पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘पर्यावरण’ शब्द ‘परि’ तथा ‘आङ्’ उपसर्गपूर्वक ‘वृञ् आवरणे’ धातु10 से ‘ल्युट्’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है। ‘परि’ का अर्थ सर्वतोभावेन (चारों ओर) एवं ‘आङ्’ का अर्थ सामान्यतः सामने तथा ‘आवरण’ का अर्थ ढकना या आच्छादन करना होता है।
पर्यावरण का अभिप्राय उस समष्टि से है जो मनुष्य एवं उसकी क्रियाओं को घेरे हुए है।
अंग्रेजी के 'Environment' शब्द के विन्यास से यह स्पष्ट है कि इसमें 'Environ' का अर्थ घेरना तथा 'ment' का अर्थ चतुर्दिक् अर्थात् चारों ओर से है। इस प्रकार पर्यावरण का अर्थ है चारों ओर से घेरना। विभिन्न विद्वानों ने ‘पर्यावरण’ को अपने-अपने ढंग से निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
जिंसवर्ट के अनुसार “प्रत्येक वह वस्तु जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरती है एवं उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालती है, वह ‘पर्यावरण’ कहलाता है।’’
हर्सकोविट्स के अनुसार- “पर्यावरण उन सब बाहरी दशाओं और प्रभावों का योग है, जो प्राणी या अवयवों के जीवन और विकास पर प्रभाव डालते हैं।’’ फिटिंग के अनुसार “जीवों के परिवेशीय कारकों का योग पर्यावरण है। पर्यावरण से अभिप्राय भूमि या मानव को चारों ओर घेरे उन सभी भौतिक स्वरूपों से है, जिनमें न केवल वह रहता है, बल्कि जिनका प्रभाव उसकी आदतों एवं क्रियाओं पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इस प्रकार के स्वरूपों में धरातल, भौतिक एवं प्राकृतिक संसाधन, मिट्टी की प्रकृति तथा उसकी स्थिति, जलवायु, वनस्पति, खनिज सम्पदा, जल-थल का वितरण, पर्वत, मैदान, सूर्यताप आदि हैं, जो भूमण्डल पर घटित होते हैं एवं जो मानव को प्रभावित करते हैं।11 ई.जे. रॉस के अनुसार “पर्यावरण एक बाह्य शक्ति है, जो हमें प्रभावित करती है।’’ एस.जी.टान्स्ले के अनुसार- “पर्यावरण उन सम्पूर्ण प्रभावी दशाओं का योग है जिनमें जीव रहते हैं।’’12
अतः यह कहा जा सकता है कि ‘पर्यावरण’ से आशय उन घेरे रहने वाली पस्थितियों, प्रभावों तथा शक्तियों से है, जो सामाजिक और सांस्कृतिक दशाओं के समूह द्वारा व्यक्ति या समुदाय के जीवन को प्रभावित करती हैं। संक्षेप में निकटवर्ती परिस्थितियों को ‘पर्यावरण’ का नाम दिया जा सकता है। ये परिस्थितियाँ प्रकृतिप्रदत्त अथवा मनुष्यकृत हो सकती हैं।
‘पर्यावरण’ को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि हमारे चारों ओर विद्यमान समस्त भौतिक-जैविक, सूक्ष्म-स्थूल प्राकृतिक पदार्थों का अस्तित्व और उससे उत्पन्न परिस्थितियाँ तथा उनका समन्वित प्राकृतिक वातावरण, जिसके अन्तर्गत सभी प्राणी जीवन धारण करते हैं, श्वास लेते हैं, खाते-पीते और जीवन जीते हैं, वह ‘पर्यावरण’ कहलाता है।
पर्यावरण के अर्थ से स्पष्ट है कि ‘पर्यावरण’ जैविक तथा अजैविक कारकों के आपसी सम्बन्धों की प्रक्रिया अथवा वे समस्त बाह्य शक्तियाँ हैं, जो जीव को प्रभावित करती हैं, जिन्हें सम्मिलित रूप से प्राकृतिक पर्यावरण कहते हैं। मनुष्य इस प्राकृतिक पर्यावरण का सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है। उसने सदैव से ही प्रकृति को अपने अनुकूल अथवा स्वयं को प्रकृति के अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया है, जिसके परिणामस्वरूप धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला, विज्ञान, भाषा, आचार-विचार संस्कार आदि का उदय हुआ। इन सभी तत्वों ने मिलकर जिस परिवेश का निर्माण किया, वह है मानव निर्मित पर्यावरण।
अतः प्रमुख रूप से पर्यावरण दो प्रकार है- प्राकृतिक पर्यावरण तथा मानव निर्मित पर्यावरण। प्राकृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत पञ्चभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी आदि जीव-जन्तु तथा सूक्ष्म जीवाणु आदि सम्मिलित हैं। मानव निर्मित पर्यावरण के अन्तर्गत आर्थिक क्रियाएँ, आवासीय दशाएँ तथा पारिवारिक-सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक-मानसिक-शारीरिक परिस्थितियाँ आदि सम्मिलित हैं।
‘पर्यावरण विज्ञान’ अथवा ‘पर्यावरण का अध्ययन’ आधुनिक समय का एक अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। आधुनिक वैज्ञानिक तथा औद्योगिक प्रगति ने तथा बढ़ती जनसंख्या ने पर्यावरण को इस प्रकार प्रदूषित करना आरम्भ कर दिया है कि मानव के अस्तित्व को ही भय उत्पन्न हो गया है। नदियों के तटों पर स्थित नगरों की गन्दगियाँ तथा कारखानों के अपशिष्ट पदार्थ जलवायु एवं भूमि को अत्यधिक प्रदूषित कर रहे हैं। यह बहुत ही भयावह स्थिति हैा। अतः पर्यावरण का अध्ययन एवं प्रदूषण को रोकने के उपाय करना अनिवार्य हो गया है।
मानव द्वारा की जाने वाली समस्त क्रियाओं का प्रभाव पर्यावरण पर नियमित रूप से पड़ता रहता है। इनसे पर्यावरण परिवर्तित होता है तथा प्रदूषित हो जाता है, जो मानव समाज के लिए हानिकारक है। नैसर्गिक प्रक्रियाएँ इस प्रदूषण को कम करती हैं और पर्यावरण को शुद्ध करती हैं। परन्तु मानव की विभिन्न गतिविधियों द्वारा यह ‘पर्यावरण’ अनेक बार इतना अधिक प्रदूषित हो जाता है कि नैसर्गिक प्रक्रियाएँ इसको पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं कर पाती।
सूर्य की किरणें, बहती हुई वायु, वर्षा का जल, नदियों के प्रवाह, वनस्पति आदि तत्व पर्यावरण को नैसर्गिक रूप से शुद्ध करते रहते हैं। परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में ये नैसर्गिक शक्तियाँ पर्यावरण को पूर्ण रूप से शुद्ध करने में असमर्थ हो रही हैं। आकाश में बढ़ते हुए शोर, कारखानों की चिमनियों से निकलते तथा वाहनों में जलते तेल के धुएँ और विषैले अपशिष्ट पदार्थों ने जल और पृथ्वी को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। इसी कारण सुनने में आ जाता है कि कहीं तेजाबी वर्षा हो रही है और कहीं नदियों एवं कुओं का जल प्राणियों के उपयोग के योग्य नहीं रह गया है। भूमि से उत्पन्न होने वाले अन्नादि में भी विष उत्पन्न होने की खबरें मिलती रहती हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- ये पांचों तत्त्व प्रदूषित होकर मनुष्य को हानि पहुंचा रहे हैं। अतः ‘पर्यावरण’ की रक्षा करना आवश्यक हो गया है।
‘पर्यावरण’ हमारे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। इसलिए पर्यावरण की जानकारी होना अत्यन्त आवश्यक है। स्वस्थ पर्यावरण तथा स्वास्थ्य पर सबका समान अधिकार है। मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण अत्यधिक प्रदूषित हो जाए तथा वह घातक बन जाए, इससे पहले यह आवश्यक है कि मानव अपने गतिविधियों पर नियन्त्रण करे, ताकि पर्यावरण की रक्षा हो सके तथा स्वस्थ रहा जा सके। स्वस्थ पर्यावरण ही प्राणिमात्र को खुशहाल रखने में सहायक होता है।
पर्यावरण यदि प्रदूषित हो गया, तो ज्ञात-अज्ञात अनेकविध रोगों की उत्पत्ति हो जायेगी और ये रोग दीर्घ जीवन के विनाशक होते हैं, दीर्घजीवन न होने पर जीवन का लक्ष्य अधूरा रह जाता है। मनुष्य ही नहीं विविध जीवधारियों का जीवन पर्यावरण के सन्तुलन पर ही आश्रित रहता है। ये प्रदूषण के कारण जीवन धारण करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। इस प्रकार सारी सृष्टि का जीवन पर्यावरण पर ही आश्रित है। पर्यावरण के प्रदूषित होने पर प्राणिमात्र का जीवन नष्ट हो जाता है, चाहे वे मनुष्य हों, चाहे पशु-पक्षी हों और चाहे वनस्पति हों। इस प्रकार जीवन को निर्विघ्न सम्पन्न करने के लिए पर्यावरण का संरक्षण अत्यावश्यक है, इसके बिना जीवन का अस्तित्व ही संकटापन्न हो जायेगा। (क्रमशः)
सन्दर्भ-
10. पाणिनीय धातुपाठ, चुरादिगण
11. पर्यावरणीय शिक्षा, पृ.2, डॉ. प्रभा दीक्षित
12. पर्यावरण तथा प्रदूषण, पृ.3, डॉ. रामनिवास यादव
Environment: Detailed Explanation, Format and Importance | Manusmriti | Jabal Smriti | Mundakopanishad | Brihadaranyaka Upanishad | The Purpose of Education | Life Formation | Best Education | The Glory of Virtue | Divyayug | Divya Yug