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धर्म और विज्ञान

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केवल विज्ञान का आश्रय लेने से संकुचित दृष्टि होती है तथा निरंकुश स्वार्थ हो जाता है, जो कि विनाश की ओर ले जाता है। यही निरंकुश स्वार्थ है, जो आजकल अन्तरराष्ट्रीय नियमों का पदे-पदे उल्लङ्घन का कारण बना जाता है। इसी निरंकुश स्वार्थ के कारण पाश्‍चात्य राष्ट्र परस्पर शान्ति-सौमनस्य लाने में असमर्थ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ये शान्ति-सौमनस्य नहीं चाहते, चाहते हैं, तदर्थ यत्न भी करते रहते हैं, पर इस कार्य में अपयश ही मिल रहा है पाश्‍चात्य राष्ट्रों को ।

डॉ. राधाकृष्णन् का कथन है कि “यदि पाश्‍चात्य जगत् आधुनिक संस्कृति में धर्म को उतना ही स्थान देवे जितना कि वर्तमान विज्ञान को, तो संसार की जटिल समस्याओं का हल निकल सकता है।’’

भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश श्री दास ने कहा था कि “समाज चलता है कानूनों से, पर संसार चलता है धर्म से। संसार का धारण होता है धर्म से।’’
विज्ञान का क्या प्रयोजन है? पहले विज्ञान और धर्म, इन दो संज्ञा शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ समझ लें । क्योंकि विज्ञान युग की ओर पीठ करके खड़े होने वाले धर्मान्धों और धर्माभिमानियों की संख्या कम नहीं है। दूसरी ओर धर्म को सर्वथा त्याज्य मानने वाले वैज्ञानिकों तथा वामपन्थियों का भी प्रबल बल है।

विज्ञान का जन्म- भौतिक सृष्टि के नियमबद्ध अनुशीलन और अभ्यास में से विज्ञान का जन्म हुआ है। और उस विषय में उसकी नियमबद्धता अचूक है। विज्ञान एक प्रचण्ड शक्ति है और उसकी उपेक्षा करना शक्य भी नहीं, इष्ट भी नहीं। वर्तमान विज्ञान तो राजाश्रित है।

वैज्ञानिक किस वस्तु का संशोधन तथा अनुशीलन करे। उसकी कोई मर्यादा है ही नहीं। फिर उस संशोधन, अनुशीलन तथा अभ्यास का उपयोग कहाँ, किस प्रकार से करना चाहिए, इन प्रश्‍नों का निर्णय शासक करते हैं। परिणाम में विज्ञान का सदुपयोग करनाअथवा दुरुपयोग करना है, इस प्रश्‍न का उत्तर राजनीति देती है। पाश्‍चात्य राजनीति, धर्मशून्य राजनीति है। विज्ञान के अनुसन्धान का प्रयोग कहाँ किस प्रकार होना चाहिए, इसका निर्णय धर्मनीति के आश्रय से होना चाहिए। तभी संसार का कल्याण हो सकता है।

विज्ञान और तत्वज्ञान- इन दोनों में बड़ा अन्तर है। विज्ञान ऊपर-ऊपर फिरता रहता है और तत्वाज्ञान जड़ तक पहुंचता है। विज्ञान से कुछ अभ्युदय भले ही मिले, पर तत्वज्ञान के बिना कोरा विज्ञान शून्य के बराबर है। उससे सबका हित नहीं बन सकता। तत्वज्ञान से मनुष्य भली-भाँति जान लेता है कि अमुक वस्तु हेय अथवा छोड़ने योग्य है या अमुक वस्तु उपादेय है। तत्वज्ञानी अन्तिम सत्य को प्राप्त कर सकता है।
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति । न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि ॥
भूतेषु भूतेषु विचिच्य घीराः। प्रत्यात्माल्लकोदमृता भवन्ति॥ (उपनिषद्)

तत्वज्ञानी को भी बड़ा धैर्य चाहिए। तभी तो वह अन्तिम सत्य तक पहुंच सकता है। कहीं बीच में ही अटक गया तो वह न इधर का रहेगा, न उधर का। विज्ञानी तो भूतों की विवेचना में पड़ा रहता है। तत्वज्ञानी भूतों में व्याप्त और भूतों से परे स्थित सत्य को खोज निकालता है। विज्ञानी भूतों में ही उलझा रहता है, जिसका फल है महाविनाश।

आजकल का प्रवाह- आजकल एक विचारधारा चल पड़ी है जो धर्म और विज्ञान में अन्तर डालती है। दोनों में अन्तर बढ़ाती रहती है। विज्ञानवादी जड़ाद्वैत में ही लगा रहता है। तत्वज्ञानी सर्वत्र ओतप्रोत अद्वैत (चेतन) तक पहुंच जाता है। विज्ञानी की श्रद्धा है जड़ाद्वैत में। आजकल के कम्युनिस्ट इसी प्रवाह में बह रहे हैं।

वैदिक धर्म- यदि वैदिक धर्म के सिद्धान्तों को ठीक-ठीक समझ लिया जावे, तो जीवन में आमूल परिवर्तन हो सकता है। व्यष्टि और समष्टि को मार्गदर्शन मिल सकता है। विज्ञान कितनी ही प्रगति करता रहे वह मूल तत्वों को बदल नहीं सकता। लोकमान्य तिलक ने पाश्‍चात्य तत्वज्ञानियों के सिद्धांतों की भारतीय तत्वज्ञानियों के सिद्धांतों से तुलना करके निःसंशय स्वधर्म का श्रेष्ठत्व सिद्ध किया है।

पाश्‍चात्य विद्वानों ने ‘अधिक से अधिकों का अधिक से अधिक हित‘ (ग्रेटेस्ट गुड ऑफ ग्रेटेस्ट नम्बर) यह एक सिद्धान्त निश्‍चित किया है, जिससे संसार अधिक से अधिक सुखी हो सके। पर आजकल के राजनीति-विशारद इसको भी नहीं मानते। इसके विपरीत वे परार्थ का नाश करने के लिए और स्व-स्वार्थ की सिद्धि के लिए वर्तमान विज्ञान शक्ति को निरंकुशता से काम में ला रहे हैं। एक तो निरंकुश स्वार्थ, फिर उसकी सिद्धि के लिए निरंकुश विज्ञान का आश्रय ! फिर तो सर्वनाशक संघर्ष चलेगा ही। उस महती विनष्टि को कौन रोक सकता है?

इस समय आवश्यकता है स्वार्थ और परार्थ का समन्वय करके सच्चा मार्ग दर्शाने वाले मार्गदर्शकों की। विज्ञान यदि तत्वज्ञान के पीछे-पीछे आता है तो उसका स्वागत है । किन्तु यदि वह तत्वज्ञान को अपने पीछे घसीटना चाहता है, तो उसकी मृत्यु आ गई समझिए। विज्ञान धर्माश्रय छोड़कर विशृफल रूप में भटकता फिरता है । पर यदि वह तत्वज्ञान का आश्रय लेवे तो सीधे मार्ग पर आ सकता है। कोरा विज्ञान ले जाता है जड़वाद की ओर, कोरे भौतिकवाद की ओर । तत्वज्ञान ले जाता है व्यापक स्वार्थ की ओर जो कि परार्थ बन जाता है। स्वार्थ परार्थ बन जाये, परार्थ परमार्थ में बदल जाए तो ही संसार सुखी हो सकता है। संसार प्रेमबन्धन में बन्ध सकता है। संसार की क्रूरताएं मिट सकती हैं। कहो, अब कौन बड़ा है। कोरा विज्ञान कि धर्माधिष्ठित तत्वज्ञान? धर्म और विज्ञान में समन्वय करने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह है तत्वज्ञान। 

विज्ञानः 1. जड़त्व की जड़ 2. जड़ाश्रय 3. निरंकुश स्वार्थ का प्रेरक 4. दुःखों की ओर ले जाने वाला । 5. केवल अपने अपने सुख का साधक 6. विज्ञान प्रवृत्ति राजसी या राक्षसी 7. आसुरी संपद् का पोषक।

तत्वज्ञानः 1. सत्य ज्ञान की जड़ 2. चेतनाश्रय 3. स्वार्थ-परार्थ-परमार्थ का साधक 4. आनन्द की ओर ले जाने वाला । 5. सर्व सुखसाधक 6. सात्विकी प्रवृत्ति 7. दैवी संपद का पोषक।•

स्वामी दयानन्द के अमृत वचन-21
जो कोई आचार्य कपिल को अनीश्‍वरवादी कहता है जानो वही अनीश्‍वरवादी है, आचार्य कपिल नहीं । तथा मीमांसा का धर्म धर्मी से ईश्‍वर। वैशेषिक और न्याय भी ‘आत्म’ शब्द से अनीश्‍वरवादी नहीं । क्योंकि सर्वज्ञत्वादि धर्मयुक्त और ‘अतति सर्वत्र व्याप्नोतीत्यात्मा’ जो सर्वत्र व्यापक और सर्वज्ञादि धर्मयुक्त सब जीवों आत्मा है उसको मीमांसा वैशेषिक और न्याय ईश्‍वर मानते हैं ।

प्रश्‍न- ईश्‍वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है या नहीं ?
उत्तर- नहीं । क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए ओर सब मनुष्य महापापी हो जाएं। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाए। जैसे राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगेऔर जो अपराध नहीं करते, वे भी अपराध करने से न डरकर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्‍वर का काम है, क्षमा करना नहीं।•

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