उपनिषद्- यजुर्वेद वाङ्मय के उपनिषदों के प्रतिपाद्य विषय का विवरण इस प्रकार है- ‘ईशोपनिषद्’ शुक्ल यजुर्वेदीय माध्यन्दिन शाखा का 40वां अध्याय है। इसमें केवल 18 मन्त्र हैं, जिनमें ज्ञानदृष्टि से कर्म की उपासना का रहस्य समझाया गया है।
यह उपनिषद् ‘कर्मसंन्न्यास’ का पक्षपाती न होकर आजीवन निष्काम भाव से कर्म किए जाने की प्रेरणा करता है।
इस उपनिषद् में ब्रह्म का स्वरूप बताया गया है तथा विद्या-अविद्या, सम्भूति-असम्भूति का विवेचन किया गया है। विश्वबन्धुत्व की भावना का भी इसमें उल्लेख है। इसमें कर्म और ज्ञान का समन्वय किया गया है।
शतपथ के अन्तिम छः अध्यायों को ही ‘बृहदारण्यकोपनिषद्’ कहा जाता है। इसमें आरण्यक तथा उपनिषद् का मिश्रण होने से ही इसका यह नाम है। यह प्राचीनतम तथा महत्वपूर्ण उपनिषद है।
शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित बृहदारण्यकोपनिषद् के प्रथम अध्याय में मृत्यु, प्राणों की श्रेष्ठता, सृष्टि आदि विषयक आख्यायिकाओं तथा सिद्धान्तों का वर्णन है। दूसरे अध्याय में ऋषि गार्ग्य तथा काशीराज अजातशत्रु का संवाद है। इसी अध्याय में याज्ञवल्क्य द्वारा अपनी पत्नी मैत्रेयी को दिया गया दार्शनिक उपदेश है। तृतीय तथा चतुर्थ अध्यायों में जनक तथा याज्ञवल्क्य के ब्रह्म विषयक आख्यान हैं। चतुर्थ अध्याय में कात्यायनी तथा मैत्रेयी का आख्यान भी है। पञ्चम अध्याय में नीति, सृष्टि तथा परलोक विषयक दार्शनिक विषयों का विवेचन है। षष्ठ अध्याय में प्रवहण जैबलि तथा श्वेतकेतू आरुणेय का दार्शनिक संवाद है, जिसमें जैबलि ने पञ्चाग्नि विद्या का विशद विवेचन किया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य का तत्त्वज्ञान बड़ा ही विशद तथा विद्वत्तापूर्ण है। वे उस युग के सबसे बड़े तत्त्वज्ञानी माने जाते हैं।
कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा से सम्बन्धित ‘कठोपनिषद्’ अपने गम्भीर तत्त्वज्ञान के लिए प्रसिद्ध है। इसमें दो अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में तीन वल्लियाँ है। कठोपनिषद् में यम-नचिकेता के आख्यान द्वारा ब्रह्म और उसके स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें योग तथा अध्यात्म से सम्बन्धित विशद विवेचन है।
कृष्ण यजुर्वेदीय तैतिरीयारण्यक का अन्तिम भाग ही ‘तैतिरीयोपनिषद्’ है। इसमें तीन अध्याय हैं। प्रथमाध्याय ‘शिक्षावल्ली’ में वर्ण, स्वर, मात्रा और बल का विवेचन है। इस वल्ली में स्नातक के लिए आचार्य का महत्वपूर्ण उपदेश भी है। द्वितीयाध्याय ‘ब्रह्मवल्ली’ में ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन है। तृतीयाध्याय ‘भगुवल्ली’ में भृगु और वरुण का संवाद है, जिसमें ब्रह्म का स्वरूप समझाया गया है। इसी में माता-पिता, आचार्य तथा अतिथि को ‘देव’ कहा गया है।
‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’ के प्रथम दो अध्यायों में ब्रह्म के स्वरूप तथा योग के सिद्धान्तों का विशद वर्णन है। तृतीय से पंचम अध्यायों में शैव तथा सांख्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। अन्तिम षष्ठ अध्याय में गुरुभक्ति का तत्त्व वर्णित है। भक्तितत्व का प्रथम प्रतिपादन इस उपनिषद् की मुख्य विशेषता है। सांख्य तथा वेदान्त के उदयकाल के सिद्धान्तों की जानकारी के लिए यह उपनिषद् महत्वपूर्ण है। इसमें कुल छः अध्याय हैं।
‘मैत्रायणीयोपनिषद्’ में सात प्रपाठक हैं। इसमें सांख्य दर्शन के तत्त्व, योग के षडङ्गों तथा हठयोग के मूल सिद्धान्तों का वर्णन है, जो दर्शन के विकास को समझने के लिए बहुत उपादेय हैं।
कृष्ण यजुर्वेद के तैतिरीय आरण्यक का दशवां प्रपाठक ही ‘महानारायणीयोपनिषद्’ कहा जाता है। इसके अनुवाकों की संख्या के विषय में मतभेद हैं। कुल मिलाकर इसमें 64 या 74 या 80 अनुवाक बताए जाते हैं। इस उपनिषद् में भी अन्य उपनिषदों की भांति परमात्म तत्त्व के विषय में बताया गया है। इसमें एक तत्त्वज्ञानी के जीवन की व्याख्या यज्ञ के रूप में की गई है, इसीलिए इसका एक नाम ‘याज्ञिकी उपनिषद्’ भी है। इसमें सत्य, तप, दया, दान, धर्म, यज्ञ, अग्निहोत्र आदि विषयों का भी विवेचन मिलता है।
सूत्र ग्रन्थ- सूत्रग्रन्थों को कल्प भी कहा जाता है। इनके अन्तर्गत श्रौत, गृह्य, धर्म तथा शुल्वसूत्र समाविष्ट हैं।
श्रौतसूत्रों में शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित ‘कात्यायन श्रौतसूत्र’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसे श्रौत साहित्य का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है। इस श्रौतसूत्र की मुख्य आधारशिला शतपथ ब्राह्मण है। इसमें 26 अध्याय हैं। प्रथम 10 अध्यायों में अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमासेष्टि, पिण्डपितृयज्ञ, दाक्षायण, आग्रायण, अग्न्याधान, पुनराधान, अग्न्युपस्थान, मित्राविन्देष्टि, अग्निष्टोम तथा प्रातः-सायं-माध्यन्दिन सवन आदि विषयों का क्रमशः वर्णन है। एकादश अध्याय में ‘ब्रह्मा’ नामक ऋत्विज् के कार्य तथा उपयोग का वर्णन है। 12 से 21 अध्याय तक द्वादशाह, गवामयन, वाजपेय, राजसूय, अग्निचयन, सौत्रामणि, अश्वमेध, पुरषमेध, सर्वमेध तथा पितृमेध का विधिवत् सुव्यवस्थित रूप से वर्णन उपलब्ध होता है। 22 से 24 अध्याय का प्रतिपाद्य विषय क्रमशः एकाह, अहीन तथा सत्र से सम्बद्ध है। 25वें अध्याय में उत्पातों के शमन तथा यज्ञ में विहित त्रुटियों के मार्जन के प्रायश्चित का विषय वर्णित है। अन्तिम 26वें अध्याय में प्रवर्ग्य का विवरण है।
कृष्णयजुर्वेद से सम्बन्धित सभी श्रौतसूत्रों-आपस्तम्ब, बौधायन, हिरण्यकेशी, भारद्वाज, वैखानस, वाधूल तथा मानव में भी ‘कात्यायन श्रौतसूत्र’ वाले विषयों का ही विशद विवेचन है। गृह्यसूत्रों में सर्वाधिक प्रसिद्धि शुक्ल यजुर्वेदीय ‘कात्यायन (पारस्कर) गृह्यसूत्र’ की है। इस तथा कृष्ण यजुर्वेदीय गृह्यसूत्रों आपस्तम्ब, बौधायन, सत्याषाढ, वैखानस तथा कठ में गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित पञ्चमहायज्ञों तथा मनुष्य जीवन के सोलह संस्कारों का विवेचन है तथा उनकी विधियाँ हैं। पञ्च महायज्ञों के नाम हैं- देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ।
गृह्यसूत्रों में उल्लिखित मनुष्य जीवन से सम्बन्धित सोलह संस्कार ये हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, पाणिग्रहण, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अन्त्येष्टि। इनमें प्रथम तीन संस्कार मनुष्य के जन्म से पूर्व किये जाते हैं, बीच के बारह संस्कार जन्म के बाद तथा अन्तिम ‘अन्त्येष्टि संस्कार’ मृत्यु के बाद होता है। संस्कारों से व्यक्ति के जीवन से दोषों का परिहार होता है तथा जीवन में गुणों का विकास होता है।
धर्मसूत्र भी कल्प सूत्रों के अंग हैं। शुक्ल यजुर्वेद का कोई धर्मसूत्र नहीं है। धर्मसूत्रों में आपस्तम्ब तथा बौधायन विशेष प्रसिद्ध हैं तथा ये कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं। इन धर्मसूत्रों में विवाह से उत्पन्न सन्तानों में सम्पत्ति के उत्तराधिकार का विवेचन प्रमुख रूप से हुआ है। इनमें व्यक्ति के आचार-व्यवहार तथा कर्त्तव्य कर्मों का विवेचन किया गया है। सामान्यतः चारों वर्णों के कर्त्तव्यों के विवेचन के बाद राजा के कर्त्तव्य-कर्मों का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। गृहस्थ व्यक्ति के नित्-नैमित्तिक कर्मों का भी इनमें वर्णन है। आर्यों के विधि साहित्य में धर्मसूत्रों की मुख्य रूप से गणना होती है।
शुल्व सूत्रों में कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित ‘बौधायन शुल्व सूत्र’ सबसे बड़ा तथा प्राचीनतम है। शुक्ल यजुर्वेद का एक ही शुल्व सूत्र ‘कात्यायन शुल्व सूत्र’ है। यह भी बड़ा तथा प्रसिद्ध है। इन तथा अन्य कृष्ण यजुर्वेदीय शुल्व सूत्रों- आपस्तम्ब, मानव, मैत्रायणीय, वाराह तथा वाधूल में वेदिका और मण्डप आदि के निर्माण के लिए उचित लम्बाई-चौड़ाई तथा उसके बनाने की विधि आदि का वर्णन है। इनकी उपयोगिता ज्यामिति (रेखागणित) की दृष्टि से विशेष है। शुल्व सूत्रों को भारतीय गणितशास्त्र का प्राचीनतम अवशेष माना जाता है। भारतीय रेखागणित (ज्यामिति) का इतिहास जानने के लिए ये शुल्वसूत्र महत्वपूर्ण हैं। कर्मकाण्ड के साथ मुख्यतः सम्बद्ध होने के कारण ‘शुल्वसूत्र’ यजुर्वेद की ही शाखाओं में पाए जाते हैं।
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