ओ3म् अयं लोकः प्रियतमो देवानामपराजितः।
यस्मै त्वमिह मृत्यवे दिष्टः पुरुष जज्ञिषे।
स च त्वानुह्वयामसि मा पुरा जरसो मृथाः ॥ (अथर्ववेद 5.30.17॥)
शब्दार्थ- (अयम्) यह (अपराजितः) अपराजित, किसी से न हराया जाने वाला (लोकः) शरीर (देवानाम्) विद्वानों का (प्रियतमः) अत्यन्त प्यारा है। (पुरुष) हे जीवात्मन् ! (यस्मै) क्योंकि (त्वम्) तू (मृत्यवे) मृत्यु के लिए (दिष्टः) नियत हुआ (इह जज्ञिषे) इस संसार में उत्पन्न होता है (सः च त्वा) ऐसे मृत्यु के भाग में पड़े तुझको (अनुह्वयामसि) हम चेतावनी देते हैं (मा पुरा जरसः मृथाः) तू वृद्धावस्था से पूर्व, बुढ़ापे से पूर्व मत मर।
भावार्थ- वेद में मानव शरीर की बड़ी महिमा है। यह अयोध्या नगरी है। इसी को ब्रह्मपुरी कहते हैं। इसे दिव्य-रथ भी कहा गया है। यह संसार-सागर से पार करने वाली नौका है। इसी मानव-देह में मनुष्य अपने जीवन के परम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। अतः यह शरीर विद्वानों को अत्यन्त प्रिय है।
संयोग का परिणाम वियोग है। जन्म के साथ मृत्यु अवश्यम्भावी है। जन्म से ही मृत्यु मनुष्य के साथ लगी हुई है। कोई कितना ही महान् हो, राजा हो या योगी, तपस्वी हो या संन्यासी, मृत्यु के मुख से बच नहीं सकता।
यद्यपि मृत्यु निश्चित है, परन्तु बुढ़ापे से पूर्व नहीं मरना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपना आहार-विहार, आचार और विचार इस प्रकार के बनाने चाहिएँ, जिससे वृद्धावस्था से पूर्व वह मृत्यु के मुख में न जाए। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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