ओ3म् यो अस्मभ्यमरातीयाद्यश्च नो द्विषते जनः।
निन्दाद्यो अस्मान् धिप्साच्च सर्वं तं भस्मसा कुरु॥ यजुर्वेद 11.80
शब्दार्थ- (यः अस्मभ्यम्) जो हमारे प्रति (अरातीयात्) शत्रुता करे, वैर और विरोध रखे (च) और (यः जनः) जो मनुष्यः (नः द्विषते) हमसे ईर्ष्या और द्वेष करता है (यः च) और जो (अस्मान्) हमारी (निन्दात्) निन्दा करे (च) और (धिप्सात्) हमारे साथ छल, कपट और धोखा करना चाहे तू (तम् सर्वम्) उस सबको, उस शत्रुता, द्वेष, निन्दा और छल को (भस्मसा कुरु) भस्म करो।
भावार्थ-
1. यदि कोई शत्रु हमारे साथ शत्रुता करे, हमसे वैर-विरोध रखे तो हम उस शत्रु का वध न करके शत्रुता का वध करें। हम उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार और बर्त्ताव करें कि उसकी शत्रुता की भावनाएँ समाप्त हो जाए और वह हमसे प्रेम करने लग जाए।
2. इसी प्रकार हम द्वेषी का नहीं द्वेष का उन्मूलन करें, द्वेष भावना को काटकर फेंक दें।
3. हम निन्दक से प्यार करें। हाँ, निन्दा का सफाया कर दें।
4. हम छली और कपटी से भी प्रेम करें, छल और कपट का उन्मूलन कर दें। इसके लिए परम साधना की आवश्यकता है और यह कार्य महर्षि दयानन्द जैसे किसी योगी और संन्यासी के लिए ही सम्भव है।
राजाओं सैनिकों को तो शत्रुओं, द्वेषियों और छली-कपटियों को मृत्यु के घाट उतार देना चाहिए। संन्यासी और राजा के धर्म में अन्तर होता है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
Enhancement of Slogans and Blasphemy | Yajurveda | Hostility and Opposition | Hostility | Jealousy and Malice | Deception and Cheating | Behavior | Enemy Spirit | Hate Feeling | Blasphemy | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Fatehganj Purvi - Sahnewal - Morena | News Portal, Current Articles & Magazine Fatehnagar - Sahpau - Narsinghpur | दिव्ययुग | दिव्य युग