विशेष :

वेद में ‘रयि’ शब्द धन का वाचक है। धन वह होता है जिससे धनवान् ‘धन्य’ कहलाए। मनुष्य अपने गुणों, सुकर्मों और सुसन्तान के द्वारा यश पाता है और लोग उसके लिए ‘धन्य, धन्य’ कहते हैं। ऋषि की इन्द्र से प्रार्थना है कि हमें ज्ञानी (चित्र), बलवान् (वृषा) धन (रयि) पुत्र दीजिए। ऋग्वेद के सूक्त 10.47 के मन्त्रों में पुत्र के कुछ गुण बताए गए हैं

स्वायुध=चारों ओर विद्यमान प्रलोभनों से उत्तम प्रकार से युद्ध करता है। स्व्-अवस=अच्छी तरह इन्द्रियों की रक्षा करने वाला। विषय इन्द्रियों को आकृष्ट करते हैं, पर यह इस संघर्ष में उनका साम्मुख्य करता हुआ विजयी होकर इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है। और इस प्रकार ‘सु-नीथ’ (=सुनयन=उत्तम मार्ग से चलने वाला, सदाचारी) कहलाता है।

2. चतुः-समुद्र=सदाचारी होने के साथ ही, पुत्र चारों (ज्ञान-) समुद्रों में अवगाहन करने वाला हो। आचार्य के पास रहकर ज्ञान उपार्जन करने वाला। दिए गए ज्ञान को अपनी निधि समझे और धरुणं रयीणाम्=उन ज्ञान-जलों (रयि=जल) को धारण करे, अर्थात् आचरण में लाए। यस्तु क्रियावान् स पण्डितः, जो ज्ञान को आचरण में लाए वही विद्वान होता है ।

3. चर्कृत्य=सदाचारी और ज्ञानी होने के साथ ही वह प्रभु के स्तवन=गुणगान में रुचि रखता हो। और इस प्रकार शंस्य=प्रशंसनीय जीवनवाला बने। ऐसा ही पुत्र भूरि-वार, माता-पिता और समाज के दुःखों को दूर करने वाला तथा सबका चहेता होता है। इस मन्त्र (10.47.2) में पुत्र को सदाचारी, ज्ञानी और प्रभुभक्त बनकर पिता के दुःखों को दूर करने वाला होने की कामना की गई है।

4. सु-ब्रह्मा=उत्तम स्तुतिवाला। प्रभु के कल्याणतम रूप को देखने वाला वह बने। ‘सब प्राणियों में ईश्‍वर का वास है’ इस रूप में प्रभु का चिन्तन करे। वह इससे देववान्=देवों वाला बनेगा और बुराइयों से बचा रहेगा। वह किसी से द्वेष नहीं करेगा। आत्मौपम्य की भावना से सबके साथ वर्तता हुआ बृहत्=सभी को आत्मवत् देखता हुआ वह सचमुच बड़ा हो जाएगा। उरु=वह विशाल हृदय वाला होगा। गभीर=उसके जीवन में गाम्भीर्य होगा और ‘पृथु-बुघ्न’=उसका कोई भी कार्य संकुचित स्वार्थ की नींव पर स्थित नहीं होगा।

श्रुत-ऋषि=वह सत्संगप्रिय हो और तत्त्वदर्शी ज्ञानियों को सुनने वाला हो। इस प्रकार उत्तम ज्ञान को प्राप्त होता हुआ वह उग्र=उत्कृष्ट स्वभाव वाला बने। साथ ही, अधिकाधिक उत्कर्ष पाकर भी अभिमातिषाह, अभिमान का पराभव करने वाला हो।

मन्त्रों में ऐसी सन्तान की प्रार्थना है जो सबमें आत्म-भावना करता हुआ सभी के हित की भावना से कर्म करता हो और सत्संगरुचि होकर ज्ञानी बन के अभिमान से सदा दूर रहे।

उत्तम भोजन और संयम द्वारा बलवान्, साथ ही विप्रवीर=ज्ञानियों में श्रेष्ठ और तरुण=सब बाधाओं को तैरने में समर्थ हो। पुत्र केवल शारीरिक शक्ति का ही धनी नहीं अपितु ज्ञानी और शूर भी हो तथा शक्ति और ज्ञान से सम्पन्न होकर सब विघ्नों को दूर करने वाला हो।

धन-स्पृत्=धन को उत्तम कार्यों में दान करने वाला और इस कर्म से शुशूवान् इसका यश चारों ओर फैल गया है। इसके जीवन में कंजूसी नहीं हो और यह कीर्ति का भाजन हो। सु-दक्ष=कार्यदक्षता और कुशलता से जनों का नेतृत्व करने वाला हो। दस्यु-हन्=राष्ट्र के विध्वंसकों की शक्ति को नष्ट करे। पूर्भिद्=शत्रुओं के दुर्गों का विध्वंस करने वाला हो और सत्य=उसका जीवन सत्य पर स्थित हो।

इन मन्त्रों के अनुसार आदर्श पुत्र वह है जो शक्ति और ज्ञान से सम्पन्न होकर तथा दान और दक्षता से युक्त होकर सत्य की तलवार से शत्रुओं को पराजित करता है।

Ideal Son | The Wise | Commendable | The Pride | Signs of True Wealth | Health Promotion | Sickness | Success Bravery | Highest Peak | Promising | Sovereignty | Health Promotion | Castaway | Power of Life | Divyayug | Divya Yug