ओ3म् ऋतस्य जिह्वा पवते मधुप्रियं वक्ता पतिर्धियो अस्या अदाभ्यः।
दधाति पुत्रः पित्रोरपीच्यां नाम तृतीयमधिरोचनं दिवः॥ ऋग्वेद 9.75.2, सामवेद 701॥
शब्दार्थ- (ऋतस्य) सत्यवादी, योगाभ्यासी की (जिह्वा) वाणी (प्रियम्) हृदय को तृप्त करने वाले (मधु) आनन्ददायक रस को (पवते) बहाती है (अस्याः धियः) इस सत्य भाषण का (पतिः) पालक और (वक्ता) सत्य ही बोलने वाला (अदाभ्यः) दुर्दमनीय होता है, वह किसी से दबाया नहीं जा सकता (पुत्रः) सत्यवादी पुत्र (पित्रोः) माता-पिता की (अपीच्याम्) अप्रसिद्ध, अज्ञात (नाम) कीर्ति और यश को (दधाति) प्रकाशित कर देता है, फैला देता है। सत्यवादी पुत्र (तृतीयाम्) तीसरे, परमोत्कृष्ट (दिवः) द्युलोक में भी (अधिरोचनम्) अपने माता-पिता के नाम को रोशन करता है।
भावार्थ-
1. सत्यवादी सदा हृदय को तृप्त करने वाली मीठी और मधुर वाणी बोलता है। उसके जीवन को आदर्श होता है ‘सत्य, प्रिय और हितकर’ बोलना। वह कभी कटु और तीखा नहीं बोलता।
2. पापी और दुराचारी सत्यभाषी को कष्ट देकर भी उसके सत्यभाषाणरूप कर्म से पृथक् नहीं कर सकते। आपत्तियाँ और संकट आने पर भी सत्यवादी सत्य ही बोलता है।
3. सत्यवादी पुत्र सत्यभाषण के प्रताप से अपने माता-पिता के अज्ञात नाम को, उनके यश और कीर्ति को चमका देता है।
4. साधारण लोगों की तो बात ही क्या, वह उच्चकोटि के विद्वानों में भी अपने माता-पिता के नाम को फैला देता है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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