ओ3म् उपक्षेतारस्तव सुप्रणीतेऽग्ने विश्वानि धन्या दधानाः।
सुरेतसा श्रवसा तुञ्जमाना अभिष्याम पृतनायूँरदेवान्॥ (ऋग्वेद 3.1.16)
शब्दार्थ- (सुप्रणीते अग्ने) हे उत्तम मार्ग पर ले जाने वाले ज्ञानस्वरूप परमात्मन्! (तव उपक्षेतारः) तेरे समीप रहने वाले, तेरे उपासक हम (विश्वानि) सम्पूर्ण (धन्या) धन्यता प्रदान करने वाले शुभ गुणों को (दधानाः) धारण करते हुए (सुरेतसा) उत्तम वीर्य से और (श्रवसा) अन्न, ज्ञान और यश से (तुञ्जमानाः) दीप्त होते हुए, जगमगाते हुए (पतनायून् अदेवान्) सेना लेकर आक्रमण करने वाले राक्षसों और राक्षसी भावनाओं को (अभि स्याम) नीचा दिखा दें, उन्हें दबा दें।
भावार्थ-
1. ईश्वर समस्त संसार का नेता है, वह हमें आगे ले जाने वाला है, वह हमारा उन्नति साधक और सुमार्गदर्शक है।
2. उपासकों को ऐसे सुपथ दर्शक परमात्मा के समीप बैठकर धन्यता प्रदान करने वाले, यश प्रदान करने वाले उत्तमोत्तम गुणों को धारण करना चाहिए।
3. हमें बलशाली बनना चाहिए।
4. हमें यशस्वी बनकर अपनी दीप्ति से संसार में जगमगाना चाहिए।
5. हमारे ऊपर सेना लेकर आक्रमण करने वाले बाहरी शत्रुओं को अथवा काम, क्रोध, लोभ, मोह, अदानशीलता आदि आन्तरिक शत्रुओं को मारकर परे भगा देना चाहिए। उन्हें दबाकर उन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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