आदिकालीन मनु के सात पुत्र थे जिनकी एक शाखा में भागीरथ, अंशुमान, दिलीप और रघु आदि हुए और दूसरी शाखा में सत्यवादी हरिश्‍चन्द्र आदि। वैवस्वत मनु के इसी वंश का नाम आगे चलकर सूर्यवंश हुआ, जिसमें श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया। श्रीराम एक आदर्श पुत्र, पति, सखा, भ्राता थे। वे वीर, धीर और सर्वमर्यादाओं से विभूषित थे। मूलरूप में वे एक नीतिवान, आदर्शवादी, दयालु, न्यायकारी और कुशल महाराजा थे। बाकी समस्त गुण तो उनके पीछे-पीछे अनुसरण करते थे। वे मात्र धार्मिक नेता या महापुरुष नहीं थे, बल्कि धर्म तो उनके जीवन के एक-एक कार्यकलाप से स्वयं झलकता था। वैदिक धर्म से विभूषित आर्य पुरुष श्रीराम इतने कुशल राजा थे कि इनके राज्य को एक आदर्श राज्य माना गया है।

भगवान श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन वेदमय था। कुछ वैदिक शब्द राम के जीवन में पूरी तरह से लागू होते हैं। उनमें से एक शब्द सामवेद मंत्र 185 में आया ‘मित्र’ है। मित्र का अर्थ है, जिनका स्नेह प्रत्येक प्रकार से त्राण करने वाला होता है। ऐसे महापुरुष अपने सम्पर्क में आने वालों को बुराई से बचाते हैं और उनके सद्गुणों की प्रशंसा करते हैं। संकट आने पर इसके प्रत्युपकारों में प्राणपण से सहायता करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर तो सब कुछ दे देते हैं। राम की इस प्रकार की मित्रता का उदाहरण सुग्रीव के साथ मिलता है। महात्मा राम सुग्रीव को कितना प्रेम करते थे तथा उसकी सुरक्षा का उनको कितना ध्यान रहता था, यह लंका में युद्ध की तैयारी के समय की एक छोटी सी घटना से स्पष्ट हो जाता है। समुद्र पार करके वानर सेना जब लंका में पहुंची तो राम सुग्रीव के साथ सुमेरु पर्वत पर खड़े कुछ निरीक्षण कर रहे थे कि पल भर में देखते ही देखते सुग्रीव पहाड़ से छलांग मारकर रावण के पास जा पहुँचा और कुछ जली-कटी सुनाकर रावण के साथ तीन-पांच कर रहा था तो आर्यपुत्र राम को बड़ी घबराहट हो रही थी तथा नाना प्रकार के विचार उनके मन को चिन्तित कर रहे थे। परन्तु ज्योें ही सुग्रीव वापस सुमेरु पर्वत पर राम के पास आया, तो राम ने कहा-
असम्मन्त्र्य मया सार्धं यदिदं साहसं कृतम्।
एवं साहसकर्माणि न कुर्वन्ति जनेश्‍वराः॥
प्यारे सुग्रीव, मेरे साथ परामर्श किये बिना तुमने जो यह साहसिक कार्य किया, इस प्रकार का साहस राजा लोगों को करना उचित नहीं है।
इदानीं मा कृथा वीर एवं विधमचिन्तितम्।
त्वयि किञ्चित् समापन्ने किं कार्यं सीतया मम॥
हे वीर! अब बिना विचारे इस प्रकार के काम मत करना। यदि तुम्हें कुछ हो जाता (कुछ क्षति हो जाती) तो मुझे सीता को प्राप्त करने का फिर क्या प्रयोजन था।
भरतेन महाबाहो लक्ष्मणेन यवीयसा।
शत्रुघ्नेन च शत्रुघ्न स्वशरीरेण वा पुनः॥
हे महाबाहो! भरत-लक्ष्मण से और छोटे भाई शत्रुघ्न से और यहाँ तक कि अपने जीवन से फिर मुझे क्या मतलब रहता!
त्वयि चानागते पूर्वमिति मे निश्‍चिता मतिः।
जानतश्‍चापि ते कार्य महेन्द्रवरुणोपमम्॥
हत्वाहं रावणं सख्ये सपुत्रं बलवाहनम्।
अभिषिच्य च लंकायां विभीषणमथापि च।
भरते राज्यमावेश्य त्यज्ये देहं महाबल॥
यदि किन्हीं कारणों से तुम वापस आने में असमर्थ होते, तो मैंने निश्‍चय कर लिया था कि युद्ध में रावण को परिवार और सेना सहित मारकर विभीषण का लंका में राजतिलक करके और अयोध्या का राज्य भरत को सौंपकर मैं अपना शरीर त्याग देता।
इसी प्रकार विभीषण के साथ भी मर्यादा पुरुषोत्तम की आत्मीयता थी। लंका के युद्ध में मेघनाद के द्वारा वीर लक्ष्मण के आहत और मूर्च्छित होने पर राम ने जहाँ और अधूरे काम को देखकर खिन्नता प्रकट की तो वहाँ विभीषण को दिये वचन का पूर्ण न होना उन्हें (राम जी) सबसे अधिक खटक रहा था। विभीषण का ध्यान कर उन्होंने कहा-
यन्मया न कृतोराजा लंकायां हि विभीषणः।
अर्थात् मैं लंका का राज्य विभीषण को न दे सका, इसका मुझे बहुत खेद है। ऐसे मित्र भला आज कहाँ मिलेंगे। आज तो पेट में छुरा घोंपने वाले मित्र रूप में शत्रु चहुं ओर विचरण करते दीख पड़ते हैं।
भगवान श्री राम बड़े नीतिमान, पारखी और अपनी दूरदर्शिता से चुटकियों में विषम परिस्थितियों को सुलझाने में बड़े कुशल थे। लंका में रावण के मरने पर राम की सेना में जब विजय के बाजे बजने लगे, तो अकस्मात् ही बालि पुत्र योद्धा अंगद आवेश में भरा हुआ राम को आकर बोला कि “यह विजय के बाजे बन्द कर दिये जायें, यह विजय आपकी न होकर मेरी अपनी विजय है।’’ आवेश में आये अंगद ने कहा कि “मेरे पिता के दो शत्रु थे- एक लंकापति रावण, दूसरे उनकी हत्या करने वाले आप। मैंने आपको पूर्ण सहयोग देकर एक योग्य पुत्र के नाते अपने पिता के एक शत्रु रावण को समाप्त कर दिया। इस प्रकार पिता का आधा ऋण तो मैंने चुका दिया, शेष आधा आपको युद्ध में पराजित करके चुकाना है। अतः अब मेरा और आपका युद्ध होगा।’’ राम ने बड़ी दूरदर्शिता से इस विकट परिस्थिति को चुटकियों में सुलझा दिया। उन्होंने अंगद की पीठ थपथपाते हुए कहा कि “निश्‍चय ही तुम वीर पिता के अनुव्रत पुत्र हो और सचमुच मैं इस विजय को तुम्हारी ही विजय स्वीकारता हूँ। परन्तु मैं भी अपने को इस विजय का भागीदार समझता हूँ।’’ राम ने कहा- “अंगद! तुम्हें स्मरण हो कि जीवन के अन्तिम क्षणों में तुम्हारे पिता ने तुमको मुझे सौंपते हुए मुझसे वचन लिया था कि मैं तुम्हें अपने पुत्र की तरह संरक्षण दूं। इस प्रकार तुम मेरे पुत्र हो और शास्त्रों का यह कहना है कि-
सर्वस्माज्जयमिच्छेत् पुत्रादिच्छेत् पराजयम्।
सबसे जीतने की इच्छा करे, परन्तु पुत्र से हारने की कामना करे। इस रूप में तुम जीते और मैं हारा। तुम्हारी इस जीत में मैं भी सम्मिलित होता हूँ। मुझे दूसरी प्रसन्नता यह है कि मैं तुम्हारे पिता को दिये गए वचन का पालन कर सका।“

रामचन्द्र जी बड़े पारखी भी थे और शरणागत को निर्भयता भी प्रदान कर दिया करते थे। जब रावण ने अपने भाई महात्मा विभीषण द्वारा कही गई सीता जी को आदरपूर्वक लौटाने की बात न मानी तो रावण से अपमानित होकर जब विभीषण राम के दल में राम से मिलने आया तो केवल रामचन्द्र जी को छोड़कर शेष सबका यही मत था कि यह शत्रु का भाई है। अतः इसका कुछ भी विश्‍वास न करना चाहिए। बड़ी तर्क-वितर्क के बाद राम ने विभीषण के अभिवादन करने के बारे में कहा-
आकारश्छाद्यमानोऽपि न शक्यो विनिगूहितुम्।
बलाद्धि विवृणोत्येव भावमन्तर्गतं नृणाम्॥
अर्थात् मनुष्य अपने आकार को छिपाने की कोशिश करने पर भी नहीं छिपा सकता, क्योंकि अन्दर के विचार बलपूर्वक आकर आकृति पर प्रकट होते रहते है। अतः राम ने विभीषण का स्वागत करके उसको लंकेश कहकर, उसके भावों का जाना और आगे चलकर शत्रु के इसी भाई ने राम की पूरी सहायता की।
गीता के शब्दों- ‘समत्वं योग उच्यते’ के अनुसार रामचन्द्र जी पूरे योगी थे। हर्ष-विषाद में वह एक समान रहते थे। राज्याभिषेक का समाचार पाकर वह फूलकर कुप्पा नहीं हुए ऐर वन जाने की आज्ञा पाकर किसी तरह के विषाद के कारण उनकी आकृति पर कोई विकार नहीं आया।
न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्‍च वसुन्धराम्।
सर्वं लोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया॥
सर्वो ह्यभिजना श्रीमान् श्रीमतः सत्यवादिनः॥
नालक्ष्यत हि रामस्य किञ्विदाकारमानने॥
यह तो सर्वविदित है कि वह कितने महान् आज्ञाकारी पुत्र थे और भाई भरत से तथा माता केकैयी से भी कितना प्रेम करते थे। एक प्रसंग में राम ने कहा कि “मैं अपने भाई भरत के लिए हर्षपूर्वक सीता, राज्य, प्राप्य, इष्ट पदार्थ एवं धन सब कुछ स्वयं ही दे सकता हूँ। फिर राजा के कहने पर और तुम्हारा (केकैयी) प्रिय करने के लिए तो क्यों नहीं दूंगा।’’ यही नहीं केकैयी को राम ने यह भी कहा कि मैं पिता जी की आज्ञा से अग्नि में भी प्रवेश कर सकता हूँ। हलाहल विष का पान कर सकता हूँ और समुद्र में कूद सकता हूँ। राम एक बात कहकर दूसरी बात कभी नहीं कहा करता-
अहं सीता हि राज्यं च प्राणानिष्टान् च हृष्टो हि।
भ्रात्रे धनं स्वयं दद्याम् भरतायाप्रचोदित॥
किं पुनर्मनुजेन्द्रेण स्वयं पित्रा प्रचोदितः।
तत्र च प्रियकार्यार्थं प्रतिज्ञामनुपालयन्॥
अहो धिङ्नाहसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः।
अहं हि वचनाद्राज्ञ पतेयमपि पावके॥
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं मज्जेयमपि चार्णवे।
तद् ब्रूहि वचन देवि राज्ञो यदभिकांक्षितम्।
करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विनाभिभाषते॥
श्रीराम जी प्रजा को पुत्र समान प्यार करते थे और प्रजा जन भी उनको पिता से भी अधिक पालन-पोषण करने वाले मानते थे। उनके राज्य की विशेषताएं महर्षि वाल्मीकि तथा सन्त तुलसीदास जी ने बड़े मनोहर भाव भरे शब्दों में वर्णित की हैं। यही कारण था कि महात्मा गांधी स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्‍चात् भारत में भी रामराज्य सा राज्य स्थापित करने के स्वप्न लिया करते थे। परन्तु दुःख है कि कालान्तर में कुछ लोगों की स्वार्थपरता के कारण वह स्वप्नमात्र ही बनकर रह गया।
आज देश विघटन और अराजकता, नेताओं की स्वार्थपरता तथा भ्रष्टाचार के गहरे खड्डे में जा पड़ा है। मानवता दानवता में बदल गई है। सब रावण, हिरण्यकश्यप और अराष्ट्रवादी बने हुए हैं। कोई भी देश हितैषी तथा प्रजाजनों का हितचिन्तक दिखाई नहीं देता। कहने को तो सत्ताधारी महान् देश हितैषी अपने आपको कहते हैं।

ऐसे विकट समय में मातृभूमि और जनता की भलाई व रक्षा के लिए राम जैसे महान् योद्धा और नीतिनिपुण तथा परोपकारी शासक नेता की नितान्त आवश्यकता है।

अतः इस वर्ष रामनवमी (राम जन्मदिवस) के अवसर पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि हम अपने ध्येय से कितने नीचे चले गए हैं और अभी भी जा रहे हैं। हमें राम के जीवन का विधिवत् निष्ठापूर्वक अध्ययन करके उसके अनुकूल अपना आचरण बनाना चाहिए। केवल जुलूसों, कीर्तनों, जलसों और भाव भरे भाषणों से अब काम चलने वाला नहीं है। ठोस कदम उठाकर तथा सक्रिय होकर ही हम देश के नैतिक मूल्यों की रक्षा कर पायेंगे। समय रहते हमें चूकना नहीं चाहिए। यही समय जागरूक होकर अन्तरराष्ट्रीय दूषित वृत्तियों का साहसपूर्वक सामना करके उनको और उभरने से रोकने का है।

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