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शिशु रोग निदान : एक विमर्श

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बालकों के रोग निदान में सफलता प्राप्त होना बहुत ही दुष्कर कार्य माना गया है। क्योंकि वयस्क तो अपनी पीड़ा शब्दों के द्वारा व्यक्त कर देते हैं। परन्तु शिशु केवल रोकर ही अपनी वेदना को प्रकट करता है। परीक्षण करते समय चिकित्सक को बहुत ही धैर्य का सामना करना पड़ता है। बिना धैर्य के किसी निश्‍चित तथ्य पर पहुँचना मुश्किल होता है।

बालकों में रोग-परीक्षण करते समय कुशलता, अनुभव एवं सतर्क निगाहों का महत्वपूर्ण स्थान है। साथ ही व्यावहारिक बातों की ओर भी ध्यान देना चाहिये। बहुत से सुविख्यात शिशु रोग विशेषज्ञ बालकों के स्वर में बोलकर बहलाते हैं और उनको अपना मित्र बनाने की कोशिश करते हैं। कुछ चिकित्सक तो बालकों को अनुकूल बनाने के लिए अपने पास विभिन्न प्रकार की टॉफियाँ एवं विचित्र प्रकार के खिलौने रखते हैं, ताकि उनसे अपेक्षित सहयोग प्राप्त हो सके। इस संबंध में डॉ. हचिन्सन का कहना है कि चिकित्सक को बालक की ओर घूरकर नहीं देखना चाहिये, बल्कि हँसते हुए प्रसन्न मुद्रा में देखना चाहिए। उन्हें वस्त्रहीन नहीं करना चाहिए। नग्न करने से बालक नाराज हो जाते हैं। जहाँ तक हो, जैसे भी हो, बालक को मित्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

विश्‍व के प्राचीनतम चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद में शिशु से संबंधित विभिन्न प्रकार के रोगों का स्वरूप, कारण और उपचार चिकित्सा जगत के सर्वप्रथम बालरोग विशेषज्ञ महर्षि कश्यप ने नादान एवं मुहँ से न कहकर बता सकने वाले छोटे बालकों में होने वाले अनेक प्रकार के रोगों को उनके हावभाव और चेष्टाओं से पहचानकर उनकी चिकित्सा का विस्तार से वर्णन किया है। आचार्य कश्यप ने उनकी वेदना को इतने अच्छे ढंग से व्यक्त किया है कि चिकित्सक के साथ-साथ माता-पिता भी कुछ अनुभव के पश्‍चात् आसानी से रोग का स्वरूप जान सकते हैं, जिनमें कुछ सामान्य रोगों का उल्लेख किया जा रहा है।

बालक के जिस अंग-प्रत्यंग में पीड़ा होती है, उसे वह बार-बार छूता रहता है। यदि कोई अन्य व्यक्ति पीड़ित स्थान को स्पर्श करता है, तो बालक चिल्लाने लगता है। बालक के कम या अधिक रोने से पीड़ा की कमी या अधिकता का पता लग जाता है। अगर बालक कम या धीरे-धीरे रोता है तो कम पीड़ा एवं अधिक या जोर-जोर से रोता है तो पीड़ा अधिक समझनी चाहिये।

अगर बालक के सिर में दर्द होता है तो वह अपनी आँखें बंद करके रखता है, अपने सिर को धारण या स्थिर नहीं रख पाता। गर्दन को गिराये हुये रखता है तथा सिर को हाथों से मारता है। ललाट की त्वचा सिकुड़ जाती है। बार-बार सिर पर हाथ लगाता है और कान खींचता है।

बालक यदि सर्दी जुकाम से पीड़ित हो जाता है तो उसकी नाक बंद हो जाती है। मुँह से श्‍वास लेने के लिए बार-बार स्तनपान करना छोड़ देता है और श्‍वास लेने के पश्‍चात् फिर स्तनपान करने लगता है।

यदि बालक की नाभि के चारों ओर सूजन आदि लक्षण मिलते हैं तो बालक को पाण्डु रोग या रक्ताल्पता से पीड़ित समझना चाहिए। अगर पाण्डुरोग का समय पर उपचार नहीं किया गया तो उसके नेत्र, नख, मलमूत्र, त्वचा पर पीलापन दिखाई देता है, बालक में किसी प्रकार का उत्साह नहीं रहता है एवं उसकी जठाराग्नि भी नष्ट हो जाती है। यह स्वरूप कामला (जॉण्डिस या पीलिया के नाम से जाना जाता है।

यदि हृष्टपुष्ट एवं स्वस्थ बालक रात में नहीं सोता है, रोता रहता है तथा उसके किसी अंग पर लाल रंग का चकत्ता या दाना दिखाई देता है तो उसको किसी कीड़े या जन्तु ने काटा है, यह समझना चाहिये।

ज्वर से पीड़ित बालक में बार-बार शरीर को सिकोड़ना-मोड़ना, जंभाई, खाँसी आना, सहसा माता से चिपक जाना, स्तनपान या दूध की विशेष इच्छा नहीं होना, मुँह से लार बहना, शरीर गरम तथा विवर्ण, ललाट गरम एवं पैर ठण्डे रहना तथा अरूचि इत्यादि लक्षण पाये जाते हैं।

शिशु के पेट में दर्द हो रहा हो तो वह स्तनपान करना छोड़ देता है, रह-रहकर रोता, पेट के बल लेटा रहता है, उदर में कठोरता, सर्दी लगना तथा चेहरे पर पसीना आना इत्यादि लक्षण मिलते हैं।

बालक का दोनों हाथों से कानों का स्पर्श करना, सिर हिलाते रहना, बेचैनी, खाने-पीने में अरूचि तथा नींद नहीं आना इत्यादि लक्षणों की उपस्थिति कान की वेदना में मिलती है।

प्रमेह रोह से पीड़ित बालक के शरीर में भारीपन, जड़ता, अकस्मात् मूत्र का निकल जाना, उस पर मक्खियों का बैठना, साथ ही मूत्र का वर्ण श्‍वेत एवं गाढा होना।
इसके अतिरिक्त आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार सिर में वेदना होने पर आँखें बन्द रखना, हृदय में पीड़ा होने पर जीभ तथा ओष्ठ को चबाना, श्‍वास फूलना, मुट्ठी बन्द करना तथा नेत्र का इधर-उधर घुमाना आदि लक्षण मिलते हैं।

इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर माता-पिता सही समय पर सही निर्णय लेकर बच्चे को कष्ट से मुक्ति दिला सकते हैं। वैसे भी आजकल अत्याधुनिकक मशीनें रोग निदान के लिये प्रचलित हैं, जिनसे प्रायः रोग का पता चल जाता है। यदि रोग गम्भीर हो अथवा निदान में थोड़ा भी संशय हो, कुछ समझ में नहीं आ रहा हो, ऐसी स्थिति में नैदानिक परीक्षण अवश्य कराना चाहिये अथवा किसी विशेषज्ञ चिकित्सक की सहायता लेनी चाहिये। माता-पिता को चिकित्सक की सलाह के बिना स्वयं ही बालक का उपचार करना घातक सिद्ध हो सकता है।

इन बातों का उल्लेख करना इसलिए भी आवश्यक समझा कि आयुर्वेद में हजारों वर्ष पूर्व जिन रोग परीक्षण सम्बन्धी विधियों का वर्णन मिलता है, वे आज भी अक्षरशः सत्य मिलती हैं। - डॉ. धर्मेन्द्र शर्मा एमडी

रोगों के घरेलू इलाज
यकृत विकार

मूली एवं पत्तों का स्वरस एक कप प्रातः-सायं पानी से लेने से यकृत शोथ शीघ्र ठीक होता है। मूली एवं पत्तों का साग लगातार सेवन करने से यकृत शोथ दूर होता है। प्रातः कड़वी मूली का प्रयोग करना चाहिए। सूखी मूली का भूष (सूप) पीने से यकृत की पुरानी शोथ दूर होती है। मूली का क्षार एक ग्राम दोनों समय भोजनोपरान्त लेने से यकृत शोथ ठीक होता है।
नीम की छाल के रस में शहद मिलाकर सुबह सेवन करने से कामला (पीलिया) में आराम मिलता है। तुलसी की पत्तियों का रस 10 ग्राम, मूली का रस 40 ग्राम मिलाकर गुड़ के साथ पिलाने से पीलिया रोग दूर हो जाता है।

अपच

पेट में अजीर्ण या अपच होने पर अजवाइन, सौंठ, हरड़, सेंधा नमक समभाग लेकर चूर्ण बनाकर रखें। एक-एक चम्मच सुबह-दोपहर-रात पानी से लें।
संतरे की छिली हुई फांकों पर महीन पिसी हुई सोंठ तथा काला नमक छिड़कर खाने से एक सप्ताह के भीतर ही अपच की बीमारी दूर हो जाती हैतथा भूख खूब लगती है। मूली छीलकर बारीक काटकर यथारुचि सेंधा नमक और नींबू का रस डालकर भोजन के बाद सेवन करने से अजीर्ण में लाभप्रद है।
पेट में अपच होने पर ताजी छाछ एक गिलास यथारुचि सेंधा नमक और भुना जीरा डालकर भोजन के साथ लें। - डॉ. हनुमानप्रसाद उत्तम
साभारः निरामय जीवन

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

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