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मृत्यु पर विजय पाने का वैदिक उपाय

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ओ3म् ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण तेवेभ्यः स्वराभरत्॥ अथर्ववेद 11.5.19॥

शब्दार्थ- (ब्रह्मचर्येण तपसा) ब्रह्मचर्य के तप से अथवा ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा (देवाः) विद्वान् लोग (मृत्युम्) मौत को (अप, अघ्नत) मार भगाते हैं (इन्द्रः) जीवात्मा (ह) भी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के द्वारा (देवेभ्यः) इन्द्रियों से (स्वः) सुख (आ भरत्) प्राप्त करता है।

भावार्थ- संसार में मृत्यु बहुत भयंकर है। मृत्यु का नाम सुनकर बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और ज्ञानी भी काँप जाते हैं। परन्तु ब्रह्मचारी मृत्यु को भी ठोकर लगाता है। वह मृत्यु को मारकर मृत्युञ्जय बन जाता है। भीष्म पितामह और आदित्य ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द मृत्यु को ठोकर लगाने वाले नर-केसरियों में हैं।
जिनकी इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती हैं, जिनकी आँख रूप की ओर, कान शब्द की ओर भागते हैं ऐसे भाग्यहीन मनुष्य को सुख कहाँ? इन्द्रियाँ आत्मा को भोग के साधन उपलब्ध करती हैं परन्तु भोग तो रोग का कारण है। भोगों में सुख कहाँ? वहाँ तो सुखाभास है। सच्चा सुख, आनन्द और शान्ति संयम में है। ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को संयम में रखता है, उन्हें विषयों में भटकने नहीं देता। इन्द्रियों के संयम से उसे सुख की प्राप्ति होती है। सभी इन्द्रियों को अपने वश में रखने का ही दूसरा नाम ब्रह्मचर्य है।

जो व्यक्ति सुख और शान्ति चाहते हैं तथा जो व्यक्ति मृत्यु को परे भगाकर मृत्युञ्जय बनना चाहते हैं, उन्हें ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिए। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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