मनुष्य का अर्थ है ‘मत्वा कर्माणि सीव्यति‘ जो बुद्धि के साथ कर्म रूपी वस्त्र सीने वाला हो। मननशील होने से ही ‘मनुष्यत्व’ से वह अलंकृत है। पुरुष का अर्थ है ‘पुरि शरीरे शेते इति पुरुषः’।
इस शरीर में जीवात्मा के रहने से यह पुरुष कहा जाता है। ‘नर’ का अर्थ है ‘न रमते इति नरः’ जो संसार के विषयों में न रमे न फँसे, वही नर कहा गया है।
केवल मनुष्य का जन्म लेने से ही ‘मनुष्य’ मनुष्य नहीं बन जाता, वरन् ‘मनुष्य’ बनने के लिए आवश्यकता है कि मनुष्यता की भावना उसमें पैदा हो और ‘मनुष्यता’ की भावना का कोई ‘इंजेक्शन’ नहीं होता, जिसके लगाते ही मनुष्य ‘मानवता’ की भावना से अनुप्राणित हो जाए। मनुष्य वही है, जो दूसरे मनुष्यों के दुःख तथा हानि को अपना ही दुःख तथा हानि समझता है और जो भीषण से भीषण परिस्थितियों में भी सत्य का पल्ला नहीं छोड़ता। चाहे कैसी भी विकट स्थिति क्यों न हो, पर वह सत्यपथ पर निरन्तर निर्विकार रूप से बढ़ता ही चला जाता है।
मनुष्य-जीवन तभी सार्थक कहा जा सकता है, जब वह न केवल शारीरिक दृष्टि से, अपितु मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी उन्नतिशील हो। यदि मनुष्य में केवल शारीरिक बुद्धि हो और मानसिक तथा आत्मिक विकास न हो, तो मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं रहेगा। मानसिक और आत्मिक विकास का सर्वोत्तम साधन धर्म ही है। धर्म का अर्थ है वे गुण, जो धारण किये जा सकें। जिस प्रकार से हम गन्दे वस्त्रों और बदबूदार वातावरण को धारण नहीं कर सकते, उसी प्रकार उन सम्पूर्ण अवगुणों का हम परित्याग करें जो मानवजीवन को कलंकित करने वाले हैं। अपने दैनिक व्यवहार में इस धर्म का संग्रह करना यही जीवन-दर्शन का पहला कदम है। मनु के शब्दों में-
धर्मं शनैः संचिनुयाद् वल्मीकमिव पुत्तिकाः।
परलोक सहायार्थं सर्वभूतान्यपीडयन् ॥4.238॥
जिस प्रकार दीमक धीमे-धीमे जमीन में से मिट्टी की बांबी (ऊंचा सा ढेर सा) बनाती है, उसी प्रकार सब भूतों को पीड़ा न देते हुए हम अपनी परलोक यात्रा की सहायता के लिये धर्म का संचय करें। यहाँ परलोक की यात्रा का अर्थ स्वर्ग या नरक की कल्पना नहीं है, वरन् अच्छे-अच्छे कर्म करने के लिए मनुष्य को प्रेरित किया गया है। क्योंकि कर्मों का फल भोगे बिना मनुष्य को इस संसार से छुटकारा नहीं । अतः हे मनुष्य! यदि तू अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहता है, तो बिना किसी लाभ के, बिना किसी भय के तथा बिना किसी लोभ के सत्य पथ का अनुसरण कर, उत्तम कार्य कर और उन कार्यों को पूरा करने के लिये यदि तुझे अपना सब कुछ त्यागना पड़े, तो तू उसमें मत झिझक। मनु ने इस मत को स्पष्ट करने के लिये आगे कहा है-
तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनैः।
धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम् ॥4.242॥
हे मनुष्य! अपने अगले जीवन को सार्थक बनाने के लिए इस जीवन में धर्म का नित्य संचय कर तथा उत्तम कर्म कर। इसी के सहारे तू इस भयंकर दुःखसागर को पार कर सकता है। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्य धर्म का संचय किस प्रकार करें ? उत्तर की खोज में भटकती दृष्टि गीताकार पर आकर टिक जाती है। गीता में कहा गया है कि-
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः
सिद्ध्यसिद्ध्यो निर्विकारः कर्त्ता सात्विक उच्यते।
पांच गुणों से युक्त व्यक्ति मानसिक और आत्मिक विकास के मार्ग पर चलने योग्य हो सकता है-
1.सब प्रकार के संग अर्थात् लगाव से मुक्त 2. अभियान रहित 3. धैर्यशील 4. सदा उत्साह धारण करने वाला 5. सफलता-असफलता में सम रहने वाला आत्मिक शान्ति मनुष्य को तभी प्राप्त हो सकती है, जबकि वह इन्द्रियों का दास बनकर न रहे। अपनी महत्वाकांक्षा को सीमित रखे । अपनी उपलब्धियों के प्रति अभिमान तथा अहंकार का भाव उसके मन में जाग्रत न हो। हर परिस्थिति में वह धैर्य रखने वाला हो। मार्ग में पड़ने वाली बाधाएं और विपत्तियाँ उसके मनोबल को न तोड़ें। सफलता तथा असफलता दोनों को समान रूप से स्वीकार करे। अर्थात् सफलता प्राप्त करने पर अहंकारी न बने तथा असफल होने पर उसका मनोबल न टूट जाए।
मनुष्य को सदैव यह बात अपने मन में याद रखनी चाहिए कि जीवन के मार्ग में सदा सफलता मिले यह आवश्यक नहीं, वरन् जीवन में तो असफलता, दुःख, क्लेश, विपरीत अवस्थाएं ही अधिक आ सकती हैं। उन्नति और विकास का मार्ग जिसे कठोपनिषद में श्रेय का मार्ग कहा गया है, कष्ट-क्लेश और पीड़ापूर्ण ही अधिक होता है-
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरीत्य विनिनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।
श्रेय और प्रेय दोनों मार्ग मनुष्य के सामने हैं। धीर पुरुष पूरा विवेचन करता है। वह प्रेय की अपेक्षा श्रेय का वरण करता है। मन्दमति पुरुष सांसारिक सुख-चैन के लिये प्रेय का वरण करता है। इसीलिये धैर्य के साथ श्रेय मार्ग पर चलते हुए आत्मा में कभी अवसाद, निराशा और पराजय की भावना उदित हो तो ऐसी भावनाओं को दूर कर देना चाहिए। मनुष्य को गिराने वाली दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं, अवसाद और अभिमान। मनुष्य को दोनों से बचना चाहिए। भगवान् कृष्ण ने कितने सुन्दर शब्दों में कहा है-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥गीता 6.5॥
मनुष्य अपना उद्धार अपने आप ही करे। अपने आपको कभी भी निराश न होने दे क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही अपना बन्धु, सहायक या स्वयं ही अपना शत्रु है। अपना बन्धु कौन बन सकता है। इसके उत्तर में भगवान् कृष्ण कहते हैं-
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्त्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ गीता 6.6॥
जिसने अपने आपको जीत लिया, वह स्वयं अपना बन्धु है। परन्तु जो अपने आपको नहीं पहचानता, वह स्वयं अपने साथ शत्रु के समान बैर करता है। अतः मनुष्य को सदैव अपने मन में यह बात रखनी चाहिए कि वह ज्योतिपुंज है, शक्ति का महान् स्रोत उसमें निहित है। अतः उसके जीवन की सार्थकता परमुखापेक्षी बनने में नहीं, वरन् अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ ‘कर्मशेत्र’ को जय करने में है।
मनुष्य की सार्थकता महज खड़ा करने में नहीं है, दौलत के अम्बार लगाने में नहीं है, वरन् मनुष्य की सार्थकता है त्याग की भावना से जीवन जीने में, किसी के आंसू पोंछने में, किसी गिरते को सहारा देने में, धैर्य तथा साहस के साथ भयंकर से भयंकर परिस्थितियों में भी ‘सत्य के पथ’ पर निर्विकार-निर्भयतापूर्वक खड़े रहने में। तभी वेद के ‘मनुर्भव’ की भावना को बनाए रखा जा सकता है।
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