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द्वितीय अध्याय : यजुर्वेद एवं वाङ्मय पर्यावरण

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यजुर्वेद वाङ्मय का प्रतिपाद्य
संहिता- यजुर्वेद की सर्वप्रसिद्ध शाखा वाजसनेयी माध्यन्दिनी संहिता है। शुक्ल यजुर्वेद की इस संहिता में 40 अध्याय, 303 अनुवाक तथा 1975 मन्त्र हैं।
वाजसनेयी संहिता के प्रथम तथा

द्वितीय अध्यायों में दर्श एवं पौर्णमासेष्टियों से सम्बद्ध मन्त्र हैं। तृतीय अध्याय में दैनिक अग्निहोत्र, पिण्डपितृयज्ञ तथा ऋतुओं के प्रारम्भ में किए जाने वाले चातुर्मास्य यज्ञों के लिए उपयोगी मन्त्रों का वर्णन है। चतुर्थ से अष्टम अध्याय तक सोमयाग (अनिष्टटोम) के मन्त्र हैं। नवम तथा दशम अध्याय के मन्त्र वाजपेय तथा राजसूय यज्ञों से सम्बन्ध रखते हैं। ग्यारह से तेरहवें अध्याय राजा-प्रजा के कर्त्तव्य, कृषि, पठन-पाठन एवं पारिवारिक व्यवहारों से सम्बन्धित मन्त्र हैं। चौदहवें तथा पन्द्रहवें अध्याय में ऋतुओं का वर्णन है। सोहलवां अध्याय रुद्राध्याय है, जिसमें ‘रुद्र’ के विभिन्न रूपों का उल्लेख है। सत्रहवें तथा अठारहवें अध्यायों में सूर्य, मेघ, गृहाश्रम तथा गणित विद्या से सम्बन्धित मन्त्र एवं राजा-प्रजा व्यवहारों से सम्बन्धित मन्त्रों का संकलन है। ग्यारह से अठारह तक के अध्यायों में अग्निचयन (वेदिका निर्माण) से सम्बन्धित मन्त्र भी हैं। 19 से 21 अध्यायों में ‘सौत्रामणि’ यज्ञ से सम्बन्धित मन्त्र हैं। 22 से 25 अध्यायों में राष्ट्र एवं अश्‍वमेध से सम्बन्धित मन्त्र हैं। 26 से 29 अध्यायों में भी पूर्वोक्त विषयों से सम्बन्धित मन्त्र हैं।

30वें अध्याय में परमेश्‍वर का स्वरूप एवं राजा के कर्त्तव्यों का उल्लेख है। 31वां अध्याय ‘पुरुष सूक्त’ है, जिसमें सृष्टि-विद्या का विषय है। 32 तथा 33 वें अध्यायों में भी सृष्टि, अग्नि, इन्द्र, वायु, अन्न आदि से सम्बन्धित मन्त्र हैं। 34वें अध्याय में विशेष रूप से मन के स्वरूप से सम्बन्धित मन्त्र हैं। 35 से 39 अध्यायों में सृष्टि-विद्या, सृष्टि में शान्ति और सन्तुलन स्थापन तथा अन्त्येष्टि संस्कार से सम्बन्धित मन्त्र हैं। 40वाँ अध्याय ईशोपनिषद् है, जिसका विषय विशेष रूप से अध्यात्म है।

शुक्ल-यजुर्वेद की काण्व-संहिता में ‘वाजसनेयी संहिता’ वाला ही विषय है, मात्र कुछ यज्ञ सम्बन्धी मन्त्रों की अधिकता है। काण्वशाखा का प्रचार आजकल महाराष्ट्र प्रान्त में ही है, जबकि वाजसनेयी शाखा का प्रचार पूरे भारत, विशेष रूप से उत्तरी भारत में ज्यादा है। काण्व संहिता में 40 अध्याय, 328 अनुवाक तथा 2086 मन्त्र हैं। वाजसनेयी संहिता से इसमें 111 मन्त्र अधिक हैं।

कृष्ण-यजुर्वेद से सम्बन्धित सभी शाखाओं में विषय तो ‘शुक्ल-यजुर्वेद’ की शाखाओं वाला ही है। अन्तर केवल यह है कि शुक्ल-यजुर्वेद में जहाँ केवल मन्त्रों का निर्देश है, वहाँ कृष्ण-यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ तद्विधायक ब्राह्मण भी सम्मिश्रित हैं।
कृष्ण यजुर्वेद की सर्वप्रसिद्ध शाखा तैतिरीय संहिता है। तैतिरीय संहिता में 7 काण्ड, 44 प्रपाठक तथा 631 अनुवाक हैं। इसमें शुक्ल यजुर्वेद की ‘वाजसनेयी संहिता’ वाले विषयों का ही विशद वर्णन है। आचार्य सायण की यही अपनी शाखा थी।

कृष्ण-यजुर्वेद की चारों संहिताओं में विषय तथा अनुष्ठान समान हैं तथा ‘शुक्ल-यजुर्वेद’ वाले विषयों का ही वर्णन इनमें है। ये भिन्न-भिन्न शाखाओं की मन्त्र संहिताएँ एक ही मूलभूत वेद की अवान्तर शाखाएँ हैं, जो अध्येतृगणों की विशिष्टता तथा विभिन्नता के कारण ही भिन्न सी हो गई है।9-

ब्राह्मण- यजुर्वेद के दो ब्राह्मण पूर्ण रूप से प्राप्त होते हैं- शतपथ तथा तैतिरीय।
शुक्ल यजुर्वेद के ब्राह्मण का नाम ‘शतपथ ब्राह्मण’ है। सौ अध्याय होने के कारण ही इसका यह नाम पड़ा है।

शुक्ल यजुर्वेद की उपलब्ध दोनों शाखाओं माध्यन्दिन और काण्व के अपने-अपने ब्राह्मण है, किन्तु दोनों का नाम शतपथ ही है। दोनों का विषय एक है, परन्तु क्रम में भिन्नता है। माध्यन्दिन शाखा के शतपथ ब्राह्मण में 14 काण्ड, 100 अध्याय, 68 प्रपाठक, 438 ब्राह्मण तथा 7624 कण्डिकाएँ हैं। काण्व शाखा के शतपथ ब्राह्मण में 17 काण्ड, 104 अध्याय, 435 ब्राह्मण तथा 6806 कण्डिकाएँ हैं। इसमें प्रपाठक नहीं है, जो कि माध्यन्दिन शतपथ में हैं। वर्तमान् में सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा प्रचलन में माध्यन्दिन शाखा का शतपथ ब्राह्मण है। अतः उसी आधार पर परिचय दिया जाता है।

शतपथ ब्राह्मण के प्रथम काण्ड में दर्शपौर्णमासेष्टि का वर्णन है। द्वितीय काण्ड में दैनिक अग्निहोत्र, पिण्डपितृयज्ञ, आग्नायण यज्ञ तथा चातुर्मास्य यज्ञों का विषय है। तृतीय-चतुर्थ काण्ड में अग्निष्टोम तथा ज्योतिष्टोम यज्ञों का वर्णन है। पञ्चम काण्ड में राजसूय और सोमयाग, इन दो यज्ञों का वर्णन है। षष्ठ से दशम काण्डों में अग्निचयन का प्रतिपादन है। इन काण्डों में कुछ ऐतिहासिक स्थानों तथा शाण्डिल्य एवं याज्ञवल्क्य ऋषियों का उल्लेख भी आता है। एकादश काण्ड में दर्शपौर्णमास तथा पञ्चमहायज्ञों का विवरण है। द्वादश काण्ड मेें द्वादश सत्र, संवत्सर सत्र, सौत्रामणि तथा अन्त्येष्टि आदि का विस्तारपूर्वक उल्लेख है। त्रयोदश काण्ड का विषय अश्‍वमेध, नरमेध, सर्वमेध तथा पितृमेध है। चतुर्दश काण्ड में ‘प्रवर्ग्य’ नामक अनुष्ठान का विवेचन है। चतुर्दश काण्ड के अन्तिम छः अध्याय ही ‘बृहदारण्यकोपनिषद्’ कहलाते हैं।

तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा का एकमात्र ब्राह्मण है। इसमें तीन काण्ड तथा 20 अध्याय है। अध्यायों के अवान्तर खण्ड अनुवाक हैं।
तैत्तिरीय ब्राह्मण के प्रथमकाण्ड में अग्निहोत्र, गवामयन, वाजपेय, सोम, नक्षत्रेष्टि तथा राजसूय का वर्णन है। द्वितीय काण्ड में अग्निहोत्र, उपहोम, सौत्रामणि तथा बृहस्पतिसव, वैश्यसव आदि अनेक सत्रों का विवरण है। तृतीय काण्ड में नक्षत्रेष्टि, पुरुषमेध तथा त्रयीविद्या का विस्तृत वर्णन है। इसी काण्ड में नाचिकेताग्नि तथा विश्‍वसृज याग का विवेचन है। नाचिकेताग्नि के आख्यान का ही विकसित रूप कठोपनिषद् है।

आरण्यक- यजुर्वेद के दो आरण्यक हैं- ‘बृहदारण्यक’ शुक्ल यजुर्वेद का तथा ‘तैतिरीय आरण्यक’ कृष्ण यजुर्वेद का। ‘बृहदारण्यक’ जैसा कि नाम से विदित होता है, आरण्यक है। परन्तु आत्मतत्त्व की विशेष विवेचना के कारण यह ‘उपनिषद्’ माना जाता है। उपनिषदों के विवरण में ही इसका समावेश किया गया है। ‘तैतिरीय आरण्यक’ में दश परिच्छेद या प्रपाठक हैं, जो सामान्यतः ‘अरण’ कहे जाते हैं। प्रत्येक प्रपाठक का विभाजन अनुवाकों में हुआ है। इसके प्रथम प्रपाठक में अग्नि की उपासना तथा इष्टिकाचयन का वर्णन है। द्वितीय प्रपाठक में स्वाध्याय तथा पञ्च महायज्ञों का विवेचन है। तृतीय प्रपाठक में चातुर्होत्र चिति के लिए उपयोगी मन्त्र हैं। चतुर्थ प्रपाठक में ‘प्रवर्ग्य’ का विषय है। पंचम तथा षष्ठ प्रपाठक में यज्ञ तथा पितृमेध सम्बन्धी मन्त्रों का उल्लेख है। सप्तम से नवम प्रपाठक ‘तैतिरीयोपनिषद्’ कहे जाते हैं। दशम प्रपाठक ‘महानारायणीयोपनिषद्’ है। (क्रमशः)
सन्दर्भ- 9. वैदिक साहित्य और संस्कृति, डॉ. बलदेव उपाध्याय

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