भारतीय साहित्य और जनता में कृष्ण शब्द अपना एक गौरवपूर्ण आकर्षण रखता है और बहुत अधिक चर्चित हुआ है। साहित्य में कृष्ण शब्द अनेक अर्थों में आया है। कृष्ण शब्द कृष् धातु से बनता है और कोशों में साहित्य में आये प्रयोगों के आधार पर कृष्ण के ये-ये अर्थ मिलते हैं। जैसे कि- काला गहरा नीला रंग, वसुदेवपुत्र, वेदव्यास, अर्जुन, अन्धेरा पक्ष, कोयल, कौआ, कुत्सित (हल्का) आदि।
विशेष रूप से महाभारतकालीन वसुदेव के पुत्र का श्रीकृष्ण के नाम से निर्देश किया जाता है। कुछ महाभारत कथा के सूत्रधार श्रीकृष्ण और भगवान को एक रूप में ही लेते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में श्रीकृष्ण विष्णु के षोडशकला सम्पन्न अवतार थे। इस प्रकार ये इन दोनों का तारतम्य बिठाते हैं।
विशेष विचारणीय बात तो यह है कि भारतीय शास्त्रों में जहाँ कहीं ईश्वर की चर्चा आई है, वहाँ उसको अज, अजन्मा, अजर, अमर, अविकारी कहा गया है। 1 सारे साहित्य में उसके शरीर एवं शरीर के अंगों, तज्जन्यों का जहाँ स्पष्ट निषेध मिलता है 2, वहाँ ईश्वर का भौतिक सम्बन्धजन्य (माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, पुत्र आदि) किसी प्रकार का रूप चित्रित नहीं हुआ3। ईश्वर की जहाँ-कहीं चर्चा परिभाषित हुई है, वहाँ उसको जग का बनाने-चलाने वाला ही निर्दिष्ट किया गया है4 और ईश्वर को मानने वाले सारे के सारे विचारक ऐसा ही स्वीकार करते हैं। यह कार्य कोई पैदा होने वाला नहीं कर सकता5, क्योेंकि वह तब स्वयं सृष्टि का अंग बन जाता है। जैन-बौद्ध साहित्य से पूर्व किसी प्रादुर्भूत को ईश्वर के रूप में चित्रित नहीं किया गया।
महात्मा बुद्ध ने विशेष रूप से व्यावहारिक जीवन से सम्बद्ध नीतिवचनों, बातों का ही विवेचन किया है, क्योेंकि ईश्वर लौकिक प्रत्यक्ष तथा व्यवहार का विषय नहीं है, वह तो अधिकतम मान्यता और विश्वास का ही विषय है। महात्मा बुद्ध ईश्वर के सम्बन्ध में चुप ही रहे। अतएव बौद्धों में ईश्वर की स्वीकृति नहीं है। यही जैनों की भी स्थिति है। इन दोनों के अनुयायियों ने इस भावना के खालीपन को भरने के लिए समय के साथ इष्टदेव के रूप में जिन-तीर्थंकर और महात्मा बुद्ध को ही प्रतिष्ठित कर लिया। जब महावीर आदि तीर्थंकर या महात्मा बुद्ध इष्टदेव के रूप में प्रतिष्ठित हो गए, तो इसी भावना के अनुकरण पर रामभक्तों ने श्रीराम को और कृष्णभक्तों ने श्रीकृष्ण को इष्टदेव के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।
पुराण साहित्य में अधिकतम देवी-देवता ही भक्ति, स्तुति, प्रार्थना के आधार रहे हैं। हिन्दी भाषा के भक्तिकाल की प्रथमधारा सन्तों की है, जिसमें निराकार ईश्वर को ही भक्ति का विषय विवेचित किया है, पर इसके पश्चात् रामकाव्य धारा और कृष्णकाव्य धारा में श्रीराम तथा श्रीकृष्ण इष्टदेव या आराध्य रूप में विषयवस्तु बन गए। इसके साथ किसी न किसी महापुरुष को इष्टदेव के रूप में चित्रित किया जाने लगा और ईश्वर की तरह ही उन-उनकी स्तुति, प्रार्थना, भक्ति, कीर्तन किया जाने लगा। इस प्रकार ईश्वर और महापुरुष मिश्रितरूपेण वर्णित होने लगे।
हाँ, कृष्ण जन्माष्टमी पर हम जिस श्रीकृष्ण को याद करते हैं, उनका जन्म कंस के कारागार में हुआ था। वे मथुरा में देवकी तथा वसुदेव के परिवार की परम्परा के दीपक थे। श्रीकृष्ण जहाँ यादव कुल की शोभा थे, वहाँ बलराम उनका प्रिय अग्रज थाऔर सुभद्रा बहिन थी। बालकृष्ण ने सुदामा के साथ गुरुवर सन्दीपनि के गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी। रुक्मीणि से आपका विवाह हुआ था और प्रद्युम्न एक योग्यतम पुत्र था। महाभारत के युद्ध में पाण्डवों के श्रीकृष्ण सहायक ही नहीं, अपितु सर्वस्व सिद्ध हुए। श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में जिन-जिन विविध महान् कार्यों को साधा, उससे वे षोडश कला सम्पन्न सिद्ध होते हैं। महाभारत में श्री वेदव्यास जी ने श्रीकृष्ण जी के जिस रूप का जिस प्रकार से आकलन किया है, उसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण स्वपरिश्रम से सिद्धि प्राप्त महापुरुष थे तथा उनके जीवन से पता चलता है कि अपने महान् कार्यों से ही कोई महापुरुष बनता है। - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य
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