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जन्माष्टमी

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6548889900महाभारत के श्रीकृष्ण
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने महान ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ के एकादश समुल्लास में लिखा है कि- “श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनके गुण-कर्म-स्वभाव और चरित्र आप्तपुरुषों के सदृश हैं। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।’’ 

यह है श्रद्धांजलि उन निष्कलंक ब्रह्मचारी, वेदों के अद्वितीय विद्वान्, योगिराज, महर्षि दयानन्द जी महाराज की जो लगभग पाँच हजार वर्ष बाद योगेश्‍वर कृष्ण जी को सही-सही समझ पाये। इतने लम्बे अन्तराल में अब आकर या तो ऋषि दयानन्द जी महाराज ने श्रीकृष्ण जी को समझा और समझाया था या फिर महाभारत के लेखक श्रीकृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने एवं भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण जी के जीवनकाल में ही समझा था।
श्रीकृष्ण की प्रबन्धपटुता में युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ बड़ी सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। दीक्षा पूर्ण होने पर युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा कि आज विश्‍व में सर्वप्रथम अर्ध्य किसे दिया जाये? संसार के सर्वोच्च सम्मान से किसे सम्मानित किया जाये? भीष्म पितामह का उत्तर था-
“यहाँ मैं किसी ऐसे राजा को नहीं देखता, जिसे श्रीकृष्ण ने अतुल तेज से न जीता हो। वेद-वेदांग का ज्ञान और बल पृथ्वी तल पर इनके समान किसी और में नहीं है। इनका दान, इनका कौशल, इनकी शिक्षा और ज्ञान, इनकी शक्ति, इनकी शालीनता, इनकी नम्रता, धैर्य और सन्तोष अतुलनीय है। यह ऋत्विज हैं, गुरु हैं, स्नातक हैं और लोकप्रिय राजा हैं। ये सब गुण इस एक पुरुष में मानो मूर्त्त हो गये हैं। इसलिए इन्हें ही अर्ध्य देना उचित है।’’
महर्षि दयानन्द सरस्वती की उपरोक्त श्रद्धांजलि, भीष्म पितामह की प्रशस्ति एवं महर्षि वेदव्यास के महाभारत के आलोक में आइये! हम भी श्रीकृष्ण-चरित्र का अवलोकन करें-
मानवता- श्रीकृष्ण योगेश्‍वर हैं, युगपुरुष हैं, क्रान्तिदूत हैं, महाभारत के महान् निर्माता हैं पर इन सबसे ऊपर वे आदर्श मानव हैं, महामानव हैं। मनुष्यता से युक्त मानव। महर्षि दयानन्द सरस्वती के शब्दों में- “मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाब को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वे महाअनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे।’’
श्रीकृष्ण जी ऋषि निर्दिष्ट मनुष्यता की इस परिभाषा की साक्षात् प्रतिमूर्ति रहे। वे निर्बल किन्तु धर्मात्मा पाण्डवों का पक्ष ग्रहण करते रहे और सबल किन्तु अधर्मात्मा कौरवों का विरोध करते रहे। उनके जीवन के सभी प्रसंगों में मनुष्यता का यह आदर्श सुस्पष्ट है।
ईश्‍वर-भवित- प्रभुभक्ति ही मनुष्यता का आधार है। मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए यह शक्ति-स्रोत है। सन्ध्या-उपासना और यज्ञ कृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण अंग है। यहाँ तक कि वे हस्तिनापुर जाते हुए मार्ग में भी सन्ध्या करते हैं-
अवतीर्य रथात्तूर्ण कृत्वा शौचं यथाविधि।
रथमोचनामादिश्य सन्ध्यामुपविवेशह। (उद्योग 3.21)
श्रीकृष्ण जी ने दूत बनकर हस्तिनापुर में कौरव सभा में जाते समय रास्ते में रथ रुकवाकर-उतरकर शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर सन्ध्या की।
श्रीकृष्ण जी की ईश्‍वर-भक्ति जानने के लिए आइए! हम उनकी प्रातःकालीन चर्या को पढ़ें-
कृत्वा पौर्वान्हिकं कृत्यं स्नातः शुचिरलंकृतः।
उपतस्थे विवस्वन्तं पावकं च जनार्दनः॥
श्रीकृष्ण जी ने प्रातःकाल शौच-स्नानादि कृत्य करके सन्ध्या तथा यज्ञ किया। इस प्रकार सन्ध्या-हवनादि उनके दैनिक कार्य थे।
निर्भीकता- निर्भीकता सच्चे ईश्‍वरभक्त अथवा आदर्श मनुष्य का प्रथम गुण है। यह निष्पापता की उपज है। श्रीकृष्ण के प्रत्येक काम में निर्भयता और स्वाभिमान का भाव बना रहता था। दुर्योधन के भोजन-प्रस्ताव पर वे निर्भयता और नीतिमत्ता के साथ कहते हैं-
सम्प्रीति भोज्यान्यन्नानिआपद्भोज्यानि वा पुनः। न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम्॥
(उद्योगपर्व 91.25)
राजन्! किसी के घर का अन्न दो कारणों से खाया जाता है। या तो प्रेम के कारण या आपत्ति पड़ने पर। सो प्रेम तो तुम में नहीं और आपत्ति में हम नहीं हैं।’’
कौरवों की सभा में चारों ओर से शत्रुओं से घिरे रहने पर भी उन्होेंने किसी भी प्रकार से दुर्योधन के द्वारा सन्धि-प्रस्ताव न मानने पर निर्भीकता से धृतराष्ट्र को सलाह दी थी कि-
राजन् दुर्योधनं बद्ध्वा ततः संशाम्य पाण्डवैः। त्वत्कृते न विनश्येयुः क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभः।
(128.50)
राजन्! आप दुर्योधन को बांधकर पाण्डवों से सन्धि कर लो। हे क्षत्रिय श्रेष्ठ! ऐसा न हो कि आपके कारण क्षत्रियों का नाश हो जाये।
निर्लोभता- भगवान् श्रीकृष्ण ने राज्य क्रान्तियाँ कराई, परन्तु किसी लोभ-लालच से नहीं। श्रीकृष्ण ने जो भी प्रदेश जीता उसे अपने अधीन करने की चेष्टा नहीं की और न उन्होंने किसी प्रदेश को जीतकर अपने भाई-बन्धु या मित्रादि को वहाँ का राजा बनाया। कंस का वध करके श्रीकृष्ण ने उसके पिता उग्रसेन को मथुरा का राज्य दे दिया। इसी प्रकार जरासन्ध का वध करके उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया और भौमासुर को मारकर उसके पुत्र भगदत्त को सिन्ध के राज्य पर नियुक्त किया। महाभारत का यह महान् सूत्रधार इस प्रकार जीती हुई धरती के एक टुकड़े का भी शासक नहीं है। क्या यह श्रीकृष्ण जी की निर्लोभताओं और निस्पृहता की पराकाष्ठा नहीं है?
शिष्टाचार एवं सच्ची मैत्री- श्रीकृष्ण के शिष्टाचार का पता इस बात से लगता है कि जब वे व्यास, धृतराष्ट्र, कुन्ती और युधिष्ठिर आदि बड़ों से मिलते थे तो सदा उनके चरण छूते थे। देखिये-
कृष्णोऽहमस्मीति निपीड्यपादो
युधिष्ठिरस्यामजमीढस्य राज्ञः। (आदि. 19.20)
मैं कृष्ण हूँ, ऐसा कहकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरण छुये।
नम्रता और सहिष्णुता भी शिष्टाचार के ही अंग हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों की पूजा और उनके चरण धोने का कार्य अपने ऊपर लिया। यह उनकी नम्रता का अनुपम उदाहरण है।
सहनशीलता की तो श्रीकृष्ण साकार मूर्ति थे। कंस के अत्याचार झेले। जरासन्ध के प्रहार और शिशुपाल की वचनरूपी तलवार के कठोर वार सहे। परन्तु श्रीकृष्ण डांवाडोल न हुए। शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा कर देने के बाद भी उसके द्वारा युद्ध का आह्वान मिलने पर ही श्रीकृष्ण ने उसका सिर धड़ से अलग किया।
सुदामा के प्रसंग में श्रीकृष्ण ने मैत्री का जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह न जाने कितने मानवों की प्रेरणा का स्रोत रहा है। एक कवि ने बड़ी ही मनोरम और हृदयगाही शैली में इसका चित्रण किया है, जो सचमुच अत्यधिक स्पृहणीय बन पड़ा है। केवल एक नमूना देखिये-
सुदामा जैसे-तैसे करके द्वारकापुरी में श्रीकृष्ण जी के महलों तक पहुंच गये हैं। द्वारपाल श्रीकृष्ण को समाचार देता है-
सीस पगा न झगा तन में प्रभु
जाने को आहि बसे केहि ग्रामा।
धोती फटी सी लटी दुपटी
अरु पांय उपानह को नहिं सामा॥
द्वार खड्यौ द्विज दुर्बल
देखि रह्यौ चकि सों वसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम
बतावत आपनो नाम सुदामा॥
मित्र की यह दशा देखकर कृष्ण बिलख पड़ते हैं-
ऐसे विहाल बिवाइन सों
पग कंटक जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुःख पायौ सखा।
तुम आये इतै नु कितै दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दशा,
करुणा करिके करुणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुऔ नहिं,
नैनन के जल से पग धोये॥
धन्य! धन्य !! शौर्य और सच्ची मैत्री का यह समन्वित आदर्श।
कूटनीतिज्ञता- महामति चाणक्य को विश्‍व का सर्वोपरि कूटनीतिज्ञ स्वीकार किया गया है, जिनका कौटिल्य-अर्थशास्त्र आज विश्‍वप्रसिद्ध है। कौटिल्य ने कूटनीति में शुक्राचार्य की श्रेष्ठता स्वीकार की है। किन्तु शुक्राचार्य अपने ‘नीतिसार’ में लिखते हैं कि-
“श्रीकृष्ण के समान कोई कूटनीतिज्ञ इस पृथ्वी पर नहीं हुआ।’’ (शुक्र 4.12.97) श्रीकृष्ण की कूटनीतिज्ञता के कुछ उदाहरण देखिये-
(क) दूतकर्म में शान्ति स्थापनार्थ कृष्ण को प्रत्यक्षतः सफलता नहीं मिली। परन्तु अप्रत्यक्षतः उन्होंने भीष्म, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्रादि की हार्दिक सहानुभूति पाण्डव पक्ष के लिए जुटा ली थी। दुर्योधन को भरी सभा में डांटकर उसका मनोबल तोड़ा तथा कौरव पक्ष के लिए समुद्यत राजाओें के सम्मुख पाण्डवों का औचित्य प्रस्तुत करने में वे पूर्णतः सफल हुए।
(ख) कौरव सभा से विदा होते समय श्रीकृष्ण ने कर्ण को रथ में बैठाया और अन्तिम प्रयत्न के रूप में उसे पाण्डवों के पक्ष में करने का प्रयास किया। विजयी होने के बाद सम्राट तक बनाने का प्रलोभन उसको दिया और पाण्डवों के प्रति भ्रातृत्व भी कुरेदा। कर्ण ने कौरवों का साथ देना तो न छोड़ा, किन्तु अन्तरात्मा से यह स्वीकार अवश्य किया कि इस युद्ध में पाण्डवों की ही विजय होगी।
कर्ण को अपने रथ में बैठाकर वार्ता करने में कृष्ण की एक और गूढ़ कूटनीतिज्ञता यह थी की कौरवों मेें कर्ण के प्रति परोक्षतः शत्रु से मिलने का सन्देह उत्पन्न कर दिया जाये।
(ग) कालयवन, जरासन्ध, भीष्म, द्रोण, जयद्रथ, कर्ण तथा दुर्योधन वध आदि के प्रसंगों में कृष्ण की कूटनीतिज्ञता ही काम कर रही थी।
नैतिकता एवं सदाचार- हमें सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि कृष्ण की कूटनीतिज्ञता का आधार सदैव ही नैतिकता का दिव्य आदर्श था। श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन नैतिकता के आधार पर प्राणि मात्र का सुखचिन्तन करते हुए व्यतीत हुआ। अन्तिम बार श्रीकृष्ण एक विकट धर्म संकट में फंस गये। उनके ही बन्धु-बान्धव एवं परिवार के सदस्य और सजातीय उद्दण्ड हो गये। विश्‍व में वे घोर अशान्ति का कारण बनते जा रहे थे। जीवन-पर्यन्त श्रीकृष्ण ने विश्‍व-कल्याण किया। इस बार भी वे न चूके। यादव कुल का अपने देखते-देखते अपने ही हाथों उन्होेंने अन्त करा दिया।
विवाह के बाद अपनी पत्नी रुक्मणी के साथ हिमालय पर रहकर श्रीकृष्ण ने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए बारह वर्ष तक जो तप किया और उसके बाद एकमात्र पुत्ररत्न ‘प्रद्युम्न’ उत्पन्न किया, वह उनके संयम और सदाचार के उच्च आदर्श का ज्वलन्त प्रमाण है।
ये हैं श्रीकृष्ण की जीवन-बांसुरी के मस्ताने स्वर जो पांच हजार वर्षों से प्रभुभक्तों और देशभक्तों को मस्त करते रहे हैं तथा उन्हें वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के बीच सामञ्जस्य का पाठ पढ़ाते रहे हैं। यह है श्रीकृष्ण का सच्चा स्वरूप! यह है एक दृष्टि में महाभारत के श्रीकृष्ण की एक झांकी!
उनके चरित्र से हम जो सबसे बड़ी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, वह यही है कि हमको किसी भी प्रलोभन या भय के वशीभूत होकर अन्याय के सम्मुख सिर नहीं झुकाना चाहिए। फिर चाहे वह अन्याय किसी एक व्यक्ति का हो या समाज का हो या राज्य का हो। इतना ही नहीं अन्याय करने वाला अपना सगा भाई-बन्धु व रिश्तेदार भी क्यों न हो, अगर वह अधर्म के मार्ग पर चलता है तो उसका विरोध करना हमारा कर्त्तव्य है। महर्षि दयानन्द के शब्दों में यही मनुष्यपन का सच्चा धर्म है। यही मनुष्यता या मानवता का सच्चा लक्षण है। - आचार्य दयानन्द शास्त्री

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